अपर्याप्त सबूतों के कारण प्रतिदिन बाल यौन उत्पीड़न के चार पीड़ित न्याय से वंचित: अध्ययन

कैलाश सत्‍यार्थी चिल्‍ड्रेन्‍स फाउंडेशन द्वारा के अध्ययन के अनुसार हर साल बाल यौन उत्पीड़न के क़रीब तीन हज़ार मामले सुनवाई के लिए अदालत नहीं पहुंच पाते क्योंकि पुलिस पर्याप्‍त सबूत न होने के कारण आरोपपत्र दायर करने से पहले ही जांच बंद कर देती है. इसमें 99 फीसदी मामले बच्चियों के यौन शोषण के ही होते हैं.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

कैलाश सत्‍यार्थी चिल्‍ड्रेन्‍स फाउंडेशन द्वारा के अध्ययन के अनुसार हर साल बाल यौन उत्पीड़न के क़रीब तीन हज़ार मामले सुनवाई के लिए अदालत नहीं पहुंच पाते क्योंकि पुलिस पर्याप्‍त सबूत न होने के कारण आरोपपत्र दायर करने से पहले ही जांच बंद कर देती है. इसमें 99 फीसदी मामले बच्चियों के यौन शोषण के ही होते हैं.

(फाइल फोटो: रॉयटर्स)
(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर कैलाश सत्‍यार्थी चिल्‍ड्रेन्‍स फाउंडेशन (केएससीएफ) ने एक चौंकाने वाला खुलासा किया है.

फाउंडेशन द्वारा जारी एक अध्ययन रिपोर्ट बताती हैं कि हर साल बच्चों के यौन शोषण के तकरीबन तीन हजार मामले निष्पक्ष सुनवाई के लिए अदालत तक पहुंच ही नहीं पाते, क्योंकि पुलिस पर्याप्‍त सबूत और सुराग नहीं मिलने के कारण इन मामलों की जांच को अदालत में आरोपपत्र दायर करने से पहले ही बंद कर देती है. इसमें 99 फीसदी मामले बच्चियों के यौन शोषण के ही होते हैं.

‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ के मौके पर जारी इस अध्ययन के निष्कर्ष में कहा गया है, ‘ऐसा पाया गया है कि 2017 से 2019 के बीच उन मामलों की संख्या बढ़ी है जिन्हें पुलिस ने आरोप पत्र दायर किए बिना जांच के बाद बंद कर दिया.’

आंकड़ों के अनुसार, देश में पिछले कुछ साल में यौन अपराध के मामले बढ़े हैं.

अध्ययन में कहा गया है, ‘हालांकि सरकार विशेष कानून की आवश्यकता को समझती है और उसने बच्चों के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए एक विशेष कानून बाल यौन उत्पीड़न रोकथाम कानून, 2012 (पॉक्सो) लागू किया, लेकिन हकीकत में इसका खराब क्रियान्वयन निराशाजनक है.’

इसमें कहा गया कि पॉक्सो के हर साल कम से कम 3,000 ऐसे मामले निष्पक्ष सुनवाई के लिए अदालत ही नहीं पहुंच सके, जिन्हें दर्ज किया गया था और जिनकी जांच की गई थी.

देश में बाल यौन उत्पीड़न के रोजाना चार पीड़ित न्याय से इसलिए वंचित हुए क्योंकि सबूतों के अभाव में पुलिस ने उनके मामलों को बंद कर दिया.

अध्ययन में कहा गया है, ‘एनसीआरबी आंकड़ों से यह खुलासा हुआ कि पुलिस ने बिना आरोप पत्र दायर किए जो पॉक्सो मामले बंद किए हैं या जिनका निपटारा किया है, उनमें से बड़ी संख्या में मामलों को बंद करने का कारण दिया गया है कि मामले सही हैं, लेकिन अपर्याप्त सबूत हैं’.

इसमें बताया कि अदालत में दायर अंतिम रिपोर्टों के अनुसार पुलिस ने 2019 में 43 प्रतिशत मामले इसी आधार पर बंद किए. यह संख्या 2017 और 2018 में इस आधर पर बंद किए गए मामलों से अधिक है.

अध्ययन में बताया किया कि इसके अलावा पॉक्सो मामलों को बंद करने के लिए दूसरे नंबर पर जो कारण सबसे अधिक बार दिया गया, वह है – झूठी शिकायत, लेकिन इस आधार पर बंद किए गए मामलों की संख्या में कमी आई है.

वर्ष 2017 में इस आधार पर 40 प्रतिशत और 2019 में 33 प्रतिशत मामले बंद किए गए थे.

केएससीएफ ने इसी अवधि के लिए पॉक्सो मामलों के एक अन्य विश्लेषण में कहा कि अदालतों को न्याय देने की प्रक्रिया में तेजी लाने की आवश्यकता है, क्योंकि बाल यौन उत्पीड़न के 89 प्रतिशत मामलों के पीड़ित 2019 के अंत तक न्याय का इंतजार कर रहे थे.

अध्ययन के मुताबिक, पॉक्सो के तहत 51 प्रतिशत मामले मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में दर्ज किए गए.

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक अध्ययन में कहा है, ‘इन राज्यों में सामाजिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है ताकि बच्चों को उनके घरों और समाज में बेहतर सुरक्षा मिल सके.’

इसमें कहा गया है कि इन राज्यों में पॉक्सो मामलों में सजा की दर 30 से 64 प्रतिशत के बीच है, जिसे अदालतों में मामलों की बेहतर प्रस्तुति के माध्यम से सुधारने की आवश्यकता है क्योंकि अपराध का प्रभावी तौर पर पता लगाना और सजा ही इसकी रोकथाम के उपाय हैं.

अध्ययन किया गया है कि एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ऐसे मामलों के पीड़ित गरीब और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के होते हैं. इसलिए मुकदमे के दौरान शत्रुतापूर्ण व्यवहार से पीछे हटने संभावनाएं अधिक होती हैं क्योंकि ऐसे पीड़ित जबरदस्ती और प्रलोभन दोनों के अधीन होते हैं.

ऐसा विशेष रूप से उन मामलों में होता है जहां आरोपी या तो परिवार का सदस्य है या अमीर और ताकतवर है.

इसमें कहा है कि, ‘फिलहाल बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित मामलों की जांच के लिए प्रत्येक जिले/पुलिस आयुक्त में एक समर्पित इकाई की आवश्यकता है.’

अध्ययन में सिफारिश की गई है कि इस इकाई में तैनात पुलिस अधिकारियों को विशेष रूप से प्रशिक्षित और संवेदनशील होना चाहिए. साथ ही महिलाओं और बाल पीड़ितों द्वारा सामना करने वाले आघात से निपटने के लिए सही मनोवैज्ञानिक मन होना चाहिए.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)