दो महिला पत्रकारों ने राजद्रोह क़ानून की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी

‘द शिलॉन्ग टाइम्स’ की संपादक पेट्रीसिया मुखिम और ‘कश्मीर टाइम्स’ की मालिक अनुराधा भसीन ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए (राजद्रोह) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार को ‘परेशान करने के साथ ही बाधित करना’ जारी रखेगी. पत्रकारों ने कहा है कि औपनिवेशिक समय के दंडात्मक प्रावधान का इस्तेमाल पत्रकारों को डराने, चुप कराने और दंडित करने के लिए किया जा रहा है.

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(फाइल फोटो: पीटीआई)

‘द शिलॉन्ग टाइम्स’ की संपादक पेट्रीसिया मुखिम और ‘कश्मीर टाइम्स’ की मालिक अनुराधा भसीन ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए (राजद्रोह) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार को ‘परेशान करने के साथ ही बाधित करना’ जारी रखेगी. पत्रकारों ने कहा है कि औपनिवेशिक समय के दंडात्मक प्रावधान का इस्तेमाल पत्रकारों को डराने, चुप कराने और दंडित करने के लिए किया जा रहा है.

(फाइल फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: दो महिला पत्रकारों ने राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है. इन पत्रकारों ने कहा है कि औपनिवेशिक समय के दंडात्मक प्रावधान का इस्तेमाल पत्रकारों को डराने, चुप कराने और दंडित करने के लिए किया जा रहा है.

‘द शिलॉन्ग टाइम्स’ की संपादक पेट्रीसिया मुखिम और ‘कश्मीर टाइम्स’ की मालिक अनुराधा भसीन ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए (राजद्रोह) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता के अधिकार को ‘परेशान करने के साथ ही बाधित करना’ जारी रखेगी.

याचिका में कहा गया है कि राजद्रोह के अपराध की सजा के लिए उम्रकैद से लेकर साधारण जुर्माने तक की जो तीन श्रेणियां बनाई गई हैं, वह जजों को निर्बाधित विशेषाधिकार प्रदान करने के समान हैं, क्योंकि इस सजा के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं है. इसलिए यह संविधान में प्रदत समता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं और मनमाना है.

इससे पहले एक एनजीओ ने 16 जुलाई को इसी तरह की एक याचिका दायर करके राजद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता को इस आधार पर चुनौती दी थी कि यह अनैतिक है और भारत जैसे स्वतंत्र लोकतंत्र में सभी प्रासंगिकता खो चुका है.

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की तरफ से दायर याचिका में कहा गया है कि राजद्रोह राजनीतिक अपराध था, जिसे मूलत: ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान राजनीतिक विद्रोह को कुचलने के लिए लागू किया गया था. इसने कहा कि इस तरह के ‘दमनकारी’ प्रवृत्ति वाले कानून का स्वतंत्र भारत में कोई स्थान नहीं है.

वहीं, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने भी पिछले हफ्ते कानून के खिलाफ शीर्ष अदालत का रुख किया था. आईपीसी की धारा 124 ए (राजद्रोह) गैर जमानती कानून है, जो भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के खिलाफ किसी भी नफरत या मानहानि वाले भाषण या अभिव्यक्ति को आपराधिक दंड निर्धारित करता है. इसके तहत अधिकतम आजीवन कारावास की सजा हो सकती है.

शौरी ने अपनी याचिका में अदालत से कानून को असंवैधानिक घोषित करने का आग्रह किया, क्योंकि इसका भारी दुरुपयोग हुआ है. साथ ही नागरिकों के खिलाफ बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग करने के लिए मामले दायर किए जा रहे हैं.

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट 15 जुलाई को एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया तथा एक पूर्व मेजर जनरल की याचिकाओं पर सुनवाई के लिए तैयार हो गया था, जिन्होंने कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी थी.

सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह संबंधी ‘औपनिवेशिक काल’ के दंडात्मक कानून के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त हुए केंद्र से पूछा था कि वह स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए महात्मा गांधी जैसे लोगों को चुप कराने के लिए अंग्रेजों द्वारा इस्तेमाल किए गए प्रावधान को निरस्त क्यों नहीं कर रहा है, जबकि अन्य पुराने कानूनों को समाप्त कर रही है.

सीजेआई एनवी रमना की पीठ ने कहा था, ‘श्रीमान अटॉर्नी (जनरल), हम कुछ सवाल करना चाहते हैं. यह औपनिवेशिक काल का कानून है और ब्रितानी शासनकाल में स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के लिए इसी कानून का इस्तेमाल किया गया था. ब्रितानियों ने महात्मा गांधी, गोखले और अन्य को चुप कराने के लिए इसका इस्तेमाल किया था. क्या आजादी के 75 साल बाद भी इसे कानून बनाए रखना आवश्यक है?’

इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने बीते मई महीने में कहा था कि वह विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया के अधिकारों के संदर्भ में राजद्रोह कानून की व्याख्या की समीक्षा करेगा.

केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह कानून के तहत कुल 326 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से महज छह लोगों को सजा दी गई है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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