छत्तीसगढ़: ‘आदिवासियों को भी विकास चाहिए, लेकिन वैसे नहीं जैसे सरकार चाहती है’

बस्तर संभाग के सुकमा ज़िले के सिलगेर गांव में 20 दिनों से हज़ारों ग्रामीण आंदोलनरत हैं. उनका कहना है कि उन्हें जानकारी दिए बिना उनकी ज़मीन पर राज्य सरकार ने सुरक्षाबल के कैंप लगा दिए हैं. ग्रामीणों को हटाने के लिए हुई पुलिस की गोलीबारी में तीन ग्रामीणों की मौत हुई है, जिसके बाद से आदिवासियों में काफ़ी आक्रोश है.

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छत्तीसगढ़ के सिलगेर गांव में सुरक्षा बलों के कैंप के खिलाफ आदिवासियों का एक प्रदर्शन. (फाइल फोटो: रानू तिवारी)

बस्तर संभाग के सुकमा ज़िले के सिलगेर गांव में 20 दिनों से हज़ारों ग्रामीण आंदोलनरत हैं. उनका कहना है कि उन्हें जानकारी दिए बिना उनकी ज़मीन पर राज्य सरकार ने सुरक्षाबल के कैंप लगा दिए हैं. ग्रामीणों को हटाने के लिए हुई पुलिस की गोलीबारी में तीन ग्रामीणों की मौत हुई है, जिसके बाद से आदिवासियों में काफ़ी आक्रोश है.

सिलगेर गांव में सड़क पर प्रदर्शन कर रहे ग्रामीण. (सभी फोटो: रानू तिवारी)
सिलगेर गांव में सड़क पर प्रदर्शन कर रहे ग्रामीण. (सभी फोटो: रानू तिवारी)

बस्तर: ‘पुलिस की गोलीबारी में मेरे भाई की मौत हो गई है, जिनका शव लेने के लिए हम यहां आए हैं, मेरे गांव के कई लोगों को पुलिस ने जेल में बंद कर दिया है और कलेक्टर ने कहा है कि अगर गांव वाले आंदोलन से अपने-अपने घर चले जाते हैं, तभी उनके घर वालों को छोड़ा जाएगा.’

बीजापुर के गुडेम गांव के युवक हूंगा पूनेम यह बताते हुए निराश हो जाते हैं. बस्तर संभाग के सुकमा जिले के सिलगेर गांव में 20 दिनों से हजारों ग्रामीण आंदोलनरत है. ग्रामीणों का कहना है कि उन्हें जानकारी दिए बगैर ही उनकी जमीन पर छत्तीसगढ़ सरकार ने सुरक्षाबल के कैंप लगा दिए हैं, जिस वजह से ग्रामीण लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.

आंदोलनकारी ग्रामीणों का कहना है कि जब तक सरकार कैंप को हटा नहीं देगी तब तक उनका आंदोलन चलता रहेगा.

बता दें कि आंदोलन में भारी संख्या में महिला, पुरुष, बूढ़े और बच्चे सभी शामिल हैं. बस्तर में ग्रामीण आदिवासी सुरक्षाबलों के कैंप का विरोध लंबे समय से कर रहे हैं. लेकिन 17 मई को आंदोलन कर रहे ग्रामीणों पर सुरक्षाबलों द्वारा फायरिंग कर दी गई, इस घटना में तीन ग्रामीणों की जान चली गई और लगभग 18 लोग घायल हो गए.

ग्रामीण आदिवासियों पर गोलीबारी की घटना की खबर आग की तरह चारों ओर फैल गई, जिसके बाद सामाजिक कार्यकर्ता और आदिवासी समाज से जुड़े नेता, जिनमें बेला भाटिया और मनीष कुंजाम प्रमुख तौर शामिल हैं, मौके पर पहुंचने की कोशिश करने लगे, लेकिन उनका सिलगेर तक पहुंचना आसान नहीं था. इस मामले में तीन दिन तक संघर्ष करने के बाद बेला भाटिया घटनास्थल तक पहुंच सकीं.

क्या है पूरा मामला

बीजापुर में सबसे पहले हमारी मुलाकात उन ग्रामीणों से हुई जिनके परिजन इस घटना में मारे गए थे और वे उनके शव लेने जिला मुख्यालय पहुंचे हुए थे. जिला पंचायत भवन में लगभग तीस की संख्या में महिला और पुरुष कलेक्टर रितेश अग्रवाल का इंतजार कर रहे थे. कुछ देर बाद कलेक्टर रितेश अग्रवाल और बीजापुर के विधायक विक्रम मंडावी और वहां पहुंचे और बंद कमरे में घंटों ग्रामीणों के साथ बैठक की.

ग्रामीणों की मानें, तो लंबी बैठक में बीजापुर कलेक्टर ने यह फरमान सुनाया कि यदि ग्रामीण आंदोलन बंद कर अपने-अपने घर लौट जाएंगे, तो उनके घर वालों को छोड़ दिया जाएगा. जब ग्रामीण आदिवासियों ने कलेक्टर से जेल में बंद करने की वजह जाननी चाही तो उन्हें बताया गया कि आंदोलन के दौरान ग्रामीणों ने पुलिस पर पथराव किया था.

घटना में मारे गए तीन ग्रामीणों के शव उनके परिजनों को इस शर्त पर दिए गए कि वे शव लेकर धरनास्थल सिलगेर की ओर न जाकर सीधे अपने घर जाएंगे और शवों का अंतिम संस्कार कर देंगे.

हालांकि सिलगेर गांव के पास सुरक्षाबलों का कैंप पूरी तरह तैयार हो चुका है और उससे लगभग सौ मीटर की दूरी पर मौजूद सड़क पर ही कंटीले तारों के साथ सुरक्षाबलों ने बैरिकेडिंग भी की है. सड़क के एक ओर दो माइन प्रोटेक्टर वाहन खड़े हैं, इसके अलावा बड़ी संख्या में अत्याधुनिक हथियारों से लैस जवान भी तैनात हैं.

कंटीले तारों के दूसरी ओर हजारों की संख्या में आदिवासी ग्रामीण खड़े हैं, जिन्होंने अपने हाथों में सफेद कपड़े का बैनर थाम रखा है जिसमें गोंडी भाषा में लिखा हुआ है, ‘सिलगेर सीआरपीएफ कैंप तुन वापस ओयना मैदे धरना प्रदर्शन.’ इसका मतलब है कि सीआरपीएफ कैंप हटाने के लिए धरना प्रदर्शन.

वहीं, बस्तर पुलिस की ओर से कहा गया कि ग्रामीण आंदोलनकारियों की ओर से उन पर पत्थर बरसाए गए और कुछ लोगों द्वारा जवानों के हथियार और वायरलेस सेट छीनने की कोशिश की गई. जवाब में जवानों को कार्रवाई करनी पड़ी.

ग्रामीणों ने बेला भाटिया से जवानों पर पत्थर बरसाने की बात स्वीकार किया है. बेला ने बताया, ‘कुछ युवाओं ने गुस्से में पुलिस की गाड़ियों को आग लगा देने की बात भी कही, लेकिन जवानों से ग्रामीणों के बीच दो-दो कंटीले तारों की बैरिकेडिंग की गई थी जिससे पत्थर उन तक पहुंच पाना संभव नहीं था, बावजूद इसके जवानों ने पहले हवाई फायरिंग शुरू की और फिर ग्रामीणों को दोनों ओर से घेरते हुए उन पर गोलियां बरसाने लगे जिसमें तीन गांव वाले मारे गए और 18 लोग घायल हो गये.’

इस पूरे घटनाक्रम पर बेला भाटिया का कहना है, ‘यह आंदोलन अभी चलता रहेगा, क्योंकि सरकार ने ग्रामीणों को भरोसे में लिए बगैर ही वहां कैंप लगाया है. 12 मई की सुबह अंधेरे में ही जवान कैंप पहुंच गए थे और इसकी जानकारी सिलगेर और आसपास के ग्रामीणों को दोपहर में मिली. ऐसे में जब ग्रामीणों का एक समूह अधिकारियों से बात करने पहुंचा, तो थोड़ी चर्चा के बाद ही उन्हें वहां से भगा दिया गया. इससे ग्रामीण नाराज हो गए. यही कारण है कि धीरे-धीरे कई पंचायत के हजारों ग्रामीण घटनास्थल पर एकत्रित हो गए और आंदोलन करने लगे.’

बेला भाटिया ने इस मामले पर अपनी जांच रिपोर्ट भी तैयार की है और उनका कहना है कि घटनास्थल पर नियम विरुद्ध कार्यवाही की जा रही है और यही वजह है कि वहां किसी को जाने नहीं दिया जा रहा है.

गांव वालों की इस भीड़ में सबसे आगे एक बुजुर्ग खड़े हैं जिनका नाम लखमा है. वे सिलगेर से कुछ आगे बेदरे गांव के निवासी हैं. लखमा आंदोलन करने की वजह बताया कि वे यहां कैंप हटाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं और जब तक यह हट नहीं जाएगा, तब तक इसी तरह यहां आंदोलन करते रहेंगे.

लखमा ने द वायर  को बताया, ‘कैंप लगने के बाद जवान जंगल में घूमने वाले ग्रामीणों को मारते-पीटते हैं और जेल में बंद कर देते हैं. यहां गांव वाले जंगलों के सहारे ही जिंदा हैं. हम जंगल से लकड़ी, तेंदूपत्ता जैसी चीजें एकत्रित करने जंगल जाते हैं, इस दौरान कई बार गांव वाले शिकार करने के लिए तीर-धनुष भी साथ लेकर चलते हैं, कई बार ऐसा करने के लिए भी उन्हें गोली मार दी जाती है.’

लखमा आगे कहते हैं, ‘अभी-अभी जो नया कैंप लगा है, हम इसका विरोध कर रहे हैं तो हमें लाठियों से पीटा जा रहा है, 17 मई को तो हम पर गोली भी चला दी गई, जिसमें हमारे तीन साथी मारे गए. पुलिस कहती है कि हमारे बीच माओवादी हैं, जो पूरी तरह से गलत बात है. इस आंदोलन में सिर्फ और सिर्फ ग्रामीण आदिवासी ही शामिल हैं.’

आंदोलन में पलागुदा से पहुंचे एक अन्य युवा आयतु कहते हैं, ‘ग्रामीणों को सड़क चाहिए लेकिन कैंप नहीं चाहिए. वे भी अपने गांव में विकास चाहते हैं लेकिन जिस तरह से सरकार चाहती है, वैसा नहीं.’

आयतु के अनुसार, उन्हें अपने गांव में आंगनबाड़ी , स्कूल, अस्पताल और राशन की दुकान और सड़क भी चाहिए. लेकिन इतनी चौड़ी सड़क नहीं चाहिए. सड़क बनाने का काम ग्रामीणों को ही दिया जाए. ग्रामीण अपनी जरूरत के हिसाब से सड़क बना लेंगे. इससे रास्ते का निर्माण भी हो जाएगा और ग्रामीण युवाओं को इससे रोजगार और पैसा भी मिलेगा.’

आंदोलनरत ग्रामीण.
आंदोलनरत ग्रामीण.

कैंप के विरोध के पीछे क्या है तर्क

बस्तर में बीते लंबे समय से अलग अलग क्षेत्रों में कैंप का विरोध किया जा रहा है. प्रत्येक विरोध को पुलिस के द्वारा नक्सलियों का प्रायोजित आंदोलन बताया जाता है. इस आंदोलन को भी बस्तर आईजी ने माओवादियों का प्रोपगैंडा बताया है.

राजधानी रायपुर से हजार किलोमीटर से अधिक दूर बीजापुर के सिलगेर गांव में कई पंचायतों के आदिवासी इकट्ठा हैं. आजादी के 73 साल बाद भी सिलगेर गांव तक बिजली के तार नहीं पहुंच सके हैं.

सिलगेर गांव की आबादी लगभग 1,200 की है जहां गोंड और मुरिया जनजाति निवास करती है. यहां के ग्रामीणों का मुख्य व्यवसाय खेती और वनोपज है. इसी वनोपज को एकत्रित करने वे लगभग पूरा दिन जंगलों में भटकते रहते हैं, जिससे कई बार सुरक्षाबलों द्वारा उन्हें संदिग्ध मानते हुए गिरफ्तार भी किया जाता रहा है.

सिलगेर के से लगभग 20 किमी की दूरी पर बसे गांव बासागुड़ा में तालपेरु नामक नदी है. यहां के ग्रामीण वनों से महुआ, इमली, टोरा, चार, तेंदूपत्ता जैसे अन्य कई वनोपज एकत्रित करते हैं और इसे साप्ताहिक बाजारों में बेचकर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के समान खरीदते हैं.

दरअसल जिस सड़क को बनाने के लिए सिलगेर में यह कैंप स्थापित किया जा रहा है वह सड़क सुकमा जिले के जगरगूंगा को बीजापुर के आवापल्ली से जोड़ती है.

सलवा जुडूम के पहले इस सड़क पर आवागमन जारी था लेकिन सलवा जुडूम शुरू होने के बाद हुई हिंसा के बीच इस सड़क को माओवादियों ने पूरी तरह बंद कर दिया.

सरकार चाहती है कि इस सड़क को पुनः बहाल किया जाए ,जिससे क्षेत्र में विकास कार्यों के साथ-साथ आदिवासियों तक मूलभूत सुविधाएं पहुंचाई जा सकें और साथ ही साथ यह सड़क माओवादियों के खिलाफ चलाए जा रहे ऑपरेशन में काफी मददगार साबित होगी.

वहीं, जिस इलाके में यह सड़क बन रही है उसे माओवादियों का कोर इलाका माना जाता है. यदि यह सड़क बन गई तो माओवादियों को बड़ा नुकसान होगा जिसे देखते हुए माओवादी किसी भी कीमत पर इस सड़क को बनने नहीं देना चाहते हैं.

पुलिस का मानना है कि माओवादी ग्रामीणों को आगे भेजकर लगातार विरोध करवा रहे हैं. सड़क को सुरक्षा देने के लिए स्थापित किए गए कैंप को लेकर ग्रामीणों के पुराने अनुभव के आधार पर तर्क है कि यदि यह कैंप लग गया तो उनके साथ अत्याचार किया जाएगा.

क्या जवानों की गोली से मरे ग्रामीण माओवादी थे?

17 मई को आंदोलन स्थल पर पर मारे गए तीनों आदिवासियों को पुलिस ने माओवादी करार दिया है जबकि ग्रामीणों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि उन तीनों ग्रामीणों का माओवादी और उनके संगठनों से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है.

बस्तर पुलिस ने ग्रामीणों की भीड़ में ही जगरगुंडा एरिया कमेटी, पामेड़ एरिया कमेटी, केरलापाल एरिया कमेटी के कुछ जनमिलिशिया सदस्यों के मौजूद होने और जवानों से हथियार और वायरलेस सेट छीनने की कोशिश की बात कही, साथ ही 19 जवानों के घायल होने की भी जानकारी दी.

जवानों पर हमला करने के आरोप में 8 ग्रामीणों को गिरफ्तार किया गया है और पूछताछ के उपरांत उन्हें कार्यपालिक दंडाधिकारी, आवापल्ली के न्यायालय में प्रस्तुत किया गया.

पुलिस के अनुसार घटना में मारे गए तीनों ग्रामीणों की शिनाख्त सिलगेर के ग्रामीणों द्वारा नहीं की जा सकी, जिससे दो दिन बाद उनकी शिनाख्त पांडू कवासी वागा, एवं कुरसम भीमा के रूप में की गई जो प्रतिबंधित माओवादियों के संगठन की भूमिका में विरोध प्रदर्शन हेतु शामिल रहे. जबकि ग्रामीणों के अनुसार, मारे गए तीनों ग्रामीणों की पहचान घटना के तुरंत बाद जाहिर की थी और तीनों के किसी भी माओवादी संगठन से कोई संबंध न होने की बात कही.

बस्तर में लंबे समय से आदिवासियों के अधिकार के लिए लड़ने वाले आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सीपीआई से पूर्व विधायक रह चुके मनीष कुंजाम ग्रामीणों के आंदोलन को समर्थन देने सिलगेर पहुंचे. कुंजाम ने ग्रामीणों पर गोली चलाने की घटना को दुर्भाग्यपूर्ण बताया और घटना की सेवानिवृत्त न्यायधीश द्वारा जांच कराए जाने की मांग की.

मारे गए लोगों के माओवादी संगठन से संबंध होने के सवाल पर कुंजाम सरकार पर सवाल उठाते हुए कहा, ‘पहले विरोध कर रहे ग्रामीणों पर लाठियां बरसाई गईं और जब विरोध बढ़ा तो गोली चला दी गई और अब इस आंदोलन को माओवादियों से जोड़कर इसे सरकार द्वारा बदनाम किया जा रहा है.’

उनका कहना है, ‘दरअसल सरकार को लगता है कि इस क्षेत्र में बसने वाले सभी आदिवासी माओवादी हैं. ग्रामीण निहत्थे आंदोलन कर रहे थे, ऐसे में उन पर गोली चलने का आदेश किस संविधान के अनुसार दिया गया? यहां पहले ग्रामीणों को गोली मारी जाती है और फिर उन्हें नक्सली घोषित कर दिया जाता है फिर दस-दस हजार रुपये मुआवजा देकर पूरे मामले का मजाक बनाया जाता है.’

बस्तर पुलिस ने इस संबंध में एक प्रेस नोट जारी कर जानकारी दी है कि 12 मई से शुरू हुए इस आंदोलन में आये ग्रामीणों को समझाकर वापस भेज दिया गया था लेकिन 17 मई को दोबारा बड़ी संख्या में ग्रामीण उग्र होकर हाथों में तीर, धनुष, कुल्हाड़ी व डंडा लेकर कैंप की ओर बढ़ रहे थे.  पुलिस के अनुसार इस दौरान वहां उपस्थित कार्यपालिक मजिस्ट्रेट द्वारा उन्हें समझाइश भी दी गई पर ग्रामीण बेरिकेटिंग तोड़ कर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे.

बस्तर पुलिस द्वारा मारे गए लोगों को माओवादी बताने पर सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष प्रकाश ठाकुर ने भी पीड़ित ग्रामीणों व उनके परिजनों से मुलाकात की.

ठाकुर ने पुलिस कार्रवाई को नाइंसाफी बताते हुए कहा, ‘पुलिस जिन लोगों को गोली मारकर माओवादी बता रही है , दरअसल वे सभी किसान हैं. मारे गए ग्रामीणों में किसी के चार बच्चे हैं तो किसी के नौ और अब उनके सिर से पिता का साया उठा गया है, जिसकी जिम्मेदार बस्तर पुलिस है.’

प्रकाश ठाकुर ने बस्तर पुलिस पर गंभीर आरोप लगते हुए कहा, ‘पुलिस के अधिकारी अपनी गलती छुपाने के लिए अब गलत जानकारी दे रही है. पुलिस के अधिकारीयों का कहना है कि ग्रामीणों के बीच से माओवादियों ने फायरिंग की है और उस घटना का वीडियो जो सामने आया है उसमें साफ़ नजर आ रहा है कि ग्रामीणों की ओर से कोई फायरिंग हुई ही नहीं. हो सकता है कि ग्रामीण माओवादियों के दबाव में आंदोलन कर रहे हों, लेकिन जवान तो ग्रामीणों की सुरक्षा के लिए तैनात हैं उन्हें किसने अधिकार दिया कि वे निहत्थे ग्रामीणों पर गोलियां बरसाएं?’

आंदोलनस्थल के पास तैनात सुरक्षाकर्मी.
आंदोलनस्थल के पास तैनात सुरक्षाकर्मी.

क्या कहते हैं सामाजिक कार्यकर्ता

बस्तर के आदिवासी समाज के बीच सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक सुर में घटना की निंदा की और पुलिसिया कार्रवाई पर सवाल उठाए हैं. वहीं, ग्रामीणों में वर्तमान कांग्रेस सरकार के प्रति काफी असंतोष देखने को मिल रहा है.

दूसरी ओर कैंप के खिलाफ आंदोलनरत ग्रामीण पीछे हटते नज़र नहीं आ रहे हैं. आंदोलन में बड़ी संख्या में कई नौजवान शामिल हैं और वे आंदोलन में जोश भरने का काम कर रहे हैं. आंदोलन में ही शामिल तिमापुरम की युवती सरसिता ने बताया कि उनके गांव से भी एक ग्रामीण की फायरिंग में मौत हुई है.

वे गुस्से में कहती हैं, ‘कैंप के जवानों द्वारा लगातार महिलाओं से अभद्र व्यवहार किया जाता है और यह कैंप लगने के बाद भी यह घटना दोहराई जाएगी. आगे चलकर ऐसा न हो इसलिए हम विरोध कर रहे हैं. आंदोलन की शुरुआत में कैंप के अधिकारियों ने बातचीत की थी और ग्रामीणों को आश्वासन दिया था कि जवान किसी तरह की ज्यादती नहीं करेंगे लेकिन आगे चलकर न केवल जवानों ने उन पर लाठियां बरसाईं बल्कि गोली भी चलाई.’

बस्तर में आदिवासियों के लिए संघर्ष करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने भी बस्तर पुलिस को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि इस पूरे मामले में दोषी वहां तैनात जवान ही हैं. उनका आरोप है कि इसी कारण उन्हें प्रशासन घटनास्थल पर जाने नहीं दे रहा था. जबकि सोनी गोंडवाना समाज पर आदिवासियों के खिलाफ जाकर पुलिस का साथ देने का भी आरोप लगाया है.

पहाड़ों के रास्ते घटनास्थल पर पहुंचीं सोनी सोरी ने बताया, ‘ग्रामीण अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं लेकिन पुलिस बेवजह उनपर माओवादी समर्थन का आरोप लगा रही है. वहीं प्रशासन और गोंडवाना समाज द्वारा इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए ग्रामीणों के साथ बैठक की जा रही है. गोंडवाना समाज चाहे जितने दावे कर ले कि वह आदिवासियों के साथ खड़ा है लेकिन उनकी भूमिका पूरी तरह संदिग्ध है. गोंडवाना समाज के प्रमुख ग्रामीणों की ओर से न होकर पुलिस की ओर से मध्यस्थता कर रहे हैं.’

बीजापुर के अधिकारियों ने ग्रामीणों को भरोसा दिलाने के लिए प्रेसवार्ता कर कहा कि इस कैंप से ग्रामीणों को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा, साथ ही इस कैंप के लगने के बाद क्षेत्र में विकास कार्यों में तेजी आएगी जिसका लाभ ग्रामीणों को मिलेगा.

अधिकारियों की समझाइश के बाद ग्रामीणों ने अपने साथियों से चर्चा के बाद ही आंदोलन खत्म करने के फैसले पर विचार करने की बात कही थी.

मगर आज लगातार 20 दिनों से ग्रामीण धरने पर बैठे ही हैं और अब उन्होंने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए पहले सिलगेर से जगरगुंडा की ओर किए जा रहे धरना प्रदर्शन के स्थान को बदलते हुए अब तर्रेम और सिलगेर के बीच सड़क पर बैठे हैं. इस फैसले के बाद अब कैंप तक अधिकारियों का पहुंचना कठिन हो गया है साथ ही सुकमा कलेक्टर द्वारा दिए गए दंडाधिकारी जांच के आदेश के बाद अब जांच भी प्रभावित हो रही है.

अब इस मामले में एक और नई जानकारी सामने आई है. ग्रामीणों ने बताया कि 17 मई हो हुई गोलीबारी के दौरान ग्रामीणों में भगदड़ मच गई थी और इसमें पुसवाका गांव की एक गर्भवती महिला- पुनेम सुकली गिर गईं  और जान बचाने के लिए भाग रहे ग्रामीणों के पैरों के नीचे आकर गंभीर रूप से घायल हो गई थीं. वे तीन माह की गर्भवती थी और इलाज गांव में ही किया जा रहा था, जहां 23 मई को उनकी मौत हो गई.

अब आंदोलन कर रहे ग्रामीणों ने सिलगेर कैंप के सामने ही पत्थर से एक स्मारक तैयार किया है , जिसमें आंदोलन के दौरान मारे गए अपने चारों साथियों के लिए अलग-अलग पत्थर लगाए हैं. साथ ही तर्रेम से सिलगेर के बीच मार्ग अवरुद्ध करने सड़क पर ही लकड़ियां भी डाल दी गई हैं.

29 मई को भाजपा प्रतिनिधि मंडल का पांच सदस्यीय टीम भी सिलगेर के लिए रवाना हुई थी पर तर्रेम से वापस लौटना पड़ा. गर्भवती महिला की मौत पर बीजापुर कलेक्टर रितेश अग्रवाल ने बताया कि 23 को ग्रामीणों से हुई बैठक में ग्रामीणों ने घायलों की जानकारी दी पर गर्भवती महिला के संबंध में किसी प्रकार की जानकारी साझा नहीं की गई पर 25 को मीडिया के माध्यम से यह जानकारी उन तक पहुंची है.

आंदोलन कर रहे ग्रामीणों की भीड़ में अब कोरोना फैलने अंदेशा जताते हुए रितेश अग्रवाल ने बताया कि इस आंदोलन से जुड़े ग्रामीण जिस जिस गांव के हैं वहां कोरोना से संक्रमित मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है. अंदेशा है कि संक्रमित ग्रामीण आंदोलन से लौटे हैं, जिसे देखते हुए बीजापुर से स्वास्थ्य अमले को मौके पर जांच करने के लिए भेजा जा रहा है पर ग्रामीण उन्हें वापस लौटा दे रहे हैं.

फिलहाल इस पूरे मामले पर सरकार की ओर से कोई बयान नहीं आने के आरोप के बीच मंगलवार को मुख्यमंत्री ने 9 सदस्यों की एक टीम का गठन किया है जो सिलगेर तक जाकर ग्रामीणों से मुलाकात करेगी और इस पूरे मामले से जुड़े तथ्य जुटाएगी.

(लेखक बस्तर में काम करने वाले पत्रकार हैं.)

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