झारखंडः कैसा रहा हेमंत सोरेन का एक साल का कार्यकाल?

झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने पिछले एक साल में जन अपेक्षाओं के अनुरूप कुछ निर्णय तो लिए हैं, लेकिन चुनाव में गठबंधन द्वारा उठाए गए मुद्दों, घोषणा-पत्र में किए गए वादों एवं राज्य की आवश्यकताओं की तुलना में अभी भी कुछ ख़ास काम देखने को नहीं मिला है.

Ranchi: Jharkhand Mukti Morcha (JMM) executive president Hemant Soren addresses a press conference ahead of Jharkhand Assembly Elections, in Ranchi, Sunday, Sept. 15, 2019. (PTI Photo) (PTI9_15_2019_000038B)
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन. (फोटोः पीटीआई)

झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने पिछले एक साल में जन अपेक्षाओं के अनुरूप कुछ निर्णय तो लिए हैं, लेकिन चुनाव में गठबंधन द्वारा उठाए गए मुद्दों, घोषणा-पत्र में किए गए वादों एवं राज्य की आवश्यकताओं की तुलना में अभी भी कुछ ख़ास काम देखने को नहीं मिला है.

Ranchi: Jharkhand Mukti Morcha (JMM) executive president Hemant Soren addresses a press conference ahead of Jharkhand Assembly Elections, in Ranchi, Sunday, Sept. 15, 2019. (PTI Photo) (PTI9_15_2019_000038B)
हेमंत सोरेन. (फोटोः पीटीआई)

झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के एक आदिवासी गांव में हाल में जब पूछा कि राज्य की हेमंत सोरेन सरकार का एक साल कैसा रहा, तो लोगों ने कहा, ‘यह झारखंडी सरकार है. पिछली सरकार हम लोगों की नहीं थी. उसमें जमीन लुट जाने का खतरा था, अब डर नहीं लगता है.’

साथ ही, लोगों ने यह भी कहा कि तीन साल पहले उनके गांव के 50 से अधिक परिवारों के राशन-कार्ड रद्द हो गए थे (संभवत: आधार से लिंक न होने के कारण). उन्होंने कई बार प्रखंड प्रशासन एवं वर्तमान विधायक तथा सांसद (दोनों गठबंधन के) से भी इसकी शिकायत की, लेकिन आज तक इस पर कार्रवाई नहीं हुई और वे सब परिवार राशन से वंचित हैं.

29 दिसंबर 2019 को हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड में गठबंधन (झामुमो, कांग्रेस व राजद) की सरकार बनी. इसके पहले रघुबर दास के नेतृत्व में भाजपा सह आजसू की सरकार थी, जो राज्य गठन के बाद पांच साल चलने वाली पहली सरकार थी.

इन पांच सालों में झारखंड लगातार मानवाधिकार उल्लंघनों, पुलिसिया दमन और सरकार की कई नीतियों के विरुद्ध हुए जन विरोध के कारण चर्चित रहा.

उदाहरण- बड़ी संख्या में राशन कार्ड रद्द होना, भूख से मौतें, मॉब लिंचिंग की घटनाएं, अल्पसंख्यकों पर हमले, जन विरोधों और प्रदर्शनों के विरुद्ध हिंसात्मक कार्रवाई, पत्थलगड़ी आंदोलन के विरुद्ध हजारों पर देशद्रोह के मामले, कंपनियों और परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने के लिए भूमि कानूनों में संशोधन आदि.

राज्य गठन के बाद 2019 के विधानसभा चुनाव में झामुमो का प्रदर्शन सबसे बेहतरीन रहा. गठबंधन ने चुनाव मुख्यत: स्थानीय और जन मुद्दों पर लड़ा, जबकि भाजपा ने चुनाव में प्रधानमंत्री, राष्ट्रवाद व हिंदुत्व के नाम पर वोट मांगे. भाजपा के हिंदुत्व और धार्मिक बहुसंख्यकवाद के विरुद्ध गठबंधन झारखंडी अस्तित्व और अस्मिता पर केंद्रित रहा.

पश्चिमी सिंहभूम के गांव की बातें राज्य के अन्य आदिवासी क्षेत्रों में भी सुनने को मिलती हैं. लोगों के मन में राज्य सरकार, खासकर मुख्यमंत्री के प्रति आकांक्षाएं हैं उम्मीदें तो हैं. सवाल यह है कि स्थानीय मुद्दों पर चुनाव जीतने के बाद पिछले एक साल में जन मांगों के अनुरूप सरकार की कार्रवाई कैसी रही.

पिछले एक साल का अनुभव

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने शपथ लेते ही घोषणा की कि रघुबर दास के कार्यकाल में सैकड़ों नामित और हजारों अज्ञात लोगों पर पत्थलगड़ी आंदोलन एवं भूमि कानूनों में संशोधन के विरुद्ध आंदोलन से जुड़े लोगों पर दर्ज सभी मामले वापिस लिए जाएंगे.

पिछली सरकार ने पत्थलगड़ी आंदोलन के विरुद्ध बड़े पैमाने पर पुलिसिया हिंसा और दमनात्मक कार्रवाई की थी. लगभग 200 नाजमद और 10,000 से भी अधिक अज्ञात आदिवासियों पर देशद्रोह समेत कई आरोपों में प्राथमिकियां दर्ज की गई थीं.

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की घोषणा ने इंगित किया था कि उनकी सरकार जन अपेक्षा और आदिवासियों के अधिकारों के प्रति प्रतिबद्ध रहेगी. पर घोषणा के एक साल बाद भी मामलों की वापसी नहीं हुई है.

सूचना के अधिकार से हाल में प्राप्त जानकारी के अनुसार, तीन जिलों में दर्ज पत्थलगड़ी से संबंधित कुल 30 मामलों में जिला प्रशासन ने केवल 16 मामलों की वापसी की ही अनुशंसा की है एवं गृह विभाग द्वारा इनकी वापसी की प्रक्रिया अभी भी लंबित है. अभी भी इन मामलों में फंसे अनेक आदिवासी और पारंपरिक ग्राम प्रधान मामलों के कानूनी पेंच के साथ संघर्ष कर रहे हैं और कई तो अभी भी जेल में हैं.

झारखंडी हित के प्रति प्रतिबद्धता का एक और उदाहरण दिखा लॉकडाउन के दौरान जब सरकार ने अन्य राज्यों में फंसे झारखंड के लाखों मजदूरों का साथ नहीं छोड़ा. केंद्र सरकार ने तो इनसे मुंह फेर लिया था. मजदूरों को अपने राज्य वापस लाने में इच्छाशक्ति वाले बहुत कम मुख्यमंत्री थे, जिनमें से एक हेमंत सोरेन थे.

उन्होंने स्पष्ट संदेश दिया कि सभी मजदूरों को प्रतिष्ठा के साथ वापस लाने के लिए सरकार प्रतिबद्ध है. इसके लिए सरकार ने एक कॉल सेंटर बनाया, मजदूरों का पंजीकरण किया, मजदूरों की समस्याओं पर त्वरित कार्रवाई की और गांव तक मजदूरों को पहुंचाने के लिए ट्रेन और बस की व्यवस्था की.

हालांकि इस दौरान भी राजनीतिक मंशा और प्रशासनिक कार्रवाई में एक फासला दिखा. उदाहरण के लिए, राज्य सरकार ने घोषणा की थी कि बाहर फंसे सभी मजदूरों को 1000 रुपये मिलेंगे, लेकिन अधिकांश मजदूरों को यह राशि नहीं मिली.

इसी प्रकार, सरकार ने घोषणा की थी कि वापस लौटे जिन मजदूरों को सरकारी क्वारंटीन व्यवस्था में रहने की जरूरत नहीं है, उन्हें सूखा राशन दिया जाएगा. लेकिन अनेकों को यह नहीं मिला.

प्रशासनिक उदासीनता का एक और उदाहरण है राज्य सरकार की लॉकडाउन के दौरान राशन कार्ड आवेदकों को 10 किलो अनाज देने की घोषणा का कार्यान्वयन. राज्य सरकार ने घोषणा की थी कि वैसे सभी परिवार जिनका राशन कार्ड का आवेदन लंबित है, उनको तीन महीनों के लिए 10 किलो प्रति माह अनाज मिलेगा.

घोषणा के एक महीने बाद इस योजना के लिए राशि आवंटित हुई और वितरण प्रक्रिया में अस्पष्टता के कारण योजना को धरातल तक उतारने में और समय लगा और बहुत कम परिवारों को पूरे तीन महीने का राशन मिला.

Chaibasa: People wait to collect ration and medicines, distributed by the Central Reserve Police Force (CRPF) personnel, at Gudri block in Chaibasa district, Saturday, June 27, 2020. PTI Photo)(PTI27-06-2020 000236B)
कोरोना संकट के दौरान में झारखंड के चाईबासा में भोजन और दवाइयां लेने के लिए जुटे लोग. (फाइल फोटोः पीटीआई)

पिछले एक वर्ष में झारखंड सरकार की एक स्पष्ट राजनीतिक दिशा भी देखने को मिली. हालांकि पूर्व में झामुमो ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई है, लेकिन इस बार हेमंत सोरेन केंद्र सरकार की कई नीतियों (जिनके विरुद्ध जन विरोध हुआ) के विरुद्ध एक स्पष्ट रुख अपनाते दिख रहे हैं.

उदाहरण के लिए, केंद्र सरकार द्वारा कोयले के व्यावसायिक खनन के निर्णय के विरुद्ध झारखंड सरकार ने आपत्ति जताई है एवं सर्वोच्च न्यायालय में इसके विरुद्ध अर्जी भी दाखिल की है.

झारखंड सरकार ने व्यावसायिक खनन की नीति को पूर्ण सहमति तो दी है, लेकिन कोयला ब्लॉक्स की नीलामी प्रक्रिया से संबंधित कई महत्वपूर्ण सवाल भी उठाए है.

साथ ही मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने झारखंड में लंबे समय से आदिवासी अधिकारों पर संघर्षरत स्टेन स्वामी की राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ्तारी की कड़ी निंदा की है.

हालांकि राज्य में पिछले पांच सालों में बढ़े हिंदुत्व-आधारित सामाजिक विभाजन और सांप्रदायिकता के विरुद्ध सरकार और गठबंधन दलों की ओर से अभी तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई है, लेकिन हाल में राज्य सरकार के नेतृत्व में विधानसभा द्वारा आदिवासियों के लिए जनगणना में एक अलग धर्म कोड की पारित अनुशंसा ने हिंदुत्व राजनीति को एक चुनौती दी है.

सरकार ने पिछले एक साल में जन अपेक्षाओं के अनुरूप कुछ निर्णय तो लिए हैं, लेकिन चुनाव में महागठबंधन द्वारा उठाए गए मुद्दों, घोषणा-पत्र में किए गए वादों एवं झारखंड की आवश्यकताओं की तुलना में अभी भी कुछ खास काम देखने को नहीं मिला है.

भुखमरी और कुपोषण

झारखंड की व्यापक भुखमरी और कुपोषण किसी से छुपी हुई नहीं है, लेकिन एक वर्ष में सरकार ने इन्हें खत्म करने की ओर कोई साझा रणनीति नहीं बनाई. काफी जन दबाव के बाद सितंबर में सरकार ने 15 लाख छूटे लोगों को जन वितरण प्रणाली में जोड़ने के लिए राज्य खाद्य सुरक्षा योजना की घोषणा की.

यह स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन जन वितरण प्रणाली से छूटे पात्र लोगों की संख्या इसकी लगभग तीन गुनी है. इसी प्रकार सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना से वृद्ध, एकल महिलाओं व विकलांगों की लगभग 40 प्रतिशत छूटी आबादी को जोड़ने की पहल नहीं की गई है. मध्याह्न भोजन और आंगनवाड़ियों में मिलने वाले भोजन की पौष्टिकता में भी कोई सुधार नहीं किया गया है.

पिछली सरकार के कार्यकाल में हुई भूख से मौतों के मामलों को गठबंधन दलों ने जोर-शोर से उठाया था, लेकिन जब वर्तमान सरकार के बजट सत्र में इस मौतों पर सवाल पूछा गया, तो उसने जवाब दिया कि राज्य में ऐसी कोई घटना नहीं हुई है. यह सरकार की राज्य में भुखमरी और कुपोषण के प्रति उदासीनता को इंगित करता है.

Tribal women carry bundles of twigs and leaves near Shantiniketan, 150 km (95 miles) northwest of Calcutta on March 18, 2004. REUTERS/Jayanta Shaw/Files
(फाइल फोटोः रॉयटर्स)

साथ ही, राज्य में एक बड़ी समस्या रही है सरकारी सेवा और सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के लिए लोगों का दैनिक स्तर पर संघर्ष करना. चाहे राशन कार्ड या पेंशन का आवेदन हो, मनरेगा अंतर्गत काम की मांग या अधिकारों के हनन के विरुद्ध शिकायत, इनके लिए भ्रष्टाचार और लालफीताशाही किसी प्रकार से कम नहीं हुआ.

उदाहरण के लिए, मनरेगा में ठेकेदारों और प्रशासनिक अधिकारियों के भ्रष्टाचार के गठजोड़ को खत्म करने की ओर कोई राजनीतिक कार्रवाई नहीं दिखी है.

प्राकृतिक संसाधनों पर घटता नियंत्रण

प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक नियंत्रण एक अहम मांग रही है. जबरन भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के विरुद्ध राज्य में संघर्ष का लंबा इतिहास है. इन मुद्दों को गठबंधन दलों ने जोर-शोर से चुनावी अभियान में उठाया तो था, लेकिन इस ओर न के बराबर कार्रवाई हुई है.

पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों और पेसा को पूर्ण रूप से लागू करने एवं पिछली सरकार द्वारा बनाई गई लैंड बैंक नीति (जिसका पुरजोर विरोध हुआ था) को रद्द करने पर वर्तमान सरकार में चुप्पी है.

चुनाव के दौरान झामुमो और कांग्रेस ने बढ़-चढ़कर अडाणी पावर परियोजना को रद्द करने का वादा किया था, लेकिन अडाणी परियोजना पर पहले की तरह ही जोर-शोर से काम चल रहा है.

राज्य में खनन और बड़ी परियोजनाओं से हुए व्यापक विस्थापन के अनुभव को देखते हुए आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों एवं स्वशासन व्यवस्था की संवैधानिक अधिकारों के आधार पर इस ओर एक राज्यस्तरीय नीति बनाने की जरूरत है.

सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन

रघुबर दास सरकार के दौरान आदिवासियों और सरकार की नीतियों के विरुद्ध प्रदर्शन करने वालों के विरुद्ध सुरक्षा बलों द्वारा हिंसा के लिए राज्य सुर्खियों में रहता था. चाहे छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी) या संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी) में संशोधन के विरुद्ध आंदोलन या पत्थलगड़ी आंदोलन या फिर रांची में आंगनवाड़ी सेविकाओं का धरना हो, इन सब पर पुलिस ने लाठियां बरसाई थीं. कई लोगों की तो पुलिस की गोली से मौत भी हुई थी.

दुख की बात है कि अभी तक सुरक्षाबलों के रवैये में कुछ खास फर्क देखने को नहीं मिला है. जून में सीआरपीएफ द्वारा नक्सल सर्च अभियान के दौरान पश्चिमी सिंहभूम के चिरियाबेड़ा गांव के 20 बेगुनाह आदिवासियों की बेरहमी से पिटाई की गई थी.

(फाइल फोटोः रॉयटर्स)
(फाइल फोटोः रॉयटर्स)

इस मामले में आज तक सीआरपीएफ के किसी जवान के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई और न ही पीड़ितों को कोई मुआवजा मिला है. यह सोचने की बात है कि पश्चिमी सिंहभूम से झामुमो को भारी जीत मिली, लेकिन आदिवासियों के इस शोषण के विरुद्ध स्थनीय विधायक और पार्टी चुप्पी साधे हैं.

पिछले एक वर्ष में स्थानीय पुलिस और सीआरपीएफ द्वारा हिंसा के अनगिनत उदाहरण देखने को मिले. चिरियाबेड़ा समेत कई मामलों में मुख्यमंत्री ने ट्विटर पर कार्रवाई का आदेश भी दिया लेकिन अधिकांश मामलों में जमीनी स्तर पर कुछ खास असर नहीं हुआ.

उक्त मामलों के अलावा कई ज्वलंत मुद्दों, जैसे सरकारी रिक्तियां व व्यापक बेरोजगारी, में भी कार्रवाई नहीं दिखी. लॉकडाउन में फंसे मजदूरों को वापस लाने में जो प्रतिबद्धता दिखी वो उनके लिए रोजगार के साधन बनाने में एवं मनरेगा को हर मजदूर तक पहुंचाने में नहीं दिखी.

राज्य की दयनीय सार्वजानिक स्वास्थ्य व शिक्षा व्यवस्था को सुधारने की ओर भी कार्रवाई नहीं हुई है. पिछली सरकार के विद्यालयों को मर्ज करने की नीति के कारण राज्य के 4600 विद्यालयों को बंद किया गया था. इन विद्यालयों को पुन: शुरू करने का महागठबंधन का वादा अभी भी अपूर्ण है.

राष्ट्रीय राजनीति में झारखंड

इस साल का अधिकांश समय सरकारी कामकाज महामारी और लॉकडाउन से प्रभावित रहा. बाधाओं के बावजूद पिछली सरकार के कार्यकाल की तुलना में में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में गठबंधन सरकार की शुरुआत आशाजनक तो है और आदिवासी-मूलवासियों का इस सरकार पर विश्वास भी है, लेकिन सफर लंबा है.

गठबंधन सरकार को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि राज्य गठन के बाद से भाजपा के जन समर्थन में लगातार वृद्धि हो रही है. 2019 विधानसभा चुनाव में हारने के बावजूद भाजपा को कुल वोट का एक तिहाई मिला एवं लगभग एक तिहाई सीटें मिलीं.

अगर आने वाले दिनों में झामुमो व अन्य गठंबधन दलों को अपने जन समर्थन को और मजबूत करना है तो जन अपेक्षाओं में खड़े उतरने की जरूरत है. हालांकि सरकार को अभी एक साल ही हुआ है, लेकिन यह आवश्यक है कि दिशा और प्रतिबद्धता स्पष्ट हो.

वर्तमान दौर में झारखंड की गठबंधन सरकार का देश की विपक्षी राजनीति के लिए एक विशेष महत्व है. देश में संवैधानिक मूल्यों के विपरीत हिंदुत्व आधारित राजनीति लगातार गति पकड़ रही है. साथ ही केंद्र सरकार के विभिन्न नीति और निर्णय देश के संघीय ढांचे को भी कमजोर कर रहे हैं.

संवैधानिक और कानूनी संस्थानों में राजनीतिक पक्षपात के उदाहरण भी बढ़ते जा रहे हैं. ऐसे समय में हिंदुत्व राजनीति और केंद्रीकरण को चुनौती देते हुए लोगों के अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध विपक्षी राजनीति की जरूरत और भी बढ़ जाती है. साथ ही आदिवासी प्राथमिकताओं पर आधारित राजनीति की भी सख्त जरूरत है. झारखंड इस ओर एक प्रतीक बन सकता है.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)

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