भूख हड़ताल पर बैठना आत्महत्या की धारा के तहत अपराध नहीं: मद्रास हाईकोर्ट

मद्रास हाईकोर्ट ने साल 2013 में भूख हड़ताल में भाग लेने वाले शख़्स के ख़िलाफ़ आपराधिक कार्यवाही रद्द करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने भूख हड़ताल पर बैठकर केवल विरोध किया है जो आईपीसी की धारा 309 के तहत अपराध नहीं बनता है. आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्महत्या का प्रयास अपराध है.

/
मद्रास हाईकोर्ट. (फोटो साभार: फेसबुक/@Chennaiungalkaiyil)

मद्रास हाईकोर्ट ने साल 2013 में भूख हड़ताल में भाग लेने वाले शख़्स के ख़िलाफ़ आपराधिक कार्यवाही रद्द करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता ने भूख हड़ताल पर बैठकर केवल विरोध किया है जो आईपीसी की धारा 309 के तहत अपराध नहीं बनता है. आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्महत्या का प्रयास अपराध है.

मद्रास हाईकोर्ट. (फोटो साभार: फेसबुक/@Chennaiungalkaiyil)
मद्रास हाईकोर्ट. (फोटो साभार: फेसबुक/@Chennaiungalkaiyil)

चेन्नई: मद्रास हाईकोर्ट ने 15 फरवरी को फैसला सुनाया कि भूख हड़ताल पर बैठना आईपीसी की धारा 309 के तहत अपराध नहीं बन सकता है और यह आत्महत्या करने का प्रयास नहीं होगा.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस एन. आनंद वेंकटेश की एकल पीठ ने पी. चंद्रकुमार के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया, जिन्होंने 2013 में भूख हड़ताल में भाग लिया था.

जस्टिस वेंकटेश ने कहा, ‘तथ्य यह है कि याचिकाकर्ता ने भूख हड़ताल पर बैठकर केवल विरोध किया है जो आईपीसी की धारा 309 के तहत अपराध नहीं बनता है. अगर रिकॉर्ड पर उपलब्ध दस्तावेजों पर भी गौर किया जाए तब पर भी यह धारा 309 आईपीसी के तहत अपराध नहीं बनता है.’

याचिकाकर्ता की ओर से पेश होने वाले वकील पी. पुगेलेंधी ने अदालत के संज्ञान में लाया कि चंद्रकुमार को 2013 में पूनमल्ली में एक विशेष कैंप में हिरासत में लिया गया था. वह 15 अगस्त से 24 अगस्त 2013 तक 10 दिनों के लिए भूख हड़ताल पर बैठे और बाद में उनकी स्वास्थ्य स्थिति खराब हो गई थी.

कैंप में मौजूद एक पुलिसकर्मी की शिकायत के आधार पर याचिकाकर्ता के खिलाफ दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 309 के तहत एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी.

2016 में चार्जशीट दायर की गई थी और उसके बाद ट्रायल कोर्ट ने मामले का संज्ञान लिया. याचिकाकर्ता के वकील ने दो आधार पर केस को रद्द करने की मांग की.

वकील ने कहा कि भले ही आरोप लगे हों, लेकिन आईपीसी की धारा 309 के तहत कोई अपराध नहीं किया गया है. दूसरा आधार जो उठाया गया था, वह यह था कि ट्रायल कोर्ट को 2016 की सीआरपीसी की धारा 468 के मद्देनजर 2016 की एफआईआर पर संज्ञान लेने से रोक दिया गया था.

वकील ने तर्क दिया कि आईपीसी की धारा 309 के मामले में मजिस्ट्रेट को एक वर्ष के भीतर संज्ञान लेना चाहिए था लेकिन अंतिम रिपोर्ट का संज्ञान लेने में तीन साल का समय लगा, जिसमें साधारण कारावास की सजा होती है जो एक वर्ष की अधिकतम अवधि तक बढ़ सकती है.

बता दें कि आईपीसी की धारा 309 के अनुसार, जो भी कोई आत्महत्या करने का प्रयत्न करेगा और उस अपराध के करने के लिए कोई कार्य करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिए साधारण कारावास से जिसे एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है या आर्थिक दंड या दोनों से दंडित किया जाएगा.

जज ने आदेश में कहा, ‘अपराध के लिए अधिकतम एक साल की सजा निश्चित होने के कारण निचली अदालत को एक साल की समयावधि में संज्ञान लेना चाहिए था.’

हालांकि, निचली अदालत बिना कोई कारण बताए करीब तीन साल बाद संज्ञान लिया. इसलिए निचली अदालत द्वारा अंतिम रिपोर्ट का संज्ञान लेना कानून द्वारा वर्जित है और स्थायी है.