प्रेमचंद के विचारों की प्रासंगिकता समझने के लिए उनका पुनर्पाठ ज़रूरी है

विशेष: हर रचनाकार और उसकी रचना अपना पुनर्पाठ मांगती है. इस कड़ी में 'ईदगाह' को दोबारा पढ़ते हुए प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थ के चित्रण की सूक्ष्मता, अर्थ के व्यापक और विविध स्तरों को समझ पाने की एक नई दृष्टि मिलती है.

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प्रेमचंद. (जन्म: 31 जुलाई 1880 – अवसान: 08 अक्टूबर 1936) (फोटो साभार: रेख्ता डॉट ओआरजी)

विशेष: हर रचनाकार और उसकी रचना अपना पुनर्पाठ मांगती है. इस कड़ी में ‘ईदगाह’ को दोबारा पढ़ते हुए प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थ के चित्रण की सूक्ष्मता, अर्थ के व्यापक और विविध स्तरों को समझ पाने की एक नई दृष्टि मिलती है.

प्रेमचंद. (जन्म: 31 जुलाई 1880 – अवसान: 08 अक्टूबर 1936) (फोटो साभार: रेख्ता डॉट ओआरजी)

मुंशी प्रेमचंद को उनके जन्म के इतने साल बाद भी याद करने की आवश्यकता पर तो हमने विचार किया है  उनके विचारों की प्रासंगिकता को नए परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए जरूरी है कि हम उनकी कालजयी कहानियों का भी पुनर्पाठ करें, उनमें से आज के लिए प्रेरणा ग्रहण करें, मानवता के लिए संदेश लेते रहें.

प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ईदगाह को सबसे पहले शायद हम सबने बहुत बचपन में पढ़ा था. उस उम्र में यह कहानी समझ नहीं आई थी. सिवाय इसके कि कहानी में ईदगाह जाने की बात थी, हामिद ने चिमटा खरीदा था, और उसके दोस्त बड़े बदमाश थे. कहानी का अंत जो प्रेमचंद की कथा-शैली की अपनी विशिष्टता है, वह तो बहुत बाद में जाकर पढ़ने पर भी समझ नहीं आया था.

मतलब, बुढ़िया अमीना कैसे बालिका अमीना बन गई और बच्चे हामिद ने कैसे बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था, वह एक रहस्य ही बना रहा. बहरहाल, समय और उम्र के अलग-अलग पड़ावों पर इस कहानी को पढ़ा और प्रेमचंद की यह संभावनाशील कहानी अपने अर्थ के विभिन्न स्तरों पर भी हमेशा खुलती चली गई.

ईदगाह, सबसे पहले हिन्दी में ‘चांद’ और उर्दू में ‘अस्मत’ में सन 1933 में प्रकाशित हुई थी. इसमें पात्र कम ही हैं, और उसमें भी अधिकांश बाल पात्र हैं. एक तरफ हामिद और उसकी दादी अमीना हैं, तो वहीं हामिद के मित्र मोहसिन, नूरा, महमूद, और सम्मी हैं.

कहानी की कथा-वस्तु सरल है. ईद का त्योहार आया है, और एक छोटे से गांव में ग्रामीणों की ईदगाह जाने की तैयारियां चल रही हैं. गांव के बच्चों में ईदगाह जाने का विशेष उत्साह है, क्योंकि तीन कोस दूर स्थित शहर के ईदगाह में जाने का आकर्षण, मेले-ठेले की रौनक, खिलौनों और मिठाइयों का लोभ उन्हें उन्मत्त बनाए हुए है.

हामिद, बिन मां-बाप की संतान, अपनी बूढ़ी दादी अमीना के साथ निहायत तंगहाली में रहता है, पर तब भी गरीबी, उसके आशा और स्वप्नों की दुनिया का बाल बांका नहीं कर पाती क्योंकि उसे विश्वास है कि अल्लाह के घर से उसके अब्बा मियां और अम्मा, ढेर सारे तोहफे और खिलौने लेकर एक दिन ज़रूर आएंगे. ऐसा लगता है, बाल मन की संवेदनशीलता और सरल विश्वास का, हामिद के रूप में प्रेमचंद ने मानवीकरण ही कर दिया है.

मेले में जाने के लिए हामिद के पास मात्र तीन आने हैं, जिसे वह अपने बाकी दोस्तों की तरह झूलों के चक्कर खाने और मिठाइयों पर नहीं खर्च कर सकता. मेले में सभी दोस्त मिट्टी के खिलौने खरीदते हैं, रेवड़ियां-गुलाब जामुन खाते हैं, पर अपनी तीन आने की कुल जमा-पूंजी से हामिद अपनी दादी के लिए लोहे का चिमटा खरीद कर आता है. चिमटा देखकर अमीना पहले तो क्रोध करती है कि अपने खेलने-खाने के पैसों से वह चिमटा ले आया, पर अपने पांच साल के पोते, अपने एक मात्र सहारे की संवेदनशीलता पर उसका क्रोध, एक ऐसे स्नेह में बदल जाता है जहां वह बच्ची की तरह फूट-फूट कर रोने लगती है और हामिद को अशेष दुआएं देती है.

कहानी बस इतनी ही है, पर जिस कुशलता से प्रेमचंद इसे लिखते हैं, वह अर्थ के इतने जटिल स्तरों को पाठक के सामने रखती है कि ईदगाह सामाजिक यथार्थ की कहानी बन जाती है.

बाल मनोविज्ञान की अप्रतिम कहानी के रूप में स्वीकृत ईदगाह को पढ़ते हुए कुछ चीज़ें जो हमेशा से आकर्षित करती रहीं, वह थीं- कि कैसे प्रेमचंद ने ईद के त्योहार में ईदगाह जाने की प्रक्रिया को धर्म विशेष की एक रूढ़ प्रक्रिया से उठाकर एक सांस्कृतिक प्रक्रिया बना दिया है. ईद यहां किसी धर्म के त्योहार की तरह नहीं बल्कि, एक समाज और संस्कृति-विशेष की प्रतिनिधि बनकर आती है.

ईद की पूरी पृष्ठभूमि का प्रयोग प्रेमचंद ने यहां अल्पसंख्यकों को ‘दूसरा’ दर्जा देने की प्रक्रिया में नहीं किया है, बल्कि एक समुदाय-विशेष की रोज़मर्रा की ज़िंदगी, उनके दुख-सुख, उनके अपने अनुभव-विश्वास, इन सब को हमारे समान सामाजिक-सामूहिक संदर्भों और अनुभवों के हिस्से के रूप में दिखलाया है. इसलिए, ईद यहां सिर्फ खुशी और जश्न मनाने या रमज़ान के तीस रोज़ों के प्रतिफल के रूप में नहीं बल्कि एक पूरी संस्कृति को रेखांकित करने के लिए बस एक ‘प्रॉप’ (Prop) के रूप में दिखलाई गई है.

कहानी की ग्रामीण पृष्ठभूमि में स्थित पात्र मूलतः निम्न वर्ग के हैं, और उनमें भी आनुपातिक रूप से धन, पहुंच की कई सारी श्रेणियां हैं. हामिद और उसकी दादी सबसे अधिक विपन्न हैं, कारण कि घर का कमाने वाला आबिद (हामिद का पिता ) पिछले साल हैजे की भेंट चढ़ चुका है और हामिद की मां भी किसी अदृश्य बीमारी को दिल-ही-दिल में सहती रही और जब न सह सकी तो चुपचाप दुनिया से विदा हो गई.

घर की हालत खस्ताहाल है, क्योंकि जो जवान थे, जिनके मेहनत से घर में खुशहाली आती, वो नहीं हैं, और घर बना है तो बस वृदधा अमीना और पांच साल के बालक हामिद से. ईद इसलिए इस घर के लिए खुशी के तौर पर नहीं आती. अमीना कहती है ‘किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं।’

पर सिर्फ उसी की यह स्थिति हो, ऐसा नहीं है. आस-पास के घर भी, उनके लोग भी, अपनी-अपनी विपन्नता में बदस्तूर बने हुए हैं, और उन्हें भी ईद पर सामान जुटाने के लिए ‘चौधरी कायम अली’ के घर के चक्कर लगाने की जरूरत है. कहने का तात्पर्य कि, इस ग़रीबी में त्योहार भी एक हद तक धन और अर्थ की जादूगरी पर टिके हुए हैं.

ईदगाह को इस दृष्टि से देखा जाए तो यह वर्ग-विभाजन की ज़बरदस्त कहानी है. छोटी-छोटी घटनाओं से ग्रामीण समाज की असमानता को प्रेमचंद ने बिना किसी जवाबी जुमलों के दिखला दिया है. शहर और गांव की संपन्नता और सुविधाजीविता में अंतर की चर्चा तो कोई नई बात नहीं है, पर एक छोटे से गांव में कितनी बदहाली, कितनी तंगी हो सकती है, वह प्रेमचंद अपने चित्रण से जीवंत कर देते हैं.

मसलन, कुर्ते के बटन टांकने के लिए सुई-तागा भी पड़ोस के घर से लाया जा रहा है, सेवइयां बनाने के लिए भी चीज़ें जुटाने की मशक्कत है, चौधरी के खेतों में घुसती हुई गायों को पकड़ने के लिए जी-जान लगा कर दौड़ने की अम्मा की मजबूरी है, और वहीं अंधकार और निराशा में डूबती अमीना भी है. हर एक ब्यौरा सिर्फ वर्णन नहीं है, बल्कि एक पूरे समुदाय-विशेष की मुख्यधारा और विकास से पीढ़ियों से कटे रह जाने की विडबंना है.

और जैसा कि प्रेमचंद लिखते हैं ‘वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायम अली के घर दौड़े जा रहे हैं. उन्हें क्या खबर कि चौधरी आंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए’, यह वर्ग-विभाजन पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने आप को पालता-पोषता चला आ रहा है.
अपने जिस सीधे-सरल विश्वास और सहजता से ये बच्चे आपस में बात करते हैं, वह यह भी दिखलाता है कि कैसे इनकी अवधारणाएं इनके बड़ों के सोच से विकसित हुई है. जिस तरह से इनके बड़े-बुजुर्ग सोचते हैं, उन्हीं को अपनी दृष्टि, अपनी बाल-कल्पना से नया करके ये बच्चे दुनिया को देखते हैं.

मसलन, इस कल्पना लोक में वो सारे जिन्नात हैं जो संपन्न वर्ग के क़ाबू में रहते हैं, और इसलिए क़ायम अली की संपन्नता की वजह भी ये जिन्नात ही हैं-

‘लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं. कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें. जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था. तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए. चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला. जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं. अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है.’

इसी तरह प्रशासन और जनता के सेवकों पर भी प्रेमचंद की टिप्पणी इतने सालों बाद भी सटीक बैठती है. मोहसिन की कही गई बात आज का भी यथार्थ है: ‘यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो, अजी हजरत, यह चोरी करते हैं. शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं. रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’ पुकारते हैं. तभी इन लोगों के पास इतने रुपये आते हैं. मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हैं. बीस रुपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रुपये घर भेजते हैं.’

यह भ्रष्टाचार, व्यवस्था का ऐसा आपराधिकरण आज भी जारी है और कई-कई गुना ज़्यादा. इस तरह से ईदगाह के दिनों में जो बीज था, वही आज विशाल वृक्ष बना हुआ पूरे गगन पर फैलता जा रहा है.

लिखने की दृष्टि से अगर ईदगाह की शैली पर विचार करें तो, सही माने में पूरी कहानी एक व्यंग्य है. और खासियत तो यह है कि व्यंग्य की यह शैली एकदम आरोपित या ज़बरदस्ती नहीं लगती.

प्रेमचंद हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल की तरह के घोषित व्यंग्यकार नहीं रहे हैं, पर सामाजिक यथार्थ प्रायः हर युग ही में इतना कड़वा रहा है कि एक संवेदनशील मन अपनी बेबसी में, उसकी कठोरता को सिर्फ व्यंग्य से ही झेल सकता है. प्रेमचंद भी मानो व्यथित होकर ही, वस्तु-स्थितियों को, सामाजिक-विडबंना को दिखलाने के लिए व्यंग्य का सहारा लेते हैं.

कहानी का अंतिम हिस्सा जहां हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना को चिमटा देता है, और उसकी प्रतिक्रिया जिस तरह से प्रेमचंद दर्ज़ करते हैं, वह मनुष्य के अंतरतम की अनुभूति को उभरने वाला है. इतने छोटे-से बच्चे के ऐसे संवेदनशील कृत्य को बुढ़िया दादी एकबारगी समझ नहीं पाती, पर जब समझती है तो, कई सारे अनुभवों को एक साथ महसूस कर पाने की स्थिति में रोने लगती है.

उसे यह एहसास होता है कि किस तरह इतने छोटे बच्चे ने मेले में अपने मन को ज़ब्त किया होगा, मिठाइयों पर इसका भी तो दिल ललचाया होगा, खिलौने लेने की विकलता इसे भी तो हुई होगी, पर इन सबसे ऊपर उठकर वह चिमटा खरीद कर लाया था. वह भी सिर्फ इसीलिए कि बूढ़ी दादी का हाथ रोटियां सेंकते हुए न जले. हामिद ने तो वाकई ही बूढ़े हामिद जैसा काम किया था, क्योंकि इतनी संवेदनशीलता, पर-पीड़ा को महसूसने की क्षमता तो किसी बच्चे में नहीं हो सकती.

हर रचनाकार और उसकी रचना अपना पुनर्पाठ मांगती है. ईदगाह को एक बार फिर पढ़ते हुए प्रेमचंद के सामाजिक यथार्थ के चित्रण में जितनी सूक्ष्मता है, अर्थ के जितने व्यापक और विविध स्तर हैं उन्हें समझ पाने की एक नई दृष्टि मिलती है. और कथा सम्राट प्रेमचंद को उनकी 141वीं वर्षगांठ पर याद करने का एक बहाना भी.

(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)

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