‘सलमा आपा ने उतना लिखा नहीं जितना वे लिख सकती थीं’

सलमा सिद्दीक़ी को अधिकतर लोग कृश्न चंदर की हमसफ़र के रूप में ही जानते हैं, पर उनकी एक अलग पहचान भी थी..एक लेखक की. सलमा 13 फरवरी को इस दुनिया से रुख़सत हो गईं. सलमा आपा, सब उन्हें इसी नाम से जानते थे…अक्सर ही लोग उनकी ख़ूबसूरती के ही क़ायल रहते. उनकी बड़ी, गहरी आंखें मानो उर्दू की ‘ग़िलाफ़ी आंखें’ जैसी मिसाल उन्हीं के लिए गढ़ी गई हो…उनके चेहरे की तारीफ़, जिसमें उनकी मां बेग़म राशिद अहमद सिद्दीक़ी का अक़्स था. पर इन सब से अलग थी उनकी हाज़िरजवाबी, उनका किसी भी मौके पर सटीक उर्दू शेर पढ़ना, उनका मज़ाकिया

सलमा सिद्दीक़ी को अधिकतर लोग कृश्न चंदर की हमसफ़र के रूप में ही जानते हैं, पर उनकी एक अलग पहचान भी थी..एक लेखक की. सलमा 13 फरवरी को इस दुनिया से रुख़सत हो गईं.

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सलमा सिद्दीक़ी और कृश्न चंदर (फाइल फोटो)

सलमा आपा, सब उन्हें इसी नाम से जानते थे…अक्सर ही लोग उनकी ख़ूबसूरती के ही क़ायल रहते. उनकी बड़ी, गहरी आंखें मानो उर्दू की ‘ग़िलाफ़ी आंखें’ जैसी मिसाल उन्हीं के लिए गढ़ी गई हो…उनके चेहरे की तारीफ़, जिसमें उनकी मां बेग़म राशिद अहमद सिद्दीक़ी का अक़्स था. पर इन सब से अलग थी उनकी हाज़िरजवाबी, उनका किसी भी मौके पर सटीक उर्दू शेर पढ़ना, उनका मज़ाकिया अंदाज़ जो उन्हें वालिद मशहूर प्रोफेसर राशिद अहमद से विरासत में मिला था.

उनमें वो सब कुछ था जो कैथोलिक अलीगढ़ी परवरिश में किसी को मिल सकता था, ज़िंदगी को कॉस्मोपॉलिटन नज़र से देखने का रवैया, तेज़ दिमाग़, पढ़ने का शौक़ और सबसे ज़रूरी उर्दू जुबां और तहज़ीब के लिए मुहब्बत. अलीगढ़ में सलमा आपा का पैतृक घर पीजी वुडहाउस के ‘ब्लान्डिंग्स कैसल’ जैसा था (बस यहां सुअर नहीं थे).

गुलाब की ढेरों झाड़ियां, सजा-संवरा लॉन, तरह-तरह के बड़े-छोटे पेड़, फूलों की बेलें, उसके आगे बना बरामदा, जहां दोपहर की चाय पर ऐसा माहौल होता था मानो कोई जलसा हो. एक पुराना  आलीशान घर जो हमेशा भाई-बहनों, रिश्तेदारों और नौकर-चाकरों के शोर से गुलज़ार रहता. जहां देशी-विदेशी मेहमानों का लगातार आना-जाना बना रहता. (यहां डॉ. ज़ाकिर हुसैन और ई एम फॉस्टर भी मेहमान बन चुके हैं)

यह केवल ऐसे ही घर में हो सकता था, जहां राशिद साहब जैसे क़िस्सागो हों, कि घर के एक पुराने आश्रित सिकंदर पर एक पूरा ऐतिहासिक वृत्तांत लिखा जा सकता था. राशिद साहब मानो वुडहाउस के उर्दू बोलने वाले लॉर्ड एम्सवर्थ थे जिनके पास छोटी-छोटी रोचक कहानी-क़िस्सों का पिटारा हमेशा रहता.

यही वजह रही होगी कि सलमा सिद्दीक़ी ‘सिकंदरनामा’ लिख सकीं, जिसमें सिकंदर के क़िस्से इस ख़ूबी से कहे गए हैं कि वो आपकी आंखों के सामने ज़िंदा हो जाएंगे. मैं जब सिकंदर से मिली थी, तब वो बहुत बूढ़े हो चुके थे, पर इससे उनके क़िस्से कहने के उस मज़ेदार लहज़े में कोई फर्क़ नहीं आया था, जो उनका ट्रेडमार्क कहा जाता था.

सलमा आपा की पैदाइश साल 1930 में बनारस के पास की थी. अलीगढ़ से उन्होंने उर्दू में एमए किया था, उसके बाद कुछ वक़्त के लिए विमेंस कॉलेज में पढ़ाया. उनकी पहली शादी बहुत कम वक़्त तक चली, उसके बाद 1957 में उन्होंने प्रगतिशील उर्दू अदीब कृश्न चंदर से शादी की. अगले दो दशकों तक यह खुशमिजाज़ जोड़ा अपने इस ख़ूबसूरत रिश्ते से बॉम्बे के उर्दू सर्किल की शान बढ़ाता रहा.

यह सलमा आपा की ज़िंदगी का सबसे अच्छा वक़्त था. जहां एक ओर उनके शौहर शाइस्ता और कुछ ख़ामोश मिजाज़ थे वहीं सलमा आपा उसके बिल्कुल उलट. पर अफ़सोस है कि सलमा आपा ने उतना लिखा नहीं जितना वे लिख सकती थीं, या जितना उन्हें लिखना चाहिए था. लिखने का जो हुनर उन्हें अपने विरसे में मिला था या अलीगढ़ के माहौल का जो असर उनको मिला, जितने क़रीब से उन्होंने उर्दू के बेहद अच्छे साहित्य को पढ़ा, वो सारा हुनर उनके शौहर की कलम के मुक़ाबले बौना ही साबित हुआ.

या कौन जाने उन्होंने जान-बूझकर ही ख़ुद को छुपाकर रखा था या फिर वो अपने शौहर की प्रेरणा बनकर ही ख़ुश थीं. जिन्होंने सिकंदरनामा पढ़ा है वो प्रगतिशील लेखक संघ में सलमा आपा के लेखन की झलक ज़रूर पाते होंगे.

1977 में कृश्न चंदर साहब के गुजरने के बाद वो मुंबई में अकेले रहा करती थीं, बम्बई के प्रगतिशीलों में वो आख़िरी थीं जो हमेशा इंटरव्यू और बात करने के लिए तैयार रहती थी…चाहे बात किसी नामी पत्रकार से हो या किसी नए पत्रकार से. वे हर विषय पर बात करने को तैयार होतीं, भले ही वो प्रगतिशील आंदोलन के बारे में हो, कृश्न चंदर के लेखन के बारे में या उर्दू की हालत पर.

उन्हें उस अलीगढ़ के बारे में बात करना बहुत पसंद था जिसे उन्होंने देखा था, वो अलीगढ़ जिसने सिर्फ उन्हें ही नहीं बल्कि उनके जैसे कितनों को कितना कुछ दिया. वो अलीगढ़ जहां से निकलकर इस्मत चुगताई, जांनिसार अख़्तर, मजरूह सुल्तानपुरी, केए अब्बास बॉम्बे पहुंचे. 13 फरवरी को 89 साल की उम्र में सलमा आपा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया..और अब शायद कोई नहीं बचा जो अपने क़िस्सों से कभी हमें फैज़ के इस शेर के मायने समझा पाएगा..

चलो आओ तुमको दिखाएं हम जो बचा है मक़तल-ए-शहर में

ये मज़ार अहल-ए-सफ़ा के हैं ये हैं अहल-ए-सिद्क की तुरबतें

 

(लेखिका इतिहासकार और अनुवादक हैं)

 

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