पत्थर के सनम जिन्हें हमने ख़ुदा जाना

आज हमें जो क्षोभ हो रहा है, उसका कारण सरकार से की गई अपेक्षाएं हैं, जिन पर खरी उतरने में वो पूरी तरह नाकाम रही. ऐसा दस साल पहले भी होता तो हम इतने ही त्रस्त होते, पर मुद्दा ये है कि जिन्हें हमने ख़ुदा समझा, वे परीक्षा की घड़ी आई, तो मिट्टी के माधो साबित हुए. बेशक दूसरे भी नालायक ही थे, पर कोई उन्हें ‘तारणहार’ कहता भी नहीं था!

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(फोटो: रॉयटर्स)

आज हमें जो क्षोभ हो रहा है, उसका कारण सरकार से की गई अपेक्षाएं हैं, जिन पर खरी उतरने में वो पूरी तरह नाकाम रही. ऐसा दस साल पहले भी होता तो हम इतने ही त्रस्त होते, पर मुद्दा ये है कि जिन्हें हमने ख़ुदा समझा, वे परीक्षा की घड़ी आई, तो मिट्टी के माधो साबित हुए. बेशक दूसरे भी नालायक ही थे, पर कोई उन्हें ‘तारणहार’ कहता भी नहीं था!

(फोटो: रॉयटर्स)
(फोटो: रॉयटर्स)

कोरोना महामारी के कारण देशवासियों की जो भयानक दुर्गति हो रही है, उस पर कुछ लिखने की आवश्यकता नहीं है. हममें से अनेक लोग स्वयं भुक्तभोगी होंगे और जो सौभाग्य से नहीं हैं, वे समाचार माध्यमों के द्वारा इस आपदा से भली भांति परिचित होंगे.

मेरा मानना है कि इस वर्ष जब हालात थोड़ा सुधरे थे उस समय जनता की तरफ से लापरवाहियां भले हुई हों, सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से बचकर भाग नहीं सकती.

अगर लोगों को दवा, ऑक्सीजन, अस्पताल में बेड आदि नहीं मिल रहे हैं तो उसके लिए सरकार के अलावा कौन ज़िम्मेदार हो सकता है?

अब इस मुद्दे को थोड़ा दूसरी तरह से देखिए. मान लीजिए यही महामारी आज से दस साल पहले आई होती. तो क्या तब हमारे हालात आज से बेहतर होते? हमें ऐसा मानने का कोई कारण नहीं दिखता.

देश में प्रति व्यक्ति जितनी स्वास्थ्य सेवाएं पहले उपलब्ध थीं, बढ़ती आबादी के हिसाब से अभी भी कमोबेश उतनी ही उपलब्ध हैं. विगत कुछ वर्षों में हालत न तो विशेष खराब हुई है, न ही उसमें कोई चमत्कारी सुधार आया है. तो अब हाय-तौबा क्यों मची है?

सच ये है कि हमें आज जो धक्का पहुंचा है, जो क्षोभ हो रहा है, जो विकट असहायता महसूस हो रही है उसका कारण यह है कि सरकार से हमने जो अपेक्षाएं की थीं, सरकार उन पर खरी उतरने में पूरी तरह नाकामयाब रही.

आज जो हम दवा, ऑक्सीजन, अस्पताल में बेड के लिए विलाप कर रहे हैं, तनिक विचार कर देखें, क्या हमने सरकार से पिछले कुछ वर्षों में एक बार भी किसी भी मंच से ये मांग की थी कि और ज़्यादा संख्या में अस्पताल बनवाये जाएं या देश में दवाओं और ऑक्सीजन आदि का उत्पादन ज्यादा से ज्यादा हो?

तो अब हम किस मुंह से मांग रहे हैं या अपेक्षा भी कर रहे हैं? आज हम यह नहीं कह सकते कि ‘हमने तो जब कलियां मांगी, कांटों का हार मिला.’ नहीं बंधुओं, हमने कभी कलियां मांगी ही नहीं. हमारी प्राथमिकताएं आरंभ से ही खिसकी हुई रही हैं.

हमने कभी सरकार से अपेक्षा ही नहीं की कि पहले देश के बेसिक पुख्ता करें. विद्यार्थियों की भाषा में बोलें तो हमने देश के फंडामेंटल्स कमज़ोर ही रह जाने दिए. हमें सब्ज़बाग़ दिखाए गए, और तड़क-भड़क वाले तथाकथित ‘विकास के टुकड़े’ दिखाकर वाहवाही लूट ली गई.

2020 के राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान स्वयंसेवियों से खाना लेने के लिए आए लोगों के बर्तनों की कतार. (फोटो: पीटीआई)
2020 के राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान स्वयंसेवियों से खाना लेने के लिए आए लोगों के बर्तनों की कतार. (फोटो: पीटीआई)

ईमानदारी से आत्ममंथन करिए. मंदिर के शिलान्यास को पूरे देश में यूं प्रस्तुत किया गया था कि अब तो भगवान राम आकर स्वयं हमारे यहां विराज लिए, अब किसी को कोई दुख कैसे हो सकता है?

उस समय करोड़ों लोगों ने सोशल मीडिया पर अपनी प्रसन्नता यूं व्यक्त की थी मानो अब धरती पर कुछ और होना शेष ही नहीं रह गया है. हम एक बड़ी भारी प्रतिमा खड़ी करके भी ऐसे ही गदगद हुए थे. अब हम दो और विशाल प्रतिमाएं खड़ी करने में संलग्न हैं. उनसे किसी के अहम् को छोड़कर और क्या लाभ होता है, किसी को पता नहीं.

करोड़ों लोग इस बात से भी प्रसन्न हैं कि व्यक्ति विशेष ने पाकिस्तान को ‘ठीक कर दिया है.’ अब क्या ठीक किया है, कैसे ठीक किया है, किसी को पता नहीं.

संयुक्त अरब अमीरात ने मध्यस्थता करके सीमा पर अस्थायी युद्ध विराम करवा दिया. उसे यूं प्रस्तुत किया गया मानो थरथर कांपते पाकिस्तान ने हमसे गिड़-गिड़ाकर युद्ध विराम की याचना की हो.

जब चीन ने हमारी सीमा में घुसपैठ कर ली और हमारे सैनिकों को भी मार डाला, तो भी लोग मानने को तैयार न हुए कि सरकार विफल रही है. क्योंकि हमारी कल्पना में इतिहास का सबसे लोकप्रिय, सबसे शक्तिशाली व्यक्ति दुनिया हिला दे, चीन-पाकिस्तान की क्या बिसात है.

इसलिए जब दुनिया कोरोना से लड़ने में व्यस्त थी, हम चुनाव लड़ने में व्यस्त रहे और उनके चुनावी पैंतरों का आनंद लेते रहे.

हम लोग पिछले कुछ वर्षों से यथार्थ पर नहीं, जांचे-परखे, प्रमाणित सच नहीं बल्कि परोसे हुए झूठ की खुराक पर जीवित रहे हैं. सरकार की किसी भी बात पर शंका करने वाले को देशद्रोही करार देते आए हैं.

अब आप ये भी जानते हैं कि पिछले कुछ सालों से जन धारणा में सरकार एक व्यक्ति विशेष का पर्याय बनकर रह गई है. सरकार जो कुछ भी करती है, सरकार की जो छोटी से छोटी उपलब्धि भी होती है, उसका पूरा-पूरा श्रेय व्यक्ति विशेष को ही दिया जाता है.

बहुत से लोग तो प्रमुख मंत्रियों और उनके विभागों के नाम भी नहीं बता पाएंगे क्योंकि वे इतने महत्वहीन हो गए हैं. चाहे विद्यार्थियों को परीक्षा के तनाव से मुक्त करने की बात हो या हवाई हमला कैसे किया जाए, इन सब पर ज्ञान एक व्यक्ति विशेष ही देता है.

इसलिए असल समस्या हमारी अपेक्षाओं की है. हम ये मान बैठे थे कि देश का नेतृत्व अब ऐसे महापुरुष के हाथों में आ गया है, जो सिर्फ चमत्कार ही करते हैं.

हमने मान लिया है कि न तो हमारी विशाल सरकारी व्यवस्था महत्वपूर्ण है, न ही कोई अन्य व्यक्ति. जो हैं सो व्यक्ति विशेष हैं. हमने मान लिया कि व्यक्ति विशेष को कोई भी कार्य परंपरागत, योजनाबद्ध या व्यवस्थित तरीके से करने की ज़रूरत नहीं पड़ती. वे उस काल्पनिक विद्यार्थी की तरह हैं जो साल भर मेहनत नहीं करता लेकिन जाने कैसे परीक्षा में सारे सवाल चुटकियों में हल कर देता है.

वे उस बल्लेबाज़ की तरह हैं जो एक-दो रन नहीं बनाता, सिर्फ और सिर्फ छक्के ही मारता है. वे वो शख्सियत हैं जो सिर्फ मास्टरस्ट्रोक ही चलती है.

डर के मारे हम बोलें या न बोलें, सच ये है कि हम आहत इसलिए हुए हैं क्योंकि हमने महामानव की जिस छवि को सीने से लगाए रखा था वह साल भर में खंड-खंड हो गई.

हम कातर इसलिए हो रहे हैं क्योंकि हमारा मोहभंग हो गया है और अब हम अनिश्चितता के अंधेरे से भयभीत हैं- जाने अब क्या होगा? जब हमारे स्टार बैट्समैन ही शून्य पर आउट हो गए, तो टीम का क्या होगा?

हमने ऊपर कहा ही है कि दस साल पहले भी हम इतने ही त्रस्त हो जाते. इसलिए कोई यह ताना न मारे कि इन महापुरुष की जगह कोई और होते तो क्या तीर मार लेते?

मुद्दा ये है कि जिन्हें हमने ख़ुदा समझा, अवतारी समझा, चमत्कारी समझा, वे जब परीक्षा की घड़ी आई, तो मिट्टी के माधो साबित हुए. बेशक दूसरे भी नालायक ही थे. लेकिन कोई उन्हें ‘तारणहार’ कहता भी नहीं था!

हम मानते हैं कि व्यक्तिपूजा इस देश की अत्यंत प्राचीन समस्या रही है, लेकिन पिछले कुछ सालों में यह जिस विकृत रूप को प्राप्त हुई है वैसा तो कभी राजे-महाराजों के युग में भी न था.

हमें तो इन पर इतनी श्रद्धा थी कि इनके कहने मात्र से हम ऐसी वैक्सीन भी लगवाने को तैयार हो गए जिनका पक्की तरह से परीक्षण (ट्रायल) भी नहीं हुआ था. हमने तो ये भी नहीं पूछा कि प्रभु, सबको लग तो जाएगी न?

उनके महिमामंडन के लिए हम इस पर भी तालियां पीटते रहे कि हम तो कोरोना के खिलाफ लड़ाई में विश्वगुरु हैं और दुनिया हमसे प्रेरणा प्राप्त कर रही है. अभी अपनी सुध तो ली नहीं थी लेकिन दुनिया के अस्सी देशों के तारणहार बनने चल दिए.

दरअसल गलती मूर्ख बनाने वाले की नहीं, मूर्ख बनने वालों की है. किसने कहा था इंसान को भगवान समझ लो, तारणहार समझ लो, मसीहा समझ लो?

देर-सबेर पंचतंत्र के ‘रंगे सियार’ का भांडा तो फूटना ही था. अफ़सोस बस इसी बात का है कि भांडा फूटते-फूटते व्यक्ति विशेष को तारणहार समझने वाले और बाक़ी दूसरे सभी दर्द से कराह उठे हैं.

कहते हैं अहंकार भगवान का भोजन होता है. यानी  भगवान अहंकार का दंड अवश्य देते हैं. ये जो देश में त्राहि मची हुई है ये भी उन्हीं के अहंकार का दंड है जिनकी हर मूर्खता को हम मास्टरस्ट्रोक बताते आए हैं.

श्रद्धा तो अभी भी इस क़दर पाली हुई है कि भक्त दलीलों पर दलीलें दिए जा रहे हैं कि केवल हमारे यहां ही थोड़े हालत खस्ता है, दूसरे देशों में भी है. आप उनसे क्यों तुलना कर रहे हैं जो हमारी आबादी का अंश भी नहीं हैं.

जो कहीं कुछ ठीकठाक हो जाए तो सारा श्रेय व्यक्ति विशेष का है. जो कहीं गड़बड़ हो जाए जैसे कि कुछ वर्षों से लगातार ही हो रहा है तो उसे दैवीय कृत्य (एक्ट ऑफ गॉड) कह दिया जाता है.

यह भी कहा जा रहा है कि अभी आपदा के समय क्यों आलोचना कर रहे हैं, बाद में करिएगा. किस क़ानून में लिखा है कि जनप्रतिनिधि किसी समय विशेष में आलोचना से मुक्त होते हैं?

अब पूछिए, आज जो हो रहा है उसमें पीड़ितों का क्या दोष है? उनका पहला दोष उनकी विवेकशून्यता थी. ईवीएम का बटन दबाने में एक क्षण नहीं लगता पर उसके परिणाम दूरगामी होते हैं. मुज़फ़्फ़र रज़्मी ने लिखा था न,

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई

(जब्र: अत्याचार, तारीख: इतिहास)

दूसरा दोष था झूठे महिमामंडन का भागीदार बनना. तीसरा दोष बुद्धि को तिलांजलि दे देना. हम वही लोग हैं जिन्होंने उछल-उछलकर थालियां बजाई थीं और बेमौसम दिए जलाए थे.

होश के नाखून लो मियां, कहीं कृतज्ञता ज्ञापन ऐसे होता है? कृतज्ञता अनुभूति की वस्तु है, उसका ये बेढंगा तमाशा इसीलिए बन सका क्योंकि हम बुद्धि त्याग चुके हैं.

द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम दिनों में बर्लिन की लड़ाई के लिए हिटलर के पास जब सैनिक नहीं बचे तो आठ साल से चौदह साल के बच्चों (हिटलर युगेंड) को लड़ने भेज दिया गया. अब हम भी कोरोना के खिलाफ लड़ाई बाल मित्रों के सहारे लड़ना चाहते हैं. समझ जाइए कि हम किस मोड़ पर खड़े हैं.

हमने अपनी युवावस्था में लाइसेंस, कोटा, परमिट राज के दिन देखे हैं. हर चीज़ के लिए सिफारिश की ज़रूरत होती थी. कैसा क्रूर मज़ाक़ है कि विश्वगुरु भारत के नागरिक फिर से उन्हीं दिनों में लौट आए हैं.

इलाहाबाद के एक प्लांट में ऑक्सीजन की लाइन में लगे मरीजों के परिजन. (फोटो: पीटीआई)
इलाहाबाद के एक प्लांट में ऑक्सीजन की लाइन में लगे मरीजों के परिजन. (फोटो: पीटीआई)

हमने इतनी तरक्क़ी कर ली है कि अब तो चाहे अस्पताल में एडमिशन चाहिए, ऑक्सीजन चाहिए या दवा, सबके लिए भारी सिफारिश चाहिए. यहां तक कि एक दिन तो एक मंत्री महोदय को भी जिला स्तर के अधिकारियों से एक बेड के लिए सिफारिश लगवानी पड़ी. यही असली जनतंत्र है, यही असली अच्छे दिन हैं.

कुछ समय से व्यक्ति विशेष की नक़ल में करोड़ों लोग मिलिट्री की भाषा का प्रयोग करने लगे हैं- हम अब फ्रंटलाइन वर्कर्स, कोरोना वॉरियर्स, कोरोना वॉर रूम्स आदि की बातें करते नहीं थकते.

शायद हम भूल रहे हैं कि मुग़ल साम्राज्य को भी बड़ी-बड़ी उपाधियां लेने-देने का शौक़ था- आठ-आठ शब्दों की- अबू मुज़फ्फर मुहीयुद्दीन मुहम्मद औरंगजेब आलमगीर पादशाह गाज़ी! पर ऐसी लंबी-लंबी उपाधियां भी मुग़ल साम्राज्य का पतन रोक नहीं पाईं.

हम भारतीयों की सहनशीलता अद्भुत है. देश में हाहाकार मचा है. ऐसा कोई प्राणी नहीं मिलेगा जो त्रस्त और भयभीत न हो. फिर भी अभी चुनाव करा के देख लीजिये. परिणाम जानते ही हैं, बताने की आवश्यकता नहीं है. आखिर मंदिर बन रहा है न!

हम वैसा कभी नहीं कहेंगे जैसा इर्तज़ा नशात ने कहा था,

कुर्सी है तुम्हारा ये जनाज़ा तो नहीं है
कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते

ठीक है, फिर किसी को शिकायत या विलाप करने का नैतिक अधिकार भी नहीं है. जो करेंगे राम ही करेंगे. खुश रहा जाए उसी से. हारे को हरिनाम, जय सियाराम.

(लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं और केरल के पुलिस महानिदेशक और बीएसएफ व सीआरपीएफ में अतिरिक्त महानिदेशक रहे हैं.)