संसद में उचित प्रतिनिधित्व के लिए महिलाओं का संघर्ष आज़ादी के 75 साल बाद भी जारी: कार्यकर्ता

महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और सांसदों ने लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने के लिए विचार-विमर्श किया. लंबित विधेयक में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सभी सीटों का एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है. राज्यसभा ने 2010 में विधेयक पारित किया, लेकिन लोकसभा में विधेयक पर कभी मतदान नहीं हुआ.

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New Delhi: Monsoon clouds hover over the Parliament House, in New Delhi on Monday, July 23, 2018.(PTI Photo/Atul Yadav) (PTI7_23_2018_000111B)
(फोटो: पीटीआई)

महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और सांसदों ने लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने के लिए विचार-विमर्श किया. लंबित विधेयक में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सभी सीटों का एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है. राज्यसभा ने 2010 में विधेयक पारित किया, लेकिन लोकसभा में विधेयक पर कभी मतदान नहीं हुआ.

New Delhi: Monsoon clouds hover over the Parliament House, in New Delhi on Monday, July 23, 2018.(PTI Photo/Atul Yadav) (PTI7_23_2018_000111B)
(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और सांसदों ने लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने के लिए बृहस्पतिवार को विचार-विमर्श किया, जिसमें कहा गया कि आजादी के 75 साल बाद भी महिलाएं संसद में उचित प्रतिनिधित्व पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं.

तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सांसद महुआ मोइत्रा ने महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करते हुए कहा कि महिलाओं को चुनावी राजनीति और संगठनात्मक राजनीतिक स्तर पर प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए.

लंबित विधेयक में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में सभी सीटों का एक तिहाई हिस्सा महिलाओं के लिए आरक्षित करने का प्रावधान है. राज्यसभा ने 2010 में विधेयक पारित किया, लेकिन लोकसभा में विधेयक पर कभी मतदान नहीं हुआ और यह अभी भी लंबित है.

महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने विधेयक को पारित कराने के वास्ते ‘टूलकिट’ तैयार करने के लिए लोक विमर्श किया, और कहा कि आजादी के 75 साल बाद भी महिलाएं लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में उचित प्रतिनिधित्व पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं.

टीएमसी सांसद मोइत्रा ने कहा कि ऐसा लगता है कि इसके लिए कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है.

मोइत्रा ने कहा, ‘पार्टियों को भारी बहुमत मिल चुके हैं, लेकिन कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), इस विधेयक पर कोई आम सहमति नहीं बन पाई है, जैसा कि हाल में संसद में ओबीसी विधेयक के दौरान हुआ था. वास्तव में हमें सही काम करने के लिए किसी विधेयक की जरूरत नहीं है. टीएमसी और बीजू जनता दल (बीजद) ने ऐसा करने के लिए किसी विधेयक का इंतजार नहीं किया. महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के लिए हमें किसी विधेयक की जरूरत नहीं है.’

टीएमसी सांसद ने कहा, ‘हर पार्टी में यह कहने की क्षमता है कि हम महिलाओं को टिकट देने जा रहे हैं. महिलाओं को चुनावी राजनीति में होना चाहिए, लेकिन संगठनात्मक राजनीतिक स्तर पर भी होना चाहिए और यहीं पर सभी राजनीतिक दलों को एक साथ काम करना होता है. आरक्षण का मतलब भाई-भतीजावाद से दूर जाना भी है.’

मजदूर किसान शक्ति संगठन की संस्थापक सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय ने कहा कि यह ‘हास्यास्पद’ है कि देश की आबादी का 50 प्रतिशत होने के बावजूद, संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व इतना कम है.

रॉय ने कहा, ‘हमारी यात्रा अस्थिर रही है और हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि 75वीं वर्षगांठ पर हमें आरक्षण अवश्य मिले. हमें यह सोचने की जरूरत है कि हम विधेयक से क्या चाहते हैं और इसलिए इस ‘टूलकिट’ को बनाने की जरूरत है. हमें इस बात की बहुत चिंता है कि यह विधेयक पास क्यों नहीं हुआ. हमारा इतना योगदान है फिर हमें मान्यता क्यों नहीं दी जा रही है.’

‘गिल्ड ऑफ सर्विस’ और राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रह चुकीं मोहिनी गिरि ने कहा कि महिलाओं की आवाज को सुनना होगा.

उन्होंने कहा, ‘जब तक हमें समान अधिकार नहीं दिए जाते, तब तक हमारी आवाज कौन सुनेगा. मेरा मानना है कि अब समय आ गया है कि इसे आरक्षण न कहा जाए, बल्कि हमें कहना चाहिए कि 75 साल में हम संसद में 75 फीसदी भी क्यों नहीं हैं और इतनी ऊंची भागीदारी के बावजूद पुरुषों ने क्या हासिल किया?’

समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, गिरि ने कहा, ‘महिला समूहों को जीवन के सभी क्षेत्रों की महिलाओं को शामिल करते हुए सामूहिक बैठकें बुलानी चाहिए. हमें मजबूत महिला समूह बनाने का निर्णय लेना चाहिए. जब हमने आरक्षण की मांग की तो कुछ लोगों ने इसका विरोध किया, हमें उन विरोधों पर चर्चा करनी चाहिए और संसद में जो कहा गया है, हमें उसका भी विश्लेषण करना चाहिए, ताकि उनके विरोध का जवाब दिया जा सके.’

ऑल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच की राष्ट्रीय संयोजक विमल थोराट ने कहा कि महिलाएं वर्षों से संघर्ष कर रही हैं और इस संघर्ष को किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए.

थोराट ने जोर देकर कहा, ‘डॉ. बीआर आंबेडकर ने कहा है कि जब तक महिलाएं प्रगति नहीं करतीं, तब तक कोई देश प्रगति नहीं कर सकता है और यह आज भी सच है. सभी महिलाओं की भूमिका तय होनी चाहिए चाहे वे मुस्लिम हों, दलित आदिवासी हों और उनके सभी योगदान को स्वीकार किया जाना चाहिए. तभी सरकार इसे स्वीकार कर सकती है. हमारे पास एक आवाज होनी चाहिए.’

वहीं, सामाजिक और महिला अधिकार कार्यकर्ता सैयदा हमीद ने कहा कि विधेयक का नाम बदला जाना चाहिए, ताकि इसका प्रभाव बढ़े.

उन्होंने कहा, ‘सोशल मीडिया पर हमें यह पेश करना चाहिए कि हम राजनीतिक दलों के रुख को कैसे पेश कर सकते हैं.’

बता दें कि बीते 26 जुलाई को केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के जंतर-मंतर में हुए महिला किसानों के ‘किसान संसद’ में दो प्रस्ताव पारित किए गए, जिनमें से एक में- संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत प्रतिनिधित्व मांग की गई थी.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)