कोर्ट द्वारा सूचना आयोग के फ़ैसलों पर रोक लगाना आरटीआई के लिए ख़तरनाक: पूर्व सूचना आयुक्त

पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गांधी ने कहा कि आरटीआई क़ानून में स्पष्ट रूप से लिखा है कि सूचना आयोग के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ कोई अपील दायर नहीं की जा सकती है, इसके बावजूद विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा कई महत्वपूर्ण निर्णयों पर रोक लगाई जा रही है.

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(फोटो साभार: cic.gov.in)

पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गांधी ने कहा कि आरटीआई क़ानून में स्पष्ट रूप से लिखा है कि सूचना आयोग के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ कोई अपील दायर नहीं की जा सकती है, इसके बावजूद विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा कई महत्वपूर्ण निर्णयों पर रोक लगाई जा रही है.

(फोटो साभार: cic.gov.in)

नई दिल्ली: पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त और जाने-माने आरटीआई कार्यकर्ता शैलेष गांधी ने विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा केंद्रीय सूचना आयुक्तों के फैसलों पर रोक लगाने को लेकर गहरी चिंता जाहिर की है.

उन्होंने कहा है कि सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून में स्पष्ट रूप से लिखा है कि सूचना आयोग के फैसलों के खिलाफ कोई अपील दायर नहीं की जा सकती है, इसके बावजूद कई महत्वपूर्ण फैसलों पर रोक लगाई जा रही है.

इस मामले को लेकर गांधी समेत 15 पूर्व सूचना आयुक्तों ने पिछले महीने भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना को पत्र लिखा था और हाईकोर्ट द्वारा रिट क्षेत्राधिकार के दुरुपयोग को रोकने की मांग की थी.

उन्होंने कहा, ‘मेरा दृढ़ विश्वास है कि अधिकांश कानूनी फैसलों को बिना तर्क के नहीं रोका जाना चाहिए. लेकिन जब आरटीआई एक्ट का मामला आता है तो आयुक्तों के कई फैसलों पर न्यायालयों द्वारा रोक लगा दी जाती है. और फिर इसमें 5-10-15 साल का समय लग जाता है. एक आम आदमी इतनी लंबी लड़ाई नहीं लड़ सकता है.’

शैलेष गांधी ने कहा कि ऐसा इसलिए किया जा रहा है क्योंकि सरकारी विभाग आमतौर पर जानकारी नहीं देना चाहते हैं, इसलिए वे कोर्ट चले जाते हैं और फैसले पर रोक (स्टे) लगाने की मांग करते हैं. ऐसे हजारों मामले हैं जिन पर रोक लगाई गई है.

पूर्व सूचना आयुक्त ने कहा कि ये ज्यादा चिंताजनक इसलिए क्योंकि कानून का उल्लंघन करते हुए ऐसे स्टे लगाए जाते हैं.

उन्होंने कहा, ‘आरटीआई एक्ट में स्पष्ट रूप से लिखा है कि आरटीआई मामलों पर सूचना आयोग द्वारा दिए गए फैसलों के खिलाफ कोई अपील दायर नहीं की जा सकेगी. इसका मतलब ये हुआ कि कानून के अनुसार कोई भी कोर्ट सूचना आयुक्तों के फैसलों के खिलाफ अपील की सुनवाई नहीं कर सकते हैं.’

गांधी ने आगे कहा, ‘चूंकि उच्च न्यायालयों के पास रिट क्षेत्राधिकार होता है, मतलब यहां पर रिट याचिकाएं दायर की जा सकती हैं. लेकिन इस अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में परिभाषित किया है. एक फैसले में तो शीर्ष अदालत ने यह भी कहा है कि किसी भी गलत निर्णय को रिट क्षेत्राधिकार के तहत ठीक नहीं किया जा सकता है.’

उन्होंने कहा कि इसलिए रिट याचिकाओं के आधार पर सूचना आयोग के फैसलों पर रोक लगाना उचित नहीं है.

आरटीआई एक्ट की धारा 23 में लिखा है, ‘कोई न्यायालय, इस अधिनियम के अधीन किए गए किसी आदेश के संबंध में कोई वाद, आवेदन या अन्य कार्यवाही ग्रहण नहीं करेगा और ऐसे किसी आदेश को, इस अधिनियम के अधीन किसी अपील के रूप के सिवाय किसी रूप में प्रश्नगत नहीं किया जाएगा.’

पूर्व सूचना आयुक्त ने कहा कि इस तरह संसद ने स्पष्ट रूप से अपनी मंशा जाहिर की थी कि आरटीआई एक्ट के तहत अंतिम अपील सिर्फ सूचना आयोग में होनी चाहिए. लेकिन इसका उल्लंघन कर फैसलों पर रोक लगाई जा रही है, जो आरटीआई एक्ट के लिए काफी खतरनाक है.

गांधी ने कहा कि रिट याचिका के नाम पर हाईकोर्ट में अपीलें दायर की जा रही हैं.

उन्होंने कहा, ‘किसी फैसले पर रोक लगाते हुए न्यायालय को अपना दिमाग लगाना चाहिए और ये देखना चाहिए कि क्या संबंधित मामला रिट याचिका के दायरे में आता भी है या नहीं. जब मैं सूचना आयुक्त था, तो मैंने देखा था कि आयोग के आदेश पर रोक लगाने के लिए याचिकाएं दायर की जाती थीं. कई जगह पर वकील उसे ‘अपील’ लिखकर लाते थे, लेकिन बाद में उस शब्द पर वाइटनर लगाकर उसे ‘रिट’ बना दिया जाता था. कोर्ट भी ये पता होता है कि इनमें से ज्यादातर याचिकाएं अपील हैं.’

उन्होंने कहा कि आलम ये है कि दंड आदेशों पर भी रोक लगा दी जाती है, जो किसी भी तरह से रिट क्षेत्राधिकार में नहीं आता है.

शैलेष गांधी ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले हैं जो कहते हैं कि प्रशासनिक आदेश सहित किसी भी आदेश के लिए तर्क दिए जाने चाहिए. इसलिए जब वे एक कानूनी आदेश पर रोक लगा रहे हैं, तो उन्हें इसका कारण बताना चाहिए कि यह रिट के अधिकार क्षेत्र में कैसे आता है.’

पूर्व सूचना आयुक्तों की चिंता का एक वजह यह भी है कि कानून के अनुसार रोक लगाने अवधि का उल्लंघन किया जा रहा था.

उन्होंने कहा, ‘संवैधानिक प्रावधान 226 (3) के अनुसार यदि दूसरे पक्ष को सुने बिना स्टे दिया जाता है, तो 15 दिनों के भीतर मामले को अदालत द्वारा सुलझाया जाना चाहिए. और अगर इसका निपटारा नहीं होता है तो स्थगन अपने आप खत्म हो जाता है. कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला भी आया था जिसमें कहा गया था कि स्थगन केवल छह महीने की अवधि के लिए हो सकता है. लेकिन इन कानूनों और प्रावधानों को लागू नहीं किया जा रहा है.’

मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना को भेजे गए पत्र ने इन सभी चिंताओं का उल्लेख किया गया है.

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