झारखंड सरकार गांधी की छवि और जनता का पैसा ईसाईयों के ख़िलाफ़ नफरत फैलाने में इस्तेमाल कर रही है

11 अगस्त को झारखंड के अधिकतर हिंदी अख़बारों में छपे एक सरकारी विज्ञापन में गांधी के नाम से धर्मांतरण के संबंध में वो बातें लिखी गईं, जो उन्होंने कभी कही ही नहीं थीं.

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11 अगस्त को झारखंड के अधिकतर हिंदी अख़बारों में छपे एक सरकारी विज्ञापन में गांधी के नाम से धर्मांतरण के संबंध में वो बातें लिखी गईं, जो उन्होंने कभी कही ही नहीं थीं.

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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पास अब एक नया काम है. तीन साल पहले भारत सरकार के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के ब्रांड एंबेसडर नियुक्त किए जाने के बाद अब उनकी तैनाती झारखंड सरकार के धर्मांतरण विरोधी अभियान के मुख्य प्रवक्ता और प्रतीक के तौर पर की गयी है.

झारखंड सरकार और भाजपा ने एक ऐसा कदम उठाया है, जिस पर विवाद खड़ा हो चुका है. 11 अगस्त को उन्होंने एक पूरे पृष्ठ का विज्ञापन सभी अख़बारों में गांधी जी के एक कथन के साथ जारी कर दिया, जिसमें गांधी ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासी और दलितों के धर्मांतरण और धर्म परिवर्तन की निंदा कर रहे हैं.

हाथ में लाठी थामे मुस्कुराकर चलते हुए गांधी जी की तस्वीर के साथ छपा यह कथन झूठा और भ्रामक है. सबसे पहले विज्ञापन पर नज़र डालते हैं. यह झारखंड सरकार द्वारा जारी किया गया है जिसमें राज्य के मुख्यमंत्री का भी फोटो है.

यह हिंदी में है और इसकी शुरुआत इस घोषणा से होती है, ‘भगवान बिरसा मुंडा और स्व. कार्तिक उरांव का सपना पूरा करने की दिशा में पहल.’

गांधी जी के नाम से लिखा कथन है,

‘यदि ईसाई मिशनरी समझते हैं कि ईसाई धर्म में धर्मांतरण से ही मनुष्य का आध्यात्मिक उद्धार संभव है, तो आप यह काम मुझसे या महादेव देसाई से क्यों नहीं करते. क्यों इन भोले-भाले, अबोध, अज्ञानी, गरीब और वनवासियों के धर्मांतरण पर जोर देते हैं. ये बेचारे तो ईसा और मोहम्मद में भेद नहीं कर सकते और न आपके धर्मोपदेश को समझने की पात्रता रखते हैं. वे तो गाय के समान मूक और सरल हैं. जिन भोले-भाले अनपढ़ दलित और वनवासियों को गरीबी का दोहन करके आप ईसाई बनाते हैं वे ईसा के लिए नहीं ‘चावल अर्थात पेट के लिए ईसाई होते हैं.’

एक क्षण के लिए गांधी जी को परे रखकर बात करते हैं कि उन्होंने क्या कहा और क्या महसूस किया! इसके इतर बात करें तो झारखंड सरकार को तत्काल यह विज्ञापन वापस लेना चाहिए और झारखंड और भारत के ईसाई समुदाय से माफी मांगनी चाहिए क्योंकि यह विज्ञापन सीधा ईसाईयों के धार्मिक संस्थानों पर निशाना साधता है.

समाज के एक वर्ग पर हमला करने के लिए राज्य के तंत्र और शक्तियों का यह दुरुपयोग इतना बेशर्मी भरा और भड़काऊ है कि आप हक्के-बक्के रह जाते हैं. ईसाई और उनकी मिशनरी इस देश के वैध नागरिक हैं और टैक्स चुकाते हैं. इस विज्ञापन का भुगतान राज्य सरकार द्वारा किया गया है. इसका मतलब हुआ कि ईसाई समुदाय के पैसे से ही उनके ख़िलाफ़ संदेह, दुर्भावना और नफरत पैदा करने की साजिश की जा रही है. मानो कि उनसे उन्हीं की कब्र खुदवाई जा रही हो!

अगर यह विज्ञापन स्वयंसेवक संघ या इसके सहयोगियों द्वारा जारी किया गया होता तो समझ भी आता क्योंकि ईसाई और मुसलमानों के प्रति उनका बैर जगजाहिर है. लेकिन एक राज्य सरकार, भले ही वह संघ की ही राजनीतिक इकाई (भाजपा) द्वारा चलाई जा रही हो, ऐसा नहीं कर सकती.

दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य सरकार दलित और आदिवासियों को मूक, अज्ञानी और निर्णय लेने में अक्षम कमअक्ल बता रही है, जिनके पास अपना कोई दिमाग नहीं है. ऐसा करके वह भारत के सभी दलित और आदिवासियों का अपमान कर रही हैं. यहां तक कि उसने अपनी पक्षपातपूर्ण सोच को सही ठहराने के लिए उसे गांधी जैसी शख्सियत की आवाज़ दे दी.

एक व्यक्ति के रुप में गांधी आदिवासी और दलितों पर अपने विचार रखने के हकदार हो सकते हैं जिसके लिए उन्हें अपने आलोचकों को जवाब भी देना होगा और खुद का बचाव भी करना होगा. लेकिन सरकार समाज के उन दो वर्गों के प्रति जो सरकार चुनने हेतु बुद्धिमान समझे जाते हैं, ऐसा पैतृक दृष्टिकोण नहीं रख सकती और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं कर सकती.

इस मामले में गांधी के विचारों की पुष्टि करके झारखंड की भाजपा सरकार ऐसा प्रर्दशन कर रही है कि उसे यकीन है कि वही बदहाली के शिकार आदिवासी और दलितों की संरक्षक है.

लेकिन पहले विज्ञापन को वर्तमान संदर्भ में समझते हैं. यह राज्य सरकार द्वारा धर्मांतरण को अपराध घोषित करने वाला बिल लागू करने के हालिया कदम के अंतर्गत आता है. और यह कदम खुद सरकार द्वारा छोटा नागपुर अधिग्रहण अधिनियम (सीएनटी) और संथाल परगना टेनेंसी अधिनियम (एसपीटी) के मूल सिद्धांतों में परिवर्तन करने पर उसके ख़िलाफ़ उपजे रोष का रुख मोड़ने वाली एक चाल के रूप में देखा जाना चाहिए. जमीन पर आदिवासियों के अधिकारों को कम करने वाले इस सरकारी कदम का झारखंडवासी विरोध कर रहे थे. जिसमें चर्च उनके साथ था. तब से ही वह सरकार और भाजपा के रडार पर आ गया था.

संघ के सहयोगी भी सरना और ईसाईयों के बीच ईर्ष्या पैदा करने में सक्रिय रहे हैं. सरना चाहते हैं कि उनका अलग धार्मिक कोड हो, लेकिन संघ विभिन्न गतिविधियों के जरिए उन्हें हिंदुओं में खींचने की कोशिश कर रहा है.

कुछ इसी तरह बिरसा मुंडा और कार्तिक उरांव के नामों का आवाह्न फिर से झारखंड के लोगों को भ्रमित करने के लिए किया जा रहा है. उन्हें राज्य सरकार द्वारा यकीन दिलाया जा रहा है कि उनका सपना ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों को रोकना था. यह मूल बात से काफी उलट है और देखना दिलचस्प होगा कि क्या झारखंड के मुख्यमंत्री कार्तिक उरांव का वह कथन भी छपवाएंगे जिसमें वे ‘आदिवासी हिंदू नहीं है’ किताब में खुद कहते हैं,

‘आदिवासी समुदाय में हिंदू देवी-देवताओं के लिए कोई जगह नहीं है. हिंदू भगवान में यकीन रखते हैं जबकि आदिवासी प्रकृति की पूजा करते हैं और नागा सभ्यता का पालन करते हैं. जबलपुर हाईकोर्ट ने भी कहा है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं. फिर भी हिंदू मिशनरी उन्हें ‘वनवासी हिंदू’ कहकर उनका अपमान करते हैं.’

जाहिर है कि भाजपा सरकार कभी नहीं चाहेगी कि लोग कार्तिक उरांव के इन शब्दों को पढ़ें. इसी तरह वे मौका दिया जाये तो गांधी के साथ भी काट-छांट करेंगे, जो ‘शुद्धि’ अभियान में शामिल हिंदुओं की आलोचना करते हैं. ‘शुद्धि’ अभियान, वर्तमान के ‘घर वापसी’ अभियान का पुराना अवतार है, जिसके प्रति झारखंड सरकार भी सहानुभूतिपूर्ण रही होगी.

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कार्तिक उरांव की क़िताब आदिवासी हिंदू नहीं हैं

वास्तव में गांधी ने क्या कहा?

अब बात गांधी के उस उद्धरण की, जिसका जिक्र ऊपर किया गया. यह अमरीका के एक ईसाई मत प्रचारक, प्रख्यात वायएमसीए सदस्य और अंतर्राष्ट्रीय मिशनरी काउंसिल के अध्यक्ष जॉन. आर मॉट को गांधी द्वारा दिए गये जवाब का विकृत या तोड़ा-मरोड़ा हुआ संस्करण है. महात्मा गांधी के निजी सचिव महादेव देसाई ने यह बातचीत दर्ज की थी और लिखा है कि जब त्रावणकोर की घोषणा जारी की जा रही थी, तब यह हुई थी. वह 12 नवंबर 1936 का दिन था (गांधी हेरिटेज पोर्टल, वॉल्यूम 64, पृष्ठ 33-41)

गांधी ने अमृत कौर को लिखा था कि उन्होंने 13 और 14 नवंबर 1936 के दिन मॉट को चार घंटे का समय दिया. यह वह समय था जब गांधी अपने छुआछूत विरोधी अभियान और हरिजनों को मंदिर में प्रवेश दिलाने के अभियान में व्यस्त थे. त्रावणकोर इस युद्ध का एक प्रमुख मंच था. आंबेडकर मुख्य किरदारों में से एक थे. तब ऐसे शब्द बाहर निकलकर आये कि आंबेडकर उन लोगों को 5 करोड़ लोगों की पेशकश करने के लिए तैयार थे, जो उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार थे. यह मुस्लिम, सिख और ईसाईयों के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न था और एक प्रतिस्पर्धा जन्मी. वे अछूतों को अपनी तरफ खींचने के लिए एक दूसरे से होड़ कर रहे थे. गांधी का मानना था कि अस्पृश्यता या छुआछूत हिंदू धर्म के लिए अभिन्न अंग नहीं थी, यह एक बुरी आदत थी. जिसने अपने शरीर में प्रवेश कर लिया था और खुद को बचाने के लिए इसे ठीक करना पड़ा.

अमरीकी ईसाई मत प्रचारक और गांधी, जो सैद्धांतिक रुप से धर्मांतरण के विचार के विरोधी हैं, दोनों के बीच हुआ वार्तालाप पढ़ना दिलचस्प है:

मॉट: ‘अस्पृश्यता का अंत करना आपके जीवन का उद्देश्य है. इस आंदोलन का महत्व भारत के सीमाओं से परे है, लेकिन फिर भी कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर वैचारिक भ्रम अधिक है. मैं अंतरराष्ट्रीय मिशनरी परिषद का अध्यक्ष हूं जिससे दुनिया की 300 मिशनरी सोसायटी जुड़ी हैं. मेरी टेबल पर इन सोसायटी की रिपोर्ट है और मैं कह सकता हूं कि उनका रुझान अछूतों में गहरा रहा है. मैं दिलचस्पी लूंगा अगर आप यह बताने में बेझिझक महसूस करें कि अगर कहीं मिशनरी गलत राह पर चले गये हैं, तो कहां? उनकी  इच्छा मदद करने की है, बाधा डालने की नही.’

गांधी : ‘मैं यह कहे बगैर नहीं रह सकता कि इस संबंध में मिशनरी की गतिविधियों ने मुझे आहत किया है. जैसे ही डॉ. आंबेडकर ने घोषणा की, वे मुसलमान और सिखों के साथ आगे आ गये. उन्होंने इसे हर तरह से जितना संभव था और जितनी संभावना थी, महत्व दिया और फिर इन संगठनों के बीच एक प्रतिद्वंदिता छिड़ गयी. मुस्लिम संगठन यह कर रहे हैं तो मैं समझ सकता हूं क्योंकि हिंदू और मुसलमानों के बीच आपसी मतभेद हैं. सिखों का हस्तक्षेप एक रहस्य है. लेकिन ईसाई मिशन एक विशुद्ध आध्यात्मिक उद्यम होने का दावा करते हैं. यह देखकर दुख हुआ कि ईसाई संस्थाएं भी अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए मुस्लिम और सिखों के साथ होड़ में शामिल हो गयीं. यह मुझे उनका घटिया प्रदर्शन और धर्म का उपहास बनाने जैसा लगा. उन्होंने डॉ. आंबेडकर के साथ गुप्त सम्मेलनों में भी भाग लिया. मुझे हरिजनों के लिए आपकी प्रार्थनाएं समझनी और सराहनी चाहिए थी, लेकिन बजाय इसके आपने उनसे एक अपील कर डाली, जिनके पास आपका कहा समझने के लिए न तो इतना दिमाग है और न समझ. उनके पास निश्चित तौर पर यीशु, मोहम्मद और नानक या किसी और के बीच भेद करने की समझ नहीं है.’

बातचीत जारी रहती है…

गांधी : त्रावणकोर में ईझावा मंदिर में प्रवेश चाहते हैं. लेकिन मुझसे आपके यह पूछने का कोई मतलब नहीं है कि क्या वे मंदिर प्रवेश चाहते हैं? भले ही वे यह नहीं चाहते हैं, मुझे तब भी देखना होगा कि क्या वे उन्हीं अधिकारों का आनंद उठा पा रहे हैं, जिनका कि मैं उठा रहा हूं? और इसलिए ही सुधारक मंदिर के दरवाजे खोलने के लिए हर प्रयास कर रहे हैं.

मॉट : लेकिन क्या हमें उनकी मदद नहीं करनी चाहिए?

गांधी : जरुर आप करें, लेकिन अपनी सेवाओं की कीमत धर्मांतरण को न बनाएं.

मॉट : मैं सहमत हूं कि हमें उनकी मदद करनी चाहिए चाहे वे ईसाई बनते हैं या नहीं. मसीह ने कभी कोई प्रलोभन की पेशकश नहीं की. उसने सेवाएं दीं और बलिदान दिया.

गांधी: अगर ईसाई इस सुधार आंदोलन से स्वयं को जोड़ना चाहते हैं तो उन्हें धर्मांतरण के किसी भी विचार के बिना ऐसा करना चाहिए.

मॉट : इस अनुचित प्रतिस्पर्धा को छोड़ दिया जाये, तो क्या उन्हें धर्म का प्रचार इसकी स्वीकार्यता के लिहाज से नहीं करना चाहिए?

गांधी : डॉ. मॉट, क्या आप ऐसा ही गाय के बारे में सोचते हैं? कुछ अछूत लोग गाय से भी कम समझ रखते हैं. मेरा मतलब है कि उनकी हिंदू, मुस्लिम और ईसाई धर्म के बीच अंतर करने की समझ एक गाय से भी अधिक नहीं है. आप सिर्फ अपने जीवन के जरिए ही प्रचार कर सकते हैं. एक गुलाब कभी नहीं कहता, ‘आओ मुझे सूंघो.’

मॉट : लेकिन यीशु ने कहा है, ‘उपदेश दो और सिखाओ.’ और यह भी समझना होगा कि विश्वास सुनने से ही आता है और ईश्वर के वचन सुनने से आता है. एक समय था जब मैं भी ईश्वर में यकीन नहीं रखता था. फिर एक प्रसिद्ध क्रिकेटर कैम्ब्रिज के जे. ई. के. स्टड मेरे विश्वविघालय ईसाई मत प्रचार अभियान पर आये और मेरे लिए नये द्वार खोले. केवल उनका जीवन और दिए शानदार उदाहरण मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाये और मेरी जिज्ञासा शांत नहीं कर पाये, लेकिन मैंने उन्हें सुना और बदल गया. पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात कि हमें जीवन जीना चाहिए. लेकिन फिर बुद्धि और विवेक से अनिवार्य सत्य की खोज करते हुए हमें विभिन्न प्रक्रियाओं, असर और व्यवहार पर प्रकाश डालना चाहिए और बौद्धिक कठिनाईयों को दूर करना चाहिए ताकि यह हमें उस स्वतंत्रता का अनुभव करा सके, जो वास्तव में स्वतंत्रता है. क्या आप नहीं चाहते कि ईसाई कल की अवधारणा ही वापस ले लें?

गांधी : नहीं. लेकिन में आपको अपने काम के रास्ते में नहीं आने देना चाहता हूं, अगर आप मदद नहीं कर सकते हैं.

मॉट : पूरा ईसाई धर्म हमारे जीवन को दूसरों से साझा करने का धर्म है, और हम अपने जीवन को बिना शब्दों में कहे कैसे साझा कर सकते हैं?

गांधी : फिर त्रावणकोर में जो वे कर रहे हैं, सही है? आप क्या कह रहे हैं और वे क्या कर रहे हैं! इसमें थोड़ी भिन्नता हो सकती है, लेकिन स्वभाव में फर्क नहीं होता है. अगर आपको इसे हरिजनों के साथ साझा करना है, तो आप इसे ठक्कर बापा और महादेव के साथ साझा क्यों नहीं करते हैं? क्यों आप अछूतों के पास जाते हैं और इस उथल-पुथल का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं? इसके बजाय हमारे पास क्यों नहीं आते?

यह वह आखिरी हिस्सा है जिसे इस लंबी बातचीत से उठाकर तोड़ा-मरोड़ा गया है. शुरुआत से ही गांधी ने पूरी बातचीत में मूल रुप से किसी भी धर्म द्वारा लोगों को अपने धर्म में शामिल करने के उद्देश्य से की जाने वाली सेवा का विरोध किया. उन्हें लगता है कि प्रलोभन देकर अपनी संख्या में इजाफा करना ठीक नहीं.

गांधी से इस पर बहस होनी चाहिए कि जब वे ‘हरिजन’ को गाय की तरह अबोध ठहराते हैं जिनके पास फैसला करने की शक्ति नहीं है. यहां वे अपने ही उस सिद्धांत के ख़िलाफ़ चले जाते हैं जिसके आधार पर उन्होंने राजनीतिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में अशिक्षितों को शामिल करने की मांग की थी.

कोई भी देख सकता है कि ‘आदिवासियों’ या ‘वनवासी’ का कोई उल्लेख कहीं नहीं है, जिससे भाजपा उन्हें चर्चा में कहीं ले आती. इसलिए यह झारखंड सरकार की धोखेबाजी और अपराध है जो गांधी के मुंह में ये शब्द डाल दिये गये.

गांधी जो खुद यीशु और मोहम्मद में श्रद्धा रखते हैं, पाते हैं कि वे घृणा पैदा करके लोगों को खुद से जोड़ रहे हैं. लेकिन अगर लोग उनके पास खुद से आते हैं तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं. यह फिर मिशनरी के विवेक पर निर्भर करेगा कि वे उन्हें अपनाना चाहते हैं या नहीं.

सभी धर्मों का अपना एक सच है और उनमें से हर एक अपूर्ण है. गांधी बहुत स्पष्ट हैं कि उनके निजी विचार को देश का क़ानून नहीं बनाया जा सकता है. ऐसे भी लोग हैं जो शब्दों से अपना जीवन साझा करने में विश्वास करते हैं और उनके भी समान अधिकार हैं. जो वे सोचते हैं वही सही है, उन्हें अपनी इस सोच का प्रचार करने से वंचित नहीं किया जा सकता है, जब तक कि वे दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाते.

संविधान सभा की बहस

यह एक संवैधानिक स्थिति भी है. यह देखना दिलचस्प होगा कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस विवादास्पद मुद्दे को कैसे निपटाया? कृष्णदास राजगोपाल बहस याद करते हुए लिखते हैं, ‘6 दिसंबर 1948 की सुबह को संविधान कक्ष में संविधान सभा ने “प्रचार/प्रसार करने का अधिकार” को मौलिक अधिकार के रुप में शामिल करने पर बहस की.

यहां, लोकनाथ मिश्रा ने विधानसभा को चेतावनी दी कि ‘धर्म की आवाज़ एक खतरनाक पुकार होती है. यह भड़काती है, विभाजन करती है और लोगों को युद्ध की तरफ धकेलती है.

उन्होंने कहा, ‘आज भारत में धर्म अज्ञानता, गरीबी और कट्टरता को बढ़ावा देने से अधिक कोई अन्य प्रयोजन सिद्ध नहीं करता. इसका उद्देश्य राजनीतिक है. क्योंकि आधुनिक दुनिया में सब पावर-पॉलीटिक्स है और भीतर का व्यक्ति धूल में खो गया है.’

मिश्रा ने विधानसभा को सलाह दी कि सभी को, जिस रुप में भी वे बेहतर समझें, अपना धर्म मानने और उस पर अमल करने का अधिकार होना चाहिए. लेकिन उसे ऐसी कोशिश न करने दें कि वह अपनी संख्या में बढ़ोत्तरी करके राजनीतिक लड़ाई में फायदा मांग सके.

लेकिन पंडित लक्ष्मीकांता मैत्रा ने असहमति जताई. उन्होंने कहा ‘प्रसार का मतलब जरुरी नहीं है कि हथियारों के बल पर, तलवार के द्वारा या जबरदस्ती बलपूर्वक धर्मांतरण कराना हो.’ उन्होंने तर्क दिया कि विभिन्न मजहबों की इस जमीन पर प्रसार का मौलिक अधिकार संभवत: अन्य धर्मों के बारे में लोगों के दिमाग में जगह बनाकर बैठी गलत धारणाओं को खत्म करेगा.

एच.वी.कामथ ने फिर ‘धर्म’ शब्द के ‘वास्तविक अर्थ’ की बात उठाई. उन्होंने इशारा किया कि कैसे धर्म की व्याख्या धर्म और आत्मा के सच्चे मूल्यों को व्यापक अर्थों में समझाने की जानी चाहिए. उन्होंने इंगित किया कि कैसे इस युवा राष्ट्र ने युद्ध की विभीषिका में जलते विश्व की पृष्ठभूमि के बीच अपना संविधान तैयार किया.

कामथ ने कहा, यहां तक कि किसी भी विशेष धर्म को राज्य संरक्षण नहीं मिलना चाहिए, ‘हमें इस बारे में बहुत सावधानी बरतनी है कि इस देश की धरती पर हम किसी को भी न सिर्फ उसका धर्म मानने और उसका पालन करने बल्कि उसका प्रसार करने के अधिकार से भी वंचित नहीं करते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘हमारा यह गौरवशाली देश कुछ भी नहीं है अगर वह उच्च धार्मिक और आध्यात्मिक अवधारणाओं और आदर्शों के लिए खड़ा नहीं होता है. भारत विश्व में कोई भी सम्मानजनक स्थान नहीं पा सकता, अगर वह उस आध्यात्मिक ऊंचाई तक नहीं पहुंचता,  जिसे उसने अपने गौरवशाली इतिहास में हासिल किया था.’

यह बहस का नतीजा संविधान के अनुच्छेद 25 (1) के निर्माण के रुप में निकला. जो कहता है कि केवल भारतीय ही नहीं, ‘सभी लोग’ समान रुप से स्वतंत्र होकर अपने विवेक की आजादी और धर्म को मानने, उसका पालन करने और प्रचार करने के अधिकारी हैं.

यह स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं ने गांधी की महानता को अपना दृष्टिकोण प्रभावित करने की अनुमति नहीं दी. गांधी अगर जिंदा होते तो वे भी इसका दबाव नहीं डालते. वे गोभक्त थे लेकिन इस पर भी दृढ़ थे कि राज्य में गो हत्या के ख़िलाफ़ कोई क़ानून नहीं हो सकता. वे कभी नहीं चाहते थे कि सरकार को उनकी निजी आस्था या विश्वास के चलते विवश किया जाये. इसके पीछे उनका वह खरा विश्वास था कि वे खुद अपूर्ण थे और सब-कुछ नहीं जानते थे. उन्होंने हमेशा खुद को दूसरों से सीखने-समझने के लिए स्वतंत्र रखा. वे स्वयं को समझौता करने वाला आदमी बताया करते थे.

इसलिए यह घृणित है कि गांधी जैसे व्यक्ति का उन लोगों द्वारा गलत उपयोग किया जा रहा है जिनका मजहब प्रेम नहीं, नफरत है. चुनावी राजनीति के अंकगणित ने झारखंड में सत्ता की कुर्सी पर कब्जा जमाये रखने के लिए ऐसा संभव बना दिया है. लेकिन अभी वे इतने शक्तिशाली नहीं हुए कि उन्हें भारत के राष्ट्रीय स्वरूप की बुनियाद से छेड़छाड़ करने दी जाये.

संवैधानिक दृष्टिकोण को जिंदा रखने के लिए हमें सभी उपलब्ध संसाधनों की आवश्यकता होगी. यह हमेशा चलने वाली निगरानी है जिसमें कुछ भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए. झारखंड सरकार को इस घिनौने, अपमानजनक और अवैध विज्ञापन के प्रकाशन के लिए ज़िम्मेदार बनाना हम सभी की ज़िम्मेदारी है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)

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