प्रतिरोध की लौ जलाए रखने वाला नागरिक ही ‘इंडियन ऑफ द ईयर’ है

चाहे शाहीन बाग़ हो या दिल्ली की विभिन्न सीमाओं की सड़कें, भारतीय नागरिक अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए खड़े हो रहे हैं.

सिंघु बॉर्डर पर नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे 70 साल के संतोख सिंह को आंसू गैस के शेल से चोट लगने के बाद टांके लगाए गए थे. (फोटो: रॉयटर्स)

चाहे शाहीन बाग़ हो या दिल्ली की विभिन्न सीमाओं की सड़कें, भारतीय नागरिक अपनी अस्मिता और अधिकारों के लिए खड़े हो रहे हैं.

सिंघु बॉर्डर पर नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे 70 साल के संतोख सिंह को आंसू गैस के शेल से चोट लगने के बाद टांके लगाए गए थे. (फोटो: रॉयटर्स)
सिंघु बॉर्डर पर नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे 70 साल के संतोख सिंह को आंसू गैस के शेल से चोट लगने के बाद टांके लगाए गए थे. (फोटो: रॉयटर्स)

ऐसे माहौल में जिसमें असहमति प्रकट करने को बगावत, यहां तक कि देशद्रोह के बराबर माना जाता है, जहां अपने अधिकारों के लिए खड़े होने के लिए लोगों को जेलों में बंद कर दिया जाता है, और जहां एक कार्टून या चुटकुला भी सियासतदानों को नाराज कर सकता है, कुछ भारतीयों ने यह ऐलान कर दिया है कि वे दबाने से दबने वाले नहीं हैं. खासतौर पर तब जब मामला स्वाभिमान और आजीविका का हो.

इस साल सबकी निगाहें जानलेवा कोरोना वायरस की ओर टिकी रहीं, जिसने पूरी दुनिया में तबाही मचा दी, जिसने करोड़ों लोगों को अपने घरों में कैद करके रख दिया और जो अपने पीछे मौतों का खौफनाक मंजर छोड़ गया.

पूरी दुनिया पर ताला लगा दिया गया. भारत में खाने-पीने के सामानों, दवाइयों और अन्य अनिवार्य वस्तुओं का इंतजाम करने के लिए महज 4 घंटे का समय देकर लॉकडाउन लगा दिया गया.

इसने अफरातफरी और दुश्वारियों को जन्म दिया, लेकिन तनाव भरी ऐसी आकस्मिकता तो अब इस सरकार और नरेंद्र मोदी की सामान्य शैली और उनकी पहचान बन गया है.

इसकी कीमत लाखों प्रवासी मजदूरों को चुकानी पड़ी जो पैदल ही सैकड़ों मील दूर अपने घरों के लिए निकल पड़े, क्योंकि वे अपने परिवार की सुरक्षा के बीच रहना चाहते थे.

In locked down India, poor migrants are on a long march back home March 27, 2020. (Photo: REUTERS/DANISH SIDDIQUI)
(फोटो: रॉयटर्स)

कई लोगों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया और अक्सर राज्यों ने अपने ही लोगों को सीमा न पार करने देने की हर मुमकिन कोशिश की. जिस दौरान यह सब हो रहा था नरेंद्र मोदी ने लोगों को थालियां बजाने के लिए कहा, ताकि कोरोना को हराने की लड़ाई में लोगों का मनोबल बढ़ाया जा सके.

इस दरम्यान छोटे व्यापार चौपट हो गए हैं- स्वरोजगार कर रहे या सेवा उद्योग में लगे नौजवान बेरोजगार हो गए हैं. उनके सामने एक अनिश्चित भविष्य मुंह बाये खड़ा है.

जब फेरीवाले और स्वरोजगार करने वाले- प्लंबर, बढ़ई और बैरे आदि वापस शहरों को लौटे, तब उन्होंने पाया कि उनके लिए कोई काम नहीं बचा है.

इस निराशाजनक साल में जबकि अर्थव्यवस्था हाल के वर्षों के सबसे निचले स्तर पर है, सरकार ने दो चीजें कीं- असहमति जताने वाले लोगों पर कार्रवाई और बगैर किसी विचार-विमर्श के कानून बनाना.

उमर खालिद को जेल में बंद कर दिया गया और वे आज तक जेल में हैं. भीमा कोरेगांव के आरोपी अभी तक जेल में हैं और शासन ने वरवरा राव और फादर स्टेन स्वामी जैसे जेल में बंद किए गए वृद्ध कार्यकर्ताओं के प्रति भी कोई मानवता नहीं दिखाई है.

इसके बावजूद असहमति दर्ज करने, सवाल पूछने अपने अधिकारों और गरिमा के लिए खड़े होने और लड़ने का जज्बा बरकरार है.

इस साल का आगाज नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ शाहीन बाग के प्रदर्शन से हुआ, जो शुरू तो दिसंबर, 2019 में हुआ था, लेकिन जो परवान चढ़ा 2020 में, जब इसका नेतृत्व महिलाओं ने संभाला और उनके खिलाफ हमले तेज हुए.

यह आंदोलन 101 दिन चला और अंत में कोविड-19 लॉकडाउन के कारण यह बंद हुआ. सीएए को वापस नहीं लिया गया है, लेकिन इसे लागू करने को टाल दिया गया है.

पश्चिम बंगाल में भाजपा अपने अभियानों में सीएए और एनआरसी के बारे में बात नहीं कर रही है. इसे पीछे हटने की निशानी, यहां तक कि एक तरह की जीत के तौर पर भी देखा जा सकता है.

और अब इस साल का अंत तीन नए किसान कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन से हो रहा है, जिन्हें लॉकडाउन के दौरान सरकार द्वारा जल्दबाजी में पारित किया गया. जैसा कि नजर आता है, यह आंदोलन भी 2021 में जाएगा.

शाहीन बाग. (फोटो: रॉयटर्स)
शाहीन बाग. (फोटो: रॉयटर्स)

शाहीन बाग की महिलाएं सीएए के खिलाफ थीं क्योंकि उनकी नजर में यह अल्पसंख्यकों, खासतौर पर भारत के मुसलमानों के खिलाफ था. इस बात का वास्तविक खतरा था कि उचित दस्तावेज नहीं होने के कारण उनमें से कइयों की अ-नागरिक बता दियाजाएगा. इसका मतलब यह होगा कि वे न सिर्फ देशविहीन हो जाएंगे, बल्कि उन्हें डिटेंशन सेंटर में बंदी बनाया जा सकता है.

किसानों के लिए भी यह अस्तित्व का सवाल है. ये कृषि कानून उनकी शक्ति छीन लेंगे और उन्हें ऐसी कीमतों पर अपनी फसल बेचने पर मजबूर करेंगे जो अंततः फसलों की खरीद करनेवाले बड़े कॉरपोरेटों द्वारा नियंत्रित होंगे.

उन्हें ऐसी फसलों की खेती को अपनाना होगा जिसकी बड़े खरीददारों के बीच मांग है. और किसी विवाद की स्थिति में उनके पास कानूनी सहायता का कोई रास्ता नहीं होगा– एक स्थानीय स्तर का अफसर मामले का अपने विवेक से निपटारा करेगा.

एपीएमसी के तहत खरीद बिक्री की वर्तमान प्रणाली दोषपूर्ण है, लेकिन ये तथाकथित सुधार उससे भी कहीं ज्यादा खराब हैं.

भाजपा के प्रवक्ताओं ने, चाहे ऑनलाइन माध्यमों पर हो या टेलीविजन पर किसानों खारिज करने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखी है- उन्हें धरनास्थल पर किसानों को पिज्जा परोसा जाना भी आलोचना लायक बिंदु नजर आया.

उन्होंने किसानों पर देशद्रोही खालिस्तानी का ठप्पा लगाने की कोशिश की. लेकिन यह देखकर कि यह चाल कामयाब नहीं हो रही है, ट्रोलों ने ही नहीं, रविशंकर प्रसाद जैसे मंत्रियों ने भी इन विरोध प्रदर्शनों की साजिश रचने के लिए ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग‘ की आलोचना की.

यह भाजपा का आजमाया हुआ नुस्खा है- जब भी कोई सरकार से अपनी असहमति दर्ज करता है, यह उस पर कीचड़ उछालती है, इस बात की परवाह किए बगैर कि यह कितना अजीब है.

कुछ लोगों को लगता है कि वे ऐसा आदत से मजबूर होकर अनायास ही करते हैं और उन्हें इस बात की कोई समझ नहीं है कि इसका कोई मतलब है कि नहीं. यह नुस्खा अपना पुराना पड़ गया है और कम से कम यह किसानों पर तो कारगर नहीं ही सिद्ध हुआ है.

सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के मामले में उनकी उपेक्षा करना और उन पर हमला करना अपेक्षाकृत तौर पर ज्यादा आसान था- भारतीयों के एक बड़े तबके में मुसलमानों के खिलाफ दुर्भावना भरी गई है और वे सांप्रदायिक पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं.

बड़ी संख्या में धरने पर बैठी औरतों की तस्वीर जिनमें कुछ बुर्काधारी महिलाएं भी थीं, ने सीधे इस धारणा को पुष्ट किया कि एक संप्रदाय के तौर पर मुसलमान पूरी तरह से मुख्यधारा में शामिल नहीं हुए है, और इतना ही नहीं, वे आतंकवादी भी पैदा करते हैं.

अचानक एक नौजवान द्वारा गोली चलाना, अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा द्वारा दिए गए भड़काऊ भाषण और टेलीविजन पर बिना रुके लगातार चलनेवाला प्रोपगेंडा का उन लोगों पर भी मनोवांछित असर पड़ा जो अनिवार्यतः इस सरकार और इसके नेता के अनुयायी नहीं थे.

लेकिन किसानों का मामला दूसरा है. भारतीयों के जेहन में किसानों की एक भलेमानुष वाली छवि अंकित है- समुदाय और देश का पेट भरने के लिए चिलचिलाती धूप में खेती में मेहनत कर रहे व्यक्ति की.

और इसके बदले में किसानों को चवन्नी भी नहीं मिलती, जबकि सारे फायदे बिचौलिए उठा लिए जाते हैं. अक्सर कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था का सबसे बेहतर प्रदर्शन करनेवाला क्षेत्र रहता है, लेकिन सरकार की तरफ से इसके साथ हमेशा सौतेला व्यवहार किया जाता है, भले ही सरकार कोई हो.

सिख किसानों की तो और भी सकारात्मक छवि है, सिर्फ इसलिए नहीं कि सिखों को मेहनती होने के साथ-साथ खुशमिजाज छवि बनी है, जो न केवल अन्न उपजाते हैं, बल्कि देश के लिए शहीद भी होते हैं. उन्हें देशद्रोही बताना हास्यास्पद है.

पंजाब एक राज्य है, जहां हिंदुत्व पूरी तरह से जड़ें नहीं जमा पाया है और जहां समुदाय और जुड़ाव का एक गहरा भाव है. स्वर्ण मंदिर को पवित्र और शांत जगह के तौर पर देखा जाता है. सेवा की अवधारणा जो कि अक्सर जात-धर्म के भेदभाव से ऊपर उठकर हर किसी को पूरी तरह से मुफ्त भोजन कराने वाले लंगर में दिखाई देती है, सिखों को एक पूरी तरह से एकीकृत और धर्मनिरपेक्ष समुदाय की पहचान देती है.

यहां यह सवाल पूछा जा सकता है कि आखिर किसानों के खिलाफ निंदा अभियान शुरू करते वक्त भाजपा के आईटी सेल के विशेषज्ञों के दिमाग में क्या चल रहा था.

यह साल कई मायनों में यकीन न करने वाले यथार्थ सरीखा रहा है, और जब यह समाप्ति की दहलीज पर खड़ा है, हम अब तक इस बात को लेकर निश्चय नहीं कर पाए हैं कि आखिर इसका सामना कैसे किया जाए.

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में नये सिरे से लॉकडाउन लगाये जा रहे हैं. वायरस का एक नया म्यूटेंट स्ट्रेन दस्तक दे चुका है. कोविड के खिलाफ टीका लगाने का काम अभी बिल्कुल शुरूआती अवस्था में है (भारत में तो यह अभी तक शुरू भी नहीं हुआ है).

चीजें बहुत जल्दी सामान्य नहीं होने वाली हैं. ऐसे हालातों में विरोध प्रदर्शनों की बात बेमानी लग सकती है, क्योंकि कई बड़े सवालों से हम जूझ रहे हैं.

लेकिन विरोध प्रदर्शनों- और सिर्फ भारत में ही नहीं- हमें इस बात की याद दिलाते हैं नागरिकों से इस बात की उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे बिना प्रतिरोध किए हथियार डाल देंगे और सरकार उनसे जैसा करने को कहे, स्वीकार कर लेंगे.

थाली पीटना बहुत अच्छा है, लेकिन अर्थव्यवस्था को पटरी पर कैसे लाया जाएगा, नौकरियां कैसे आएंगी और सबसे अहम ढंग से नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कैसे होगी- ये सवाल ज्यादा गंभीर जवाबों की मांग करते हैं.

अमेरिका के मिनियापोलिस में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद अमेरिकी लोगों ने एक होकर ब्लैक लाइव्स मैटस के बैनर तले मार्च किया. इसके समर्थन में दुनियाभर में जुलूस निकाले गए.

ट्रंप प्रशासन ने हिंसक तरीके से प्रतिक्रिया दी, लेकिन कई राज्यों ने अपने कानूनों और पुलिस प्रशासन की ओर रुख करने का फैसला किया ताकि चीजों को दुरुस्त किया जा सके.

भारत में हो रहे प्रदर्शनों ने, चाहे वे शाहीन बाग के प्रदर्शन हों, या दिल्ली के बाहर सड़कों पर, जहां किसान कंपकंपाती ढंड और अपने कई साथियों की शहादत के बावजूद बैठे हुए हैं, हमें बताते हैं कि भारतीय भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने से कभी पीछे नहीं रहेंगे.

यह भी अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है कि विरोध प्रदर्शन कर रहे किसान जेलों में बंद सत्ता के आलोचकों के साथ अपनी एकजुटता का इजहार कर रहे हैं. उनकी लड़ाई सिर्फ उनके अपने के लिए नहीं है, बल्कि अन्याय के खिलाफ है.

ऐसे में जबकि हम एक और अनिश्चित साल में दाखिल हो रहे हैं, जिसके गुजर रहे साल से बेहतर होने का कोई भरोसा नहीं है, इस तरह के दृश्य यह उम्मीद जगाते हैं कि भारतीय सवाल पूछने की अपनी परंपरा को कायम रखेंगे.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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