मध्य प्रदेश: भिंड-मुरैना के किसानों के लिए डीएपी खाद पाना चुनौती क्यों बन गया है

मध्य प्रदेश में सर्वाधिक सरसों उत्पादन भिंड और मुरैना ज़िलों में होता है. अक्टूबर में रबी सीज़न आते ही सरसों की बुवाई शुरू हो चुकी है, जिसके लिए किसानों को बड़े पैमाने पर डीएपी खाद की ज़रूरत है. लेकिन सरकारी मंडियों से लेकर, सहकारी समितियों और निजी विक्रेताओं के यहां बार-बार चक्कर काटने के बावजूद भी किसानों को खाद नहीं मिल रही है.

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ग्वालियर की लक्ष्मीगंज कृषि उपज मंडी पर किसानों की कतार. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

मध्य प्रदेश में सर्वाधिक सरसों उत्पादन भिंड और मुरैना ज़िलों में होता है. अक्टूबर में रबी सीज़न आते ही सरसों की बुवाई शुरू हो चुकी है, जिसके लिए किसानों को बड़े पैमाने पर डीएपी खाद की ज़रूरत है. लेकिन सरकारी मंडियों से लेकर, सहकारी समितियों और निजी विक्रेताओं के यहां बार-बार चक्कर काटने के बावजूद भी किसानों को खाद नहीं मिल रही है.

ग्वालियर की लक्ष्मीगंज कृषि उपज मंडी पर किसानों की कतार. (फोटो: दीपक गोस्वामी)

मुरैना जिले की बामोर तहसील स्थित पहाड़ी गांव निवासी किसान कमल सिंह को सरसों की फसल बोने के लिए दो बोरी डीएपी खाद चाहिए. इसके लिए वह पिछले आठ दिनों से भटक रहे हैं. जब बामोर में खाद नहीं मिला तो वे मुरैना पहुंचे, वहां भी निराशा हाथ लगी तो उन्होंने ग्वालियर का रुख किया. पर इतनी भाग-दौड़ करके भी उन्हें सफलता नहीं मिली.

वे बताते हैं, ‘आठ दिन से घर नहीं देखा. जब पता लगा कि ग्वालियर में खाद मिल रही है तो यहां चले आए. लेकिन, मुरैना वालों के खाता-किताब पर यहां खाद नहीं दे रहे.’

कमल के मुताबिक, उनका एक पड़ोसी किसान 17 बोरी डीएपी ग्वालियर की लक्ष्मीगंज कृषि उपज मंडी से ले गया था. वे कहते हैं, ‘हमने सोचा कि हमें भी मिल जाएगी, लेकिन यहां आकर पता लगा कि सब जान-पहचान का खेल है.’

कमल के साथ ही उनके पड़ोसी गांव जैतपुर के दर्शन सिंह भी भटक रहे हैं. उन्हें 17 बोरी डीएपी चाहिए. बात करने पर वे हमसे गुहार लगाते हैं, ‘साहब करवा दो कछु व्यवस्था, आप तो पत्रकार लोग हैं. भौत परेशान हैं हम. खाद न मिली तो फसल बिगड़ जाएगी.’

परेशान सिर्फ कमल सिंह या दर्शन सिंह ही नहीं हैं, ग्वालियर-चंबल अंचल के भिंड, मुरैना और ग्वालियर जिले का लगभग हर किसान डीएपी खाद की अनुपलब्धता से परेशान है. मध्य प्रदेश में सर्वाधिक सरसों उत्पादन भिंड और मुरैना जिलों में ही होता है. अक्टूबर माह में रबी सीजन आते ही सरसों की बुवाई शुरू हो चुकी है, जिसके लिए किसानों को बड़े पैमाने पर डीएपी खाद की जरूरत है. लेकिन सरकारी मंडियों से लेकर, सहकारी समितियों और निजी विक्रेताओं के यहां बार-बार चक्कर काटने के बावजूद भी किसानों को खाद नहीं मिल रही है.

भिंड जिले के अतरसुमा गांव निवासी रवि राजावात द वायर  से कहते हैं, ‘20 बोरी डीएपी की जरूरत है. भटकते हुए कम से कम 20 दिन हो गए. हर रोज जाकर लाइन में लगते हैं. सैकड़ों-हजारों की भीड़ में जब तक नंबर आता है, तब तक या तो खाद खत्म हो जाती है या फिर हंगामा होते देख अफसर-अधिकारी वितरण पर्ची बनाना ही बंद कर देते हैं.’

ग्वालियर के कुलैथ गांव निवासी राकेश सिंह यादव लक्ष्मीगंज कृषि उपज मंडी (ग्वालियर) में सुबह सात बजे से कतार में लगे थे. बात करने पर उन्होंने बताया, ‘11 तारीख से चक्कर काटते-काटते आठ दिन हो गए. रोज इसी कतार में बैठे-बैठे खाली हाथ लौट जाते हैं, क्योंकि इस लंबी कतार में जब तक नंबर आता है तब तक पर्ची बनाने की खिड़की बंद हो जाती है.’

जब 16 अक्टूबर की दोपहर लक्ष्मीगंज कृषि उपज मंडी में  करीब एक सैकड़ा किसान कड़ी धूप में कतार में खड़े थे. पुलिस की निगरानी में खाद वितरण हो रहा था. सुबह से खड़े-खड़े जब किसान थक गए तो जमीन पर ही बैठ गए. उनमें से ज्यादातर का कहना था कि वे हफ्ते भर से खाद के लिए चक्कर काट रहे हैं.

किसानों ने बताया, ‘आज भीड़ कम है. चार-पांच दिन पहले करीब चार-पांच सौ किसान होते थे. तब हमने विवाद किया. तब जाकर प्रशासन ने पुलिस की निगरानी में पांच बीघा ज़मीन पर दो बोरी खाद देने का नियम बनाया. कम जोत वाले किसानों की भीड़ तो छंट गई, लेकिन समस्या बनी हुई है क्योंकि ज्यादा ज़मीन वाले किसानों को जरूरी मात्रा में डीएपी मिल नहीं रहा है.’

यही परेशानी का सबब बना हुआ है, जिसने किसान को आक्रोशित कर दिया है. नतीजतन, अंचलभर से ऐसी खबरें आम हो गई हैं जहां किसान क़ानून हाथ में ले रहा है. भिंड और मुरैना में किसानों द्वारा सड़कों और हाईवे पर विरोधस्वरूप जाम लगाने की घटनाएं हुईं.

भिंड के अटेर में तो परेशान किसान सहकारी संस्था के गोदाम का ताला तोड़कर खाद की बोरियां ही लूट ले गए. मेहगांव में भी मंडी परिसर के गोदाम से खाद लूट ली. कुछ ऐसा ही मुरैना के सबलगढ़ में हुआ, जब मंडी परिसर में ही खाद से भरे दो ट्रकों से खाद की बोरियां लूट लीं.

स्थिति की भयावहता ऐसे समझ सकते हैं कि मुरैना के कैलारस में सुबह 7:30 बजे से कतार में लगे हजारों किसानों के बीच पहले तो खाद की पर्ची कटाने के लिए धक्का-मुक्की हुई, उसके बाद आपस में ही हुए पथराव में तीन लोग घायल हो गए.

भिंड-मुरैना के हर क्षेत्र में कमोबेश ऐसे ही हालात हैं. विडंबना तो यह है कि मुरैना केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का संसदीय निर्वाचन क्षेत्र है और ग्वालियर उनका गृह जिला. लेकिन, दुर्भाग्य कि उनके ही क्षेत्र का किसान परेशान है और कालाबाजारियों से अधिक कीमत पर खाद खरीदने मजबूर है.

मुरैना की कैलारस तहसील के हटीपुरा गांव निवासी रामपाल सिंह सिकरवार ने बताया, ‘मुझे दस से पंद्रह बोरी डीएपी चाहिए. पंद्रह दिन भटकने पर एक भी नहीं मिली. हजारों की कतार में नंबर ही नहीं आ पाता, तब तक दिन निकल जाता. इसलिए ब्लैक में चार बोरी खरीदनी पड़ीं, ताकि फिलहाल काम चल सके क्योंकि खेत बंजर तो छोड़ नहीं सकते. बोवनी में देरी करने पर फसल खराब आएगी.’

रामपाल ने 300 रुपये प्रति बोरी अधिक चुकाए. उन्हें 1,200 रुपये वाली बोरी 1,500 में खरीदनी पड़ी. हटीपुरा गांव के रणवीर धाकड़ को भी दस बोरी डीएपी की जरूरत थी. वे बताते हैं कि उन्होंने ब्लैक में 1,450 रुपये प्रति बोरी के हिसाब से छह बोरियां खरीदीं और हर बोरी पर 250 रुपये अधिक चुकाए.

उत्तर प्रदेश के इटावा से बीस बोरी डीएपी ब्लैक में खरीदकर लाने वाले भिंड के किसान महेश बरुआ बताते हैं, ‘भिंड में तो खाद को इतनो परेशानी है के कहुं पैदा ही नहीं भओ. फिर एसडीएम साहब ने बैठके नंबर लगवाए, तब दो दिन बाद नंबर आओ. लेकिन सिर्फ पांच बोरी मिलीं. खेती इतेक है तो कैसे बात बनती तो ब्लैक में 20 कट्टा खरीदने पड़े. हर कट्टा पे सौ रुपईया ज्यादा देनो पड़े. 1,300 को पड़ो एक कट्टा.’

महेश की तरह ही भिंड-मुरैना के किसान ब्लैक में खाद खरीदने उत्तर प्रदेश और ग्वालियर का रुख कर रहे हैं. ऐसे ही एक मामले में ग्वालियर में कृषि विभाग की टीम ने मुरैना के किसानों को पकड़ा जो 84 बोरी खाद ब्लैक में खरीदकर ले जा रहे थे.

हालांकि, ब्लैक में भी हर किसान को खाद उपलब्ध नहीं है. किसानों के मुताबिक, जिनकी अच्छी जान-पहचान होती है, कालाबाजारी केवल उन्हें ही खाद बेचते हैं. वहीं, अगर ब्लैक में खाद मिल भी जाए तो ग्वालियर की तरह पकड़े जाने का भी डर रहता है. किसान ब्लैक में भी खाद लेने से कतरा रहा है क्योंकि उसे डर है कि निश्चित दर से अधिक कीमत चुकाने के बाद भी नकली खाद खपा दी जाएगी.

डर इसलिए है क्योंकि मुरैना के पोरसा में पिछले दिनों ही एक नकली खाद बनाने वाली फैक्ट्री पकड़ी गई थी और निर्माण सामग्री समेत करीब सवा करोड़ की नकली डीएपी बरामद हुई, जो असली डीएपी की कीमत से भी अधिक दामों पर किसानों को ब्लैक में खपाई जा रही थी.

यही वजह है कि मुरैना के सबलगढ़ निवासी राजदेव त्यागी 25 बोरी डीएपी की जरूरत होने के बावजूद भी ब्लैक में नहीं खरीद रहे हैं. वे कहते हैं, ‘सरकार खाद दे नहीं पा रही. ब्लैक में भी खरीदें तो असली की कोई गारंटी नहीं है. 1,200 के 1,500 चुकाकर भी नकली खाद मिले तो पैसे बर्बाद करने का क्या फायदा? दुखद तो यह है कि सब केंद्रीय कृषि मंत्री के संसदीय क्षेत्र में हो रहा है.’

रवि राजावात कहते हैं, ‘भिंड में लोग ग्वालियर-उत्तर प्रदेश से खाद ब्लैक में खरीदकर ला रहे हैं. बहुत महंगी मिल रही है, 1600 की. उसमें भी नकली का पता नहीं चलता.’

कैलारस तहसील के नेपरी गांव निवासी ऋषिकेश जाटव कहते हैं, ‘10-12 बोरी डीएपी की जरूरत है. दस दिन से लाइन में लग रहा हूं, कुछ नहीं मिला. तब बाजार में खरीदने गया. 1,200 वाला कट्टा 1,350-1,400 में बेचा जा रहा था. वो भी असली होगा या नकली, कुछ पता नहीं. इसलिए काम चलाने के लिए पड़ोसी से इस वादे पर दो बोरी डीएपी उधार लिया कि मुझे मिलते ही लौटा दूंगा. क्योंकि, खेती तो करनी है. सरकार के इंतजार में रहा तो पूरा सीजन निकल जाएगा.’

(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

क्या है कमी की वजह

डीएपी की इतनी भारी किल्लत कैसे हुई? क्यों परिस्थितियां नियंत्रण से बाहर हुईं? क्यों किसानों को सड़कों पर उतरना पड़ा? इसका सीधा-सीधा जवाब न तो अफसर-अधिकारियों के पास है और न ही सरकार के पास. इसलिए अफसर-अधिकारी बात करने से कतरा रहे हैं तो सरकार भी खाद की कमी होने से ही इनकार कर रही है.

भिंड और मुरैना कलेक्टर ने बार-बार संपर्क करने के बाद भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. ग्वालियर कलेक्टर कौशलेंद्र विक्रम सिंह ने कहा, ‘ग्वालियर में तो अब इतनी ज्यादा समस्या सुनने में नहीं आ रही. अभी 4,000 मीट्रिक टन खाद आई है. पिछले साल के 7,000 मीट्रिक टन के मुकाबले हमें 9,000 मीट्रिक टन खाद मिली है. हमने समितियों को भी दे दी है. फिर भी कहीं कोई समस्या है तो मैं चेक कराऊंगा.’

वे आगे बताते हैं, ‘जो भी थोड़ी-बहुत दिक्कत है, वो खाद वितरण की व्यवस्था में थी, सारी समितियां फेल हो गई थीं. वह आज से नहीं, पिछले पांच-सात सालों से हैं. उनकी माली हालत खराब है. इसलिए नकदी की कमी के चलते वे गोदाम से माल नहीं उठा पाती हैं. हमने उन्हें रेडक्रॉस से 60 लाख रुपये उधार दिए हैं कि माल बेचकर लौटा दें. उपलब्धता पर्याप्त है. हमारी वितरण व्यवस्था में कमी को हम नकार नहीं रहे.’

ग्वालियर कलेक्टर की साफगोई के विपरीत जिस सबलगढ़ में खाद लूटने की घटना हुई, वहां के एसडीएम एलके पांडे ने सिर्फ यह कहकर फोन काट दिया कि सबलगढ़ में ऐसी कोई घटना नहीं हुई है. दोबारा संपर्क करने पर उन्होंने फोन ही नहीं उठाया.

12 अक्टूबर को खाद की स्थिति पर बैठक करने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तो यहां तक कह दिया कि प्रदेश में खाद संकट ही नहीं है, जबकि उसी दिन मुरैना के किसान अपने सांसद और केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे, भिंड में सरकारी गोदाम से खाद लूटी गई थी और ग्वालियर में पुलिस के पहरे में खाद बांटी गई थी.

इस दौरान मुख्यमंत्री ने यह भी कहा था, ‘दो दिन में हर जगह खाद मिलने लगेगी.’ लेकिन उनके दावों के उलट दो दिन बाद ज्यादातर वितरण केंद्रों पर खाद खत्म हो गई. यही नहीं, अब तो अंचल के गुना, अशोकनगर और शिवपुरी जिलों में भी डीएपी की किल्लत देखी जा रही है. वहां भी किसान हंगामा, चक्का जाम और प्रदर्शन कर रहे हैं. मुरैना में तो अब यह नौबत यह आ गई है कि सारी रात किसान खाद गोदामों के बाहर सो रहे हैं.

द वायर  ने जितने भी परेशान किसानों से बात की, वे मुख्यमंत्री द्वारा दी गई दो दिन की समयसीमा बीतने के बाद ही की. इस बीच भिंड के स्थानीय पत्रकार रवि त्रिपाठी ने भी उनके जिले के यही हाल बताए.

उन्होंने बताया, ‘क्राइसिस कमेटी की बैठक में मुख्यमंत्री कहते हैं कि खाद की कमी नहीं है, भरपूर खाद उपलब्ध है लेकिन जब वितरण केंद्रों पर पहुंचकर किसानों से पूछो तो उन्हें खाद नसीब नहीं है. वे कई दिनों से परेशान हैं. जिस किसान को 30 बोरी चाहिए, उसे सिर्फ दो बोरी मिल रही हैं.’

इसे लेकर सबलगढ़ के किसान मुन्ना सिंह जादौन बताते हैं, ‘एक आदमी दिन निकलने से पहले लाइन में लग जाता है. दूसरा उसके लिए खाना लाता है. जिसके घर में कोई और पुरुष नहीं है, वे या तो सारा दिन भूखे-प्यासे रहते हैं या फिर घर की औरतों को बच्चों के साथ लाइन में लगना पड़ता है. तीन-चार दिन बाद नंबर आता है और मिलते हैं सिर्फ दो कट्टे. उससे क्या होगा? ऐसे तो जरूरत के मुताबिक खाद पाने में महीनाभर बीत जाएगा.’

मुरैना के मानपुर गांव के आकाश शाक्य को भी छह बोरी चाहिए थीं, लेकिन दस दिन मशक्कत करके केवल दो बोरी मिलीं.

राज्य के कृषि मंत्री द वायर  को भेजे अपने जवाब में कहते हैं, ‘राज्य में डीएपी और यूरिया खाद की हमने पर्याप्त व्यवस्था की है. हर जिले में वितरण हो रहा है. मुरैना में सहकारी समितियों के डिफॉल्टर होने से समस्या पैदा हुई है. लेकिन मैंने निर्देश दिए हैं कि डिफॉल्टर समितियों से भी खाद बंटवाया जाए.’

वे दावा करते हैं कि जिसे भी जितनी खाद की जरूरत है, उसे उतना दे रहे हैं. कुछ लोग जानबूझकर ज्यादा लेना चाहते हैं, इसलिए हंगामा कर रहे थे. वे कहते हैं, ‘ग्वालियर, भिंड और मुरैना में खाद की कोई कमी नहीं रहेगी और न ही पहले कमी थी.’

लेकिन प्रश्न उठता है कि जब कमी नहीं थी तो क्यों मुख्यमंत्री ने बैठक ली? क्यों गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कालाबाजारियों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (रासुका) लगाने की घोषणा की? क्यों लगातार कालाबारियों के खिलाफ छापेमारी हो रही है? क्यों केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने मीडिया से बात करते हुए ऐसा कहा कि वे और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री मनसुख मांडविया से बात करके खाद की व्यवस्था करा रहे हैं. अगले दस दिन में खाद आ जाएगी?

शासन-प्रशासन भले ही खाद की कमी से इनकार करे और इसके पीछे का कारण न बताएं, लेकिन किसानों को लगता है कि ऐसे हालात खाद की कालाबाजारी के चलते पैदा हुए हैं और इसमें सत्ता से प्रश्रय प्राप्त लोगों का हाथ है. खाद को बड़े व्यापारियों ने स्टॉक कर लिया है.

अपनी बात के समर्थन में वे पिछले सप्ताह मुरैना में पुलिस व प्रशासन द्वारा की गई उस छापामार कार्रवाई का उदाहरण देते हैं जिसमें भाजपा नेता के भाई के गोदाम से अवैध तरीके से स्टॉक किया गया 820 बोरी खाद जब्त किया गया था.

भिंड के किसान नेता संजीव बरुआ बताते हैं, ‘यहां सरसों की खेती ज्यादा होती है, इसलिए डीएपी की खपत अधिक है. प्रशासन ने समय रहते कोई कदम नहीं उठाया जबकि हम हालात बिगड़ने के 15 पंद्रह दिन पहले से बोल रहे थे.’

(फोटो: दीपक गोस्वामी)

राजदेव कहते हैं, ‘अक्टूबर में खाद की जरूरत पड़ती है. सितंबर में ही व्यवस्था करके रखनी चाहिए. केंद्रीय कृषि मंत्री तो हमारे क्षेत्र के हैं, फिर भी इतनी परेशानी है कि रोजाना किसानों में डंडे पड़ रहे हैं. पांच-सात बार तो हमने चक्का जाम किया. अधिकारी-कर्मचारी बोल देते हैं कि पर्याप्त मात्रा में खाद मिल जाएगा, लेकिन अब तक नहीं मिला.’

महेश कहते हैं, ‘ये नियम बन गओ है के हर साल सीजन पे ऐसी ही दिक्कत आती है. यूरिया के समय यूरिया नहीं मिलतो, डीएपी के समय डीएपी नहीं मिलती. मांगो तो फिर पुलिस लट्ठ चलाती है. सरकार पतो नहीं कहां सोती रहते. कहने को तो हमारे भिंड से राज्य सरकार में दो-दो मंत्री हैं, लेकिन किसी को कोई सुध नहीं कि कितनी फसल हो रही है, कितनी खाद चाहिए, कितनी बारिश हो रही है और किसान कर क्या रहो है?’

बता दें कि भिंड क्षेत्र से शिवराज सरकार में ओपीएस भदौरिया नगरीय प्रशासन मंत्री हैं, तो अरविंद भदौरिया सहकारिता मंत्री हैं. उल्लेखनीय है कि जब राज्य में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार थी, तब भी खाद की समस्या खड़ी हुई थी. उस समय विपक्ष में बैठी भाजपा ने इस मुद्दे पर कांग्रेस को खूब घेरा था. और अब भी भाजपा इस स्थिति के लिए कांग्रेस को ही जिम्मेदार ठहरा रही है.

कृषि मंत्री कमल पटेल ने द वायर  से कहा, ‘मुरैना के अंदर 5,000 मीट्रिक टन डीएपी उपलब्ध था. इसके बावजूद भी कुछ असामाजिक तत्वों ने, खास तौर पर विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने सरकार को बदनाम करने के लिए लूटपाट कराई और हाहाकार मचवाया जबकि खाद की कोई कमी नहीं थी.’

इस पर कमलनाथ सरकार में कृषि मंत्री रहे सचिन यादव का कहना है, ‘15 साल भाजपा की सरकार रही. अब फिर डेढ़ साल से ज्यादा समय से है. फिर भी उन्होंने इस समस्या का कोई स्थायी समाधान निकालने की पहल नहीं की. इतने लंबे समय सरकार में रहने के बाद भी क्यों कोई फर्टिलाइजर प्लांट नहीं बनाया? केंद्र में भी ये आठ साल से हैं लेकिन दोनों सरकारों ने मिलकर कोई स्थायी समाधान नहीं निकाला, जबकि पूरे देश और प्रदेश के आंकड़े इनके पास हैं कि कितनी खाद की जरूरत होगी.’

वे आगे कहते हैं कि उनके कार्यकाल में जो समस्या पैदा हुई या अभी जो समस्या पैदा हो रही है, इसके मूल में भाजपा द्वारा खड़ी की गई निरंकुश नौकरशाही भी एक कारण है.

बहरहाल, 17-18 अक्टूबर को हुई बारिश के चलते खाद की समस्या अब और अधिक विकराल होने की संभावना है. इसका कारण यह है कि जिन लोगों को खाद उपलब्ध हो गई थी और उन्होंने फसल भी बो दी थी, बारिश ने वह फसल नष्ट कर दी है. ब्लैक में खाद खरीदकर फसल बोने वाले महेश भी उनमें से एक हैं. वे बताते हैं, ‘अब फिर उतनो ही खाद-बीज डालनो पड़ेगो.’

भिंड के स्थानीय पत्रकार रवि त्रिपाठी ने बारिश के बाद क्षेत्र का दौरा किया. वे बताते हैं, ‘यहां 1,50,000 हेक्टेयर ज़मीन पर सरसों बोई जाती है. 60 फीसदी फसल बोई जा चुकी थी, लेकिन वह नष्ट हो गई. अब खाद की जरूरत दोगुनी हो जाएगी. जिस किसान को मिली नहीं है, वो तो खाद के लिए कतार में लगेगा ही, साथ ही जिसे मिल गई थी या जिसने ब्लैक में खरीदी थी और फसल बो दी थी, अब उसे भी दोबारा फसल बोनी होगी. जिसके लिए फिर उतनी ही खाद की जरूरत होगी.’

बारिश ने न सिर्फ खाद की जरूरत को और बढ़ा दिया है बल्कि आर्थिक तौर पर भी किसान की कमर तोड़ दी है. महेश बताते हैं, ‘दो महीना पहले बाढ़ ने खरीफ बर्बाद करी. फिर खाद ब्लैक में खरीदनो पड़ी और अब जै बरसात ने बोई भई सरसों बिगाड़ दई. अब एक बार और फसल बिगड़ गई तो किसान को फांसी लगाकर मरनो पड़ैगो. सब किसान रो रहे. जो बड़े हैं, वे और ज्यादा रो रहे. दुखी हैं कि ब्याज पे कर्ज ले लओ और तब ब्लैक में खाद-बीज खरीदके फसल लगाई. अब पानी बरस गओ, सब बर्बाद हो गओ. अब फिर किसान कर्ज़ लेगो, तब फसल बोएगो. लेकिन, वाए बार-बार ब्याज पे कर्ज़ देगो कौन? और खाद तो मिलत नहीं है. पहले नहीं मिलो तो अब कैसे मिलेगो?’

दुखी मन से वे आगे कहते हैं, ‘दो हजार खाते में डालके सरकार बस आंख-मिचौली खेल रई है किसान से. दो हजार रुपट्टी से का होगो. हकीकत में तो गरीब किसान मर रओ है.’

हालांकि, कृषि मंत्री कमल पटेल ने द वायर  को भेजे जवाब में बारिश से खराब हुई खरीफ फसल की बीमा कंपनी द्वारा क्षतिपूर्ति देने की बात तो कही है, लेकिन बोई हुई रबी फसल के संबंध में कोई जिक्र नहीं किया है.

बारिश से प्रभावित हुए सरसों बो चुके कुछ किसान बताते हैं कि वे मौसम साफ होने पर अब गेंहू बोने पर विचार करेंगे क्योंकि सरसों के लिए फिर से डीएपी खाद कहां से लाएंगे?

फिलहाल हकीकत यही है कि ग्वालियर-चबंल में सरसों को ‘पीला सोना’ कहा जाता है लेकिन इस पीले सोने को उगाने के लिए जरूरी डीएपी खाद की खातिर किसानों को पुलिस की लाठियों से शरीर पर नीले निशान मिल रहे हैं.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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