पाकिस्तान में बांग्लादेश की आज़ादी के ज़िक्र पर बंदिश

हाल ही में पाकिस्तान की लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज में बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग होने की पचासवीं वर्षगांठ पर होने वाले एक पांचदिवसीय सम्मलेन को रद्द कर दिया गया. इस बारे में पाकिस्तान के पत्रकार वुसतुल्लाह ख़ान का नज़रिया.

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एलयूएमएस में होने वाले सम्मलेन का पोस्टर. (साभार: ट्विटर/@AU_Qasmi)

हाल ही में पाकिस्तान की लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज में बांग्लादेश के पाकिस्तान से अलग होने की पचासवीं वर्षगांठ पर होने वाले एक पांचदिवसीय सम्मलेन को रद्द कर दिया गया. इस बारे में पाकिस्तान के पत्रकार वुसतुल्लाह ख़ान का नज़रिया.

एलयूएमएस में होने वाले सम्मलेन का पोस्टर. (साभार: ट्विटर/@AU_Qasmi)
एलयूएमएस में होने वाले सम्मलेन का पोस्टर. (साभार: ट्विटर/@AU_Qasmi)

लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ मैनेजमेंट साइंसेज (एलयूएमएस) में बांग्लादेश (पूर्व पूर्वी पाकिस्तान) की स्थापना (अलग होने) की पचासवीं सालगिरह पर प्रस्तावित पांच दिवसीय सम्मेलन के रद्द होने पर मैं तमाम देशभक्त पाकिस्तानियों को बधाई देता हूं.

इस सम्मेलन के पक्ष में ये तर्क बहुत ही कमज़ोर है कि कम से कम पचास साल बाद तो किसी घटना की बहुआयामी बौद्धिक समीक्षा की आज़ादी होनी चाहिए. ये लालबुझक्कड़ शायद नहीं जानते कि अगर एक बार इजाज़त दे दी गई तो सांपों का पिटारा खुल जाएगा.

कल को यही मुट्ठी भर देशद्रोही बुद्धिजीवी मांग करेंगे कि पूर्वी पाकिस्तान के अलग होने के कारणों और ज़िम्मेदारों के निर्धारण के लिए सरकार द्वारा स्थापित हमुदुर्रहमान आयोग की आधी सदी पुरानी रिपोर्ट न केवल औपचारिक रूप से प्रकाशित की जाए बल्कि उसकी सिफ़ारिशों पर भी चर्चा करने की इजाज़त दी जाए.

फिर हो सकता है कि किसी तरफ़ से आवाज़ उठे कि हमें शैक्षणिक संस्थानों में 1965 की जंग के कारणों और पात्रों और फिर कारगिल युद्ध के कारणों और पात्रों पर भी खुलकर विश्लेषणात्मक विमर्श और वैज्ञानिक शोध की अनुमति दी जाए.

उसके बाद कोई श्रीमान या श्रीमती बौद्धिक स्वतंत्रता के नाम पर ये नारा भी लगा सकते हैं कि हम हिंदू-ब्रिटिश षड्यंत्र और साज़िशों के साथ-साथ 1,200 साल पुरानी सिंध विजय मुहिम, हज़ार साल पुराने महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों और 300 साल पुराने अहमद शाह अबदाली के हमले समेत तमाम ऐतिहासिक घटनाओं को आख़िर क्यों तीसरी आंख और ताज़ा दृष्टिकोण के साथ आधुनिक ऐतिहासिक पैमानों की आलोचनात्मक कसौटी पर नहीं परख सकते.

तब तो पाकिस्तान भी नहीं था (हालांकि  पाकिस्तान तो उस समय ही अस्तित्व में आ गया था जब भारतीय उपमहाद्वीप में पहला मुसलमान आया या पैदा हुआ था.)

और फिर कोई उन्मादी ये झंडा उठा सकता है कि हम अपने मिसाइलों के नाम ग़ज़नवी, अबदाली, बाबर आदि क्यों रखते हैं. होशो शैदी मिसाइल, दुला भट्टी मिसाइल और इक़बाल मिसाइल क्यों नहीं रख सकते.

ये मानने में आख़िर क्या बुराई है कि बांग्लादेशियों ने 16 दिसंबर के बजाय 25 मार्च की तारीख़ को जानबूझकर अपना स्वतंत्रता दिवस घोषित किया हालांकि उस दिन पूर्वी पाकिस्तान में मुट्ठी भर असामाजिक तत्वों की करतूतों को नंगा करने की नीयत से ऑपरेशन सर्चलाइट शुरू किया गया था.

ऑपरेशन सर्चलाइट का उद्देश्य ये था कि इसकी चकाचौंध में भोले बंगाली आस्तीन के सांपों को पहचान सकें. हमसे अगर कोई ग़लती हुई तो बस इतनी कि सच्चाई दिखाने के जोश में सर्चलाइट कुछ ज़्यादा ही खुल गई जिसकी वजह से बंगालियों की आंखें चौंधिया गईं और उन्हें वक़्ती तौर पर अपने-पराये की तमीज़ न रही. इसका फ़ायदा हिंदुस्तान ने उठा लिया.

जो भी हुआ उसके ज़िम्मेदार बस तीन लोग हैं. इंदिरा, मुजीब और भुट्टो, भगवान भला करे. तो क्या हमारी पाठ्यपुस्तकों में कुछ ग़लत लिखा है.

एलयूएमएस के सेमिनारबाज़ों को ये क्यों नज़र नहीं आता कि ख़ुद बांग्लादेशी नेतृत्व भी 50 साल से दुर्भावना से पीड़ित है. उन्होंने अपनी आज़ादी (अलगाव) की स्वर्ण जयंती में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों और सरकारों और चुनिंदा विश्व नेताओं को ढाका आमंत्रित किया है मगर इस्लामाबाद को अब तक (ये लिखे जाने तक) निमंत्रण नहीं मिला है.

इसीलिए पाकिस्तान सरकार का भी कोई कर्तव्य नहीं बनता कि वो बांग्लादेश को औपचारिक बधाई संदेश भेजे.

ऐसा नहीं कि हमारे यहां अकादमिक आज़ादी नहीं मगर आज़ादी और बेलगामी और अभद्रता और बेशर्मी के बीच अंतर करना चाहिए.

उदाहरण के तौर पर, अगर आप राज्य द्वारा निर्धारित नियमों और शर्तों का पालन करते हुए कश्मीर पर भारतीय वर्चस्व, अफ़गानिस्तान की एहसान-फ़रामोशियों, चीन में अल्पसंख्यकों से अच्छा व्यवहार, यमन के जनजातीय इतिहास, पूर्व फ़ाटा का पिछड़ापन, 74 साल में बलूचिस्तान की मिसाली तरक्क़ी, पूर्व पूर्वी पाकिस्तान के लिए पश्चिमी पाकिस्तान का बलिदान, सैन्य और गैर-सैन्य कुलीन वर्ग की सुनहरी राष्ट्रीय सेवाएं, न्यायपालिका के साहसिक फैसले, मार्शल लॉ के युग में देश की स्थिरता, मुस्लिम शासकों की जागृत सोच से प्रेरित नीतियां, परमाणु कार्यक्रम की शानदार सफलता, अतिवाद की रोकथाम में मज़हबी रहनुमाओं की ऐतिहासिक भूमिका आदि समेत ऐसे दर्जनों विषयों पर वैज्ञानिक शोध या फिर आलोचनात्मक समीक्षा करना चाहते हैं. तो किसने हाथ पकड़ा है?

मगर आपको तो जान-बूझकर उन्हीं विषयों की तलाश रहती है जिनके पर्दे में आप राष्ट्रीय नैरेटिव को चुनौती देकर राज्य की एकता को कमजोर कर सकें. फिर आप शिकवा करते हैं अगर आपको ‘फिफ्थ जनरेशन वॉर के मुहरे’ कहा जाए.

(लेखक पाकिस्तान के पत्रकार हैं.)

(बीबीसी पर प्रकाशित मूल उर्दू लेख से फ़ैयाज़ अहमद वजीह द्वारा अनूदित)

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