पंडित राजन मिश्र: सादगी, सरलता और सुरों का संगम…

स्मृति शेष: पंडित राजन मिश्र का असमय चले जाना सभी संगीत-प्रेमियों के लिए भारी आघात है. ख़ासकर, उनके अज़ीज़ों के लिए, जिन्होंने एक अद्भुत गायक के साथ-साथ एक अद्भुत इंसान भी खो दिया.

//
पंडित राजन मिश्र. (फोटो साभार: फेसबुक)

स्मृति शेष: पंडित राजन मिश्र का असमय चले जाना सभी संगीत-प्रेमियों के लिए भारी आघात है. ख़ासकर, उनके अज़ीज़ों के लिए, जिन्होंने एक अद्भुत गायक के साथ-साथ एक अद्भुत इंसान भी खो दिया.

पंडित राजन मिश्र. (फोटो साभार: फेसबुक)
पंडित राजन मिश्र. (फोटो साभार: फेसबुक)

जैसे ही पंडित राजन मिश्र के जाने की ख़बर मिली, असहनीय दुख ने घेर लिया. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत भरा पड़ा है याद और बिछोह की बंदिशों से, उनके ढेर बींधे दे रहे हैं दिल को.

पहली बार राजन-साजन मिश्र को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में सुना था. साल ठीक-ठीक याद नहीं, पर दशक 1970 का था. उससे पहले उन का नाम भी नहीं सुना था. बिल्कुल शुरुआती दौर था वह दोनों भाइयों का.

उन्होंने उस शाम अपने भव्य गायन से श्रोताओं को सम्मोहित कर लिया था. मानो पूर्व घोषणा कर रहे हों संगीत जगत में अपनी आगामी उज्जवल उपस्थिति की. फिर एक ख़ूबसूरत इत्तेफ़ाक ने राजन-साजन मिश्र से जान-पहचान करा दी.

यह जान-पहचान देश-विदेश में हुई हमारी आकस्मिक मुलाक़ातों के दौरान गहराने लगी, विशेष रूप से राजन मिश्र के साथ. फिर उसमें इतनी निजता आने लगी कि हम पहले से तय करके भी मिलने लगे कभी-कभार.

राजन जी को मैं हमेशा पंडितजी कहकर संबोधित करता था और मैं उनके लिए कभी प्रोफेसर साहब हो जाता और कभी डॉक्टर साहब.
पंडितजी का आकस्मिक ही असमय चले जाना सभी संगीत-प्रेमियों के लिए भारी आघात है. उनके लिए, जिन्हें सौभाग्य मिला उनको थोड़ा भी नज़दीक से देखने-जानने का, यह दोहरी मार है. एक अद्भुत गायक के साथ-साथ एक अद्भुत इंसान भी खो दिया है उन्होंने. उस इंसान को मैं आपके साथ याद करना चाहता हूं.

राजन-साजन से जान-पहचान की शुरुआत कराने वाला ख़ूबसूरत इत्तेफ़ाक सूरत में हुआ, 1990 या 1991 में. सूरत व्यापारियों का नगर है और जिस समय की मैं बात कर रहा हूं कम से कम उस समय नवरात्रि और शादी-ब्याह के दौरान गरबे के अलावा नगर के जीवन में संगीत का कोई महत्व नहीं था.

उस विशुद्ध तिजारती सूरत में स्पिक मैके ने अपना अभियान शुरू कर दिया. मैं शास्त्रीय संगीत का दीवाना तो था ही, सेंटर फॉर सोशल स्टडीज़ का निदेशक भी था उन दिनों, सो थोड़ा बहुत सहयोग करने लगा स्पिक मैके की गतिविधियों में.

जब राजन-साजन के आने की बात हुई तो मैंने उनके और उनके संगतियों के रहने की व्यवस्था का ज़िम्मा ले लिया. हमारा सेंटर जहां स्थित था वह जगह उस समय शहर से दूर थी और चारों ओर लहलहाते खेत थे.

स्टेशन से सेंटर तक के लंबे सफ़र में मैंने पीछे बैठे दोनों भाइयों को बताया कि कैसे मैं सालों से उनको कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में सुनने के बाद से ही उनके गायन का मुरीद रहा हूं. मेरे यह बताने पर कि मैंने 1958 पंडित गोपाल मिश्र और पंडित अनोखे लाल को पंडित ओंकारनाथ की संगत करते सुना था, राजन जी ने इन दोनों हस्तियों की बात शुरू कर दी.

सेंटर पहुंचकर जिस बीच साजोसामान उतारा जा रहा था, मैं सारे अतिथियों को कुछ खा-पी लेने के लिए अपने दफ्तर में ले गया. मैं जानता था कि हमारे तपोवनी सेंटर में वैसी सुविधाएं नहीं हैं, जिनके ये लोग आदी हैं और हक़दार भी. सो मैंने उन्हें बताया कि सेंटर ने सिद्धांततः सादगी का रास्ता चुना है और उसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रसिद्ध गांधीवादी आर्किटेक्ट लॉरी बेकर ने सेंटर की इमारतें डिज़ाइन की हैं.

मैंने कहा कि हम आपको भौतिक सुविधाएं नहीं दे पाएंगे, पर हम खुद को धन्य समझेंगे यदि आप हमारा आतिथ्य स्वीकार कर हमारा मान रख लें. ऐन उसी वक़्त मिश्र बंधुओं के साथ आईं स्पिक मैके की वॉलंटियर सलोनी, जो इस बीच जगह का मुकम्मल जायज़ा ले चुकी थीं.

वे आईं और कमरे के बाहर ही खड़े-खड़े पंडितजी से अंग्रेज़ी में बोलीं कि कृपा कर एक मिनट के लिए इधर आएं. वहीं बैठे-बैठे पंडितजी ने अंग्रेज़ी में ही पूछा, बताओ क्या बात है. सलोनी बोलीं, ‘पंडितजी, यू विल नॉट स्टे हियर.’ पंडितजी ने धीमे से कहा, ‘वी विल स्टे हियर, सलोनी.’

इसी सादगी और सरलता का एक और रूप कार्यक्रम के दौरान देखने में आया. सेंटर के पास ही बने नगर के इंजीनियरिंग कॉलेज में हो रहे शास्त्रीय गायन को सुनने वाले अधिकांश भावी इंजीनियर ही थे. वे ऐसे भाव-विभोर हो गए कि चाह ही नहीं रहे थे कि गायन संपन्न हो.

‘थोड़ा और, थोड़ा और’ की रट लगा देते बार-बार. हम जानते थे कि स्पिक मैके के लिए आने वाले ज़्यादातर कलाकार लंबी प्रस्तुति के लिए तैयार नहीं होते. कहीं उनकी अपेक्षा रहती थी कि लंबा सुनना है तो अलग से बुलाओ और जो दिया जाना है वह दो. पर मिश्र बंधु आनंद लेते रहे उन नए युवा रसिकों को लुभाने का.

देश-विदेश में मिली अपार कीर्ति, मान-सम्मान और समृद्धि के बाद भी पंडितजी ठेठ बनारसी ही बने रहे. लक्ष्मण के आधुनिक अवतार उनके छोटे भाई साजन भी वैसे ही हैं. यह असलियत पूरी तरह तभी उजागर हुई जब सौभाग्य से मुझे अनेक बार उन्हें बनारस में देखने का मौक़ा मिला.

बनारस में उनके एक लंगोटिया यार हैं जिनका नाम है मलिक साहब. मलिक साहब का पूरा नाम जानने वाले कम ही हैं और उसको लेने वाला तो कोई है ही नहीं. पंडितजी भी उन को मलिक कहकर ही पुकारते थे. बनारसी परंपरा का निर्वाह करते हुए चाहे जब मलिकवा भी कह देते थे.

मलिक साहब का एक बहुत ही पुराना और निहायत वफ़ादार स्कूटर है. एक किक में चालू हो जाने वाला. सारा बनारस मलिक साहब को जानता है. पंडितजी और मलिक साहब स्कूल में तो साथ थे ही, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भी इनका साथ रहा.

कम ही लोग जानते हैं कि पंडितजी ने समाजशास्त्र में एमए किया था और वे यूनिवर्सिटी के लिए क्रिकेट भी खेलते थे. जहां तक मुझे याद पड़ता है वे ऑफ स्पिनर हुआ करते थे.

एक बार ऐसा हुआ कि मैं तीन महीनों के लिए बीएचयू में रहा. लाज़िम था कि मलिक साहब से दोस्ती हो जाए, सो हो गई. एक शाम अचानक उनका फोन आया. पूछा क्या हो रहा है, मैंने हंसकर कहा कि वही जो इस वक़्त होता है. दोस्त लोग बैठे हैं. तो उन्होंने कहा कि राजन आए हुए हैं और पूछ रहे हैं कि आ जाएं  हम लोग. ‘नेकी और पूछ-पूछ’, मैंने कहा.

आधा घंटा भी नहीं हुआ होगा कि राजन-साजन, मलिक साहब और उनके एक मित्र नमूदार हो गए. देर रात तक बैठे रहे. कितने तो किस्से बनारस और बनारसियों के सुनाए उस रात पंडितजी ने. एक से एक दिलचस्प, कुछ तो ऐसे कि हंसते-हंसते पानी टपकने लगे आंखों से.

शायद ही कोई क़िस्सा रहा हो जहां बनारसियों की रोज़मर्रा की बातचीत को उसका अनोखा रंग और चरित्र देने वाले वे शब्द न रहे हों जिनको लिख भी दूं तो वे छपेंगे नहीं.

बात राजन-साजन की बनारसी सरलता और आडंबरहीनता की हो रही है. सो यह भी गौरतलब है कि जब मैं इन चारों को छोड़ने आया तो देखा कि कोई गाड़ी नहीं है. दो स्कूटर हैं. एक मलिक साहब का और दूसरा उनके मित्र का. एक के पीछे जींस-टी शर्ट धारी राजन बैठे और दूसरे के पीछे साजन. ‘गुडनाइट’ कह चल दिए यारों के यार दोनों नामी फ़नकार. फिर मिलने का वादा कर के.

बहुत कुछ है कहने को. लेकिन वेबसाइट में शब्दों की सीमा है. सो बस इतना और कि जब मेरे जैसे का बुरा हाल है तो संतप्त परिवार और अंतरंग स्वजनों पर क्या बीत रही होगी. कौन सांत्वना देगा उन्हें. अनाथ हो गए साजन मिश्र की वेदना तो अकल्पनीय है. बस प्रार्थना बच रहती है ऐसे असमय में.

(लेखक गांधीवादी विचारक और संगीत मर्मज्ञ हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25