हैदराबाद एनकाउंटरः आयोग की जांच में सामने आए पुलिस की ग़लतबयानी और झूठ

हैदराबाद में महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के सभी चारों आरोपियों की पुलिस एनकाउंटर में मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक जांच आयोग का गठन किया था. इस आयोग ने तेलंगाना के तत्कालीन पुलिस आयुक्त सज्जनार और अन्य पुलिस अधिकारियों से इस मुठभेड़ को लेकर सवाल पूछे थे, जिसके बाद मामले के वे तथ्य धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं, जिन्हें शुरुआत में पुलिस ने दबा दिया था.

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साइबराबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त वीसी सज्जनार (फोटोः पीटीआई)

हैदराबाद में महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के सभी चारों आरोपियों की पुलिस एनकाउंटर में मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक जांच आयोग का गठन किया था. इस आयोग ने तेलंगाना के तत्कालीन पुलिस आयुक्त सज्जनार और अन्य पुलिस अधिकारियों से इस मुठभेड़ को लेकर सवाल पूछे थे, जिसके बाद मामले के वे तथ्य धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं, जिन्हें शुरुआत में पुलिस ने दबा दिया था.

साइबराबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त वीसी सज्जनार (फोटोः पीटीआई)

नई दिल्लीः तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या मामले में छह दिसंबर 2019 को चारों आरोपियों की मौत के बाद देशभर की मीडिया ने साइबराबाद के तत्कालीन पुलिस आयुक्त वीसी सज्जनार की प्रेस कॉन्फ्रेंस का प्रसारण किया था.

इस कॉन्फ्रेंस में तत्कालीन पुलिस आयुक्त ने अपराध के ग्राफिक सीक्वेंस का ब्योरा देते हुए पुलिस एनकाउंटर में चारों आरोपियों के मारे जाने का दावा किया था. पुलिस का दावा था कि सभी आरोपी भागने की कोशिश कर रहे थे और पुलिस फायरिंग में मारे गए, जिसे लेकर लोगों ने उनकी सराहना की.

लेकिन चारों आरोपियों की मौत के ठीक दो साल बाद इस मामले के वे तथ्य धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं, जिन्हें शुरुआत में पुलिस ने दबा दिया था.

जांच आयोग ने पुलिस एनकाउंटर के आधिकारिक नैरेटिव को खारिज कर दिया है, जिसके बाद मामले में पुलिस के एक के बाद एक झूठ सामने आ रहे हैं.

आयोग ने 11-12 अक्टूबर को तत्कालीन पुलिस आयुक्त सज्जनार से 160 सवाल पूछे और उनके झूठ को दर्ज किया. इन्हीं झूठ को अब तक गलतियों के रूप में परिभाषित किया गया था.

हथियारों और गोला-बारूद का कोई रिकॉर्ड नहीं

आयोग ने जांच की शुरुआत सज्जार से पूछताछ के साथ की, जिस दौरान उनसे आरोपियों के एनकाउंटर में शामिल स्पशेल ऑपरेशन्स टीम (एसओटी) के गठन और उसकी निगरानी को लेकर सवाल पूछे गए.

हालांकि, सरकार के 2004 के आदेश में यह स्पष्ट है कि किस तरह से एसओटी का गठन किया जाता है, उनकी निगरानी और वे किसे रिपोर्ट करते हैं, इसके बारे में स्पष्ट ब्योरा है लेकिन फिर भी सज्जनार ने असफल तरीके से यह कहा कि इस टीम ने उन्हें रिपोर्ट नहीं किया बल्कि उनसे जूनियर अधिकारियों को रिपोर्ट किया था.

पुलिस मैनुअल के मुताबिक, सिर्फ उनकी मंजूरी के बाद ही टीम को हथियार उपलब्ध कराए जाते हैं. हथियारों और गोला-बारूद का एक अलग रजिस्टर बनाया जाना चाहिए जिसमें हथियार देने का मकसद, इसकी समयावधि और हथियार जारी करने की तारीख दर्ज होनी चाहिए लेकिन इस मामले में थानों में हथियारों के रजिस्टर में गोली चलाने वाले पुलिसकर्मियों को हथियार जारी करने की कोई एंट्री नहीं है.

इस पर उन्होंने कहा था कि इसके लिए उन्हें उस अधिकारी से सवाल पूछने चाहिए जो इस तरह के रजिस्टर को तैयार करता है, यह उनकी जिम्मेदारी नहीं है.

मामले की निगरानी

तत्कालीन पुलिस आयुक्त सज्जनार ने महिला डॉक्टर की मौत की जांच के लिए नौ टीमों का गठन किया था और उन्हें समय-समय पर केस की स्टेटस रिपोर्ट देने का निर्देश दिया था.

हालांकि, उन्होंने जांच की निगरानी से इनकार करते हुए दावा किया था कि उनकी भूमिका जूनियर अधिकारियों से नियमित ब्रीफिंग लेने तक सीमित थी. वह इससे सहमत नहीं थे कि वह निजी तौर पर मामले में एसओटी के सदस्यों को पहचानते हैं.

लेकिन उनके 30 नवंबर 2019 के मेमो से पता चलता है कि उन्हें आरोपियों की कस्टोडियल जांच के दौरान शादनगर के एसीपी का सहयोग करने और सुरक्षा कै लिए मुस्तैद किया गया था.

यह भी पता चला कि उन्होंने (सज्जनार) ने आरोपियों को घटनास्थल (फायरिंग) पर ले जाने के लिए विशेष वाहन का भी समर्थन किया था. इसके साथ ही उन्होंने एस्कॉर्ट पुलिस को छह बड़े हथियार मुहैया कराने की मंजूरी दी थी.

उन्होंने आयोग को यह बताया कि एके-47 और एसएलआर जैसे बड़े हथियार पुलिस को मुहैया कराए गए थे लेकिन वे बलात्कार और हत्या का ऐसा कोई और मामला नहीं बता पाए जिसमें उन्होंने पहले भी इस तरह पुलिसकर्मियों को हथियार मुहैया कराए.

इकबालिया बयान के आधार पर प्रेस बयान

तत्कालीन पुलिस आयुक्त ने 29 नवंबर को प्रेस को आरोपियों द्वारा कथित तौर पर किए गए अपराध का ग्राफिक ब्योरा दिया लेकिन आयोग के समक्ष यह स्वीकार किया कि यह पूरी तरह से डीसीपी की ब्रीफिंग पर आधारित था.

उन्होंने शाम सात बजे प्रेस को संबोधित किया था और केस डायरी के अनुसार आरोपी ने रात 10 बजे तक अपना इकबालिया बयान पूरा दर्ज कराया. उन्होंने (तत्कालीन आयुक्त) प्रेस को संबोधित करने से पहले आरोपी का कबूलनामा पढ़ा तक नहीं.

उन्होंने फिर दावा किया कि उनके प्रेस बयान सीसीटीवी फुटेज और इकट्ठा किए गए अन्य वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित थे लेकिन उनका यह ब्योरा कि आरोपियों ने पीड़िता के मुंह में कपड़ा ठूंस दिया था, सीसीटीवी फुटेज के आधार पर नहीं हो सकता.

पीड़िता के अंडरगारमेंट्स, पर्स और कार्ड की बरादमगी के वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है. परिणामस्वरूप उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि उनकी प्रेस मीटिंग से पहले कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं थे.

क्या उन्होंने यह नहीं सोचा था कि न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आरोपियों को पेश करने से पहले प्रेस के समक्ष आरोपियों की गिरफ्तारी और उनके इकबालिया बयान को उजागर करना उचित नहीं है. जैसा कि उन्होंने दावा किया कि उनकी मंशा जनता से जानकारी हासिल करना था तो आरोपियों के बयानों को उजागर करने की जरूरत कहां महसूस हुई.

उन्होंने दावा कि प्रेस कॉन्फ्रेंस अचानक बुलाई गई लेकिन आयोग ने अपनी विस्तृत पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन में आरोपियों की तस्वीरों और अन्य जानकारियों के साथ कहा है, इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को डीसीपी द्वारा बुलाया गया था.

उन्होंने अकेले ही प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया लेकिन इस अवसर पर जारी किए गए लिखित प्रेस बयान की कोई जानकारी नहीं थी.

उन्होंने सहमति जताई कि प्रेस कॉन्फ्रेंस पहले आरोपी के इकबालिया बयान पर आधारित थी क्योंकि अन्य तीन आरोपियों के बयान दर्ज नहीं किए गए थे.

स्पेशल ऑपरेशन्स टीम

उन्होंने यह दावा करने की कोशिश की कि उन्होंने विशेष ऑपरेशन्स टीम (एसओटी) का गठन नहीं किया है और यह टीम उन्हें रिपोर्ट नहीं करती लेकिन उनके मेमो से यह पता नहीं चलता कि इस टीम को किसी अन्य द्वारा गठित किया गया था.

उनका यह दावा कि आरोपियों पर फायरिंग करने में शामिल एसओटी डीसीपी को रिपोर्ट करती थी लेकिन आयोग के वकील ने कई तरीकों से उनके इस दावे को खारिज किया है.

सबसे पहले उन्होंने दावा किया कि उन्होंने टीम को आरोपियों को गेस्ट हाउस में रखने की अनुमति नहीं दी और उन्हें आगे की पूछताछ के बारे में सूचित नहीं किया गया.

उनके इन दावों को जांच में शामिल अन्य पुलिसकर्मियों के बयानों के जरिये स्पष्ट रूप से खारिज किया गया.

नियमों का उल्लंघन

सज्जनार ने दावा किया कि उन्हें छह दिसंबर को ही पता चला कि आरोपियों को फायरिंग (घटनास्थल) की जगह ले जाया गया था. वे घटनास्थल पर सुबह 8.30 बजे पहुंचे थे और वहां जांचकर्ता अधिकारी एसीपी सुरेंद्र के साथ दो से तीन मिनट रुके थे लेकिन उनसे कोई बातचीत नहीं की थी. वह मौके पर डेढ़ घंटे रुके थे लेकिन शवों के पोस्टमार्टम को लेकर पुलिस को कोई निर्देश नहीं दिए थे.

यह पूछे जाने पर कि उन्होंने अपने अधिकारियों को निर्देश क्यों नहीं दिए कि वे शवों को शिफ्ट करने से पहले न्यायिक मजिस्ट्रेट के आने का इंतजार करें. इस पर उन्होंने कहा था कि तेलंगाना में एनएचआरसी के दिशानिर्देशों के अनुरूप कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा जांच की गई थी.

फौरी प्रेस कॉन्फ्रेंस और खराब तरीके से गढ़े गए झूठ

तत्कालीन आयुक्त द्वारा आरोपियों की मौत को लेकर की गई दूसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा कि आरोपियों के साथ जाने वाले पुलिसकर्मियों के पास हथियार थे लेकिन उन्होंने आयोग को बताया कि उनकी खराब तेलुगू होने की वजह से वे सही तरीके से अपनी बात नहीं कह पाए.

उन्होंने स्वीकार किया कि उनका यह बयान कि पीड़िता का सामान एक झाड़ी के पीछे से बरामद हुआ था, वह भी गलत था.

उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इससे इनकार किया कि पुलिस के हथियारों के सेफ्टी कैच को अनलॉक किया गया था लेकिन आयोग द्वारा मुहैया कराए गए वीडियो में उनका झूठ साबित हुआ.

उन्होंने (सज्जनार) सहमति जताई कि उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐसा गलती से कहा कि आरोपियों की डीएनए प्रोफाइलिंग कराई गई थी.

उन्होंने एक और गलत बयान यह दिया था, जिसे उन्होंने स्वीकार भी किया कि पीड़िता का सामान बरामद कर लिया गया है लेकिन तब तक ऐसा नहीं किया गया था.

उनके मुताबिक, उनकी खराब तेलुगू की वजह से यह गलती हुई हालांकि वह 20 सालों से तेलंगाना में काम कर रहे हैं.

उनके ये तर्क सफेद झूठ हैं क्योंकि उन्होंने अंग्रेजी में अपने संबोधन में स्पष्ट तौर पर कहा था कि पावर बैंक और पीड़िता का अन्य सामान बरामद किया गया. इसके बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि ऐसा पत्रकारों की तरफ से धड़ाधड़ पूछे जा रहे सवालों के बीच गलती से हो गया.

उन्होंने इस पर भी विचार नहीं किया कि जांच और शवों का पंचनामा न होने के बावजूद चार भाषाओं में प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करना अनुचित था.

आधिकारिक रूप से मामले को दबाया गया

आयोग ने 21 अगस्त से 38 गवाहों से पूछताछ कर हजारों सवाल पूछे हैं. इन गवाहों में कार्यकारी और न्यायिक मजिस्ट्रेट, डॉक्टर, फॉरेंसिक विशेषज्ञ और मामले से जुड़े लोग शामिल हैं. इनकी गवाहों के साथ मिलीभगत विश्वास से परे है.

उदाहरण के लिए, 30 नवंबर 2019 को कार्यकारी मजिस्ट्रेट ने आरोपियों को 14 दिनों की हिरासत में भेज दिया जबकि वह सिर्फ सात दिनों के लिए हिरासत में भेजने के आदेश दे सकते थे.

उन्होंने आरोपियों के अधिकारों की रक्षा के लिए किसी तरह की कानूनी जरूरतों की परवाह नहीं की. सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि न्यायिक मजिस्ट्रेट 11 अक्टूबर को आयोग के समक्ष स्वीकार किया था कि जब उन्होंने दो दिसंबर 2019 को आरोपियों की पुलिस कस्टडी के आदेश दे दिए थे तो उन्होंने आरोपियों को निजी तौर पर पेश होने पर जोर नहीं दिया. उनका आदेश पूरी तरह से कार्यकारी मजिस्ट्रेट के आदेश पर आधारित था.

(लेखक नालसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ में राजनीति विज्ञान और दंडशास्त्र पढ़ाते हैं.)

(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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