कोरोना महामारी ने स्कूली छात्रों और उनके अध्यापकों पर क्या असर डाला है

पश्चिम बंगाल के प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों के एक समूह 'शिक्षा आलोचना' द्वारा महामारी के दौरान पढ़ाई को लेकर जारी की गई रिपोर्ट बताती है कि स्कूल परिसर के बाहर अपना काम जारी रखना कितना चुनौतीपूर्ण था लेकिन अध्यापकों ने उसे किया. यह रिपोर्ट पढ़ी जानी चाहिए, अध्यापकों की वकालत के लिए नहीं, यह समझने के लिए कि प्राथमिक शिक्षा कितना जटिल मसला है और उसके कितने पक्ष हैं.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

पश्चिम बंगाल के प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों के एक समूह ‘शिक्षा आलोचना’ द्वारा महामारी के दौरान पढ़ाई को लेकर जारी की गई रिपोर्ट बताती है कि स्कूल परिसर के बाहर अपना काम जारी रखना कितना चुनौतीपूर्ण था लेकिन अध्यापकों ने उसे किया. यह रिपोर्ट पढ़ी जानी चाहिए, अध्यापकों की वकालत के लिए नहीं, यह समझने के लिए कि प्राथमिक शिक्षा कितना जटिल मसला है और उसके कितने पक्ष हैं.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

हम सबको प्रायः नकारात्मकता के लिए दुत्कारा जाता रहा है. यह कि हम हमेशा आलोचना करते हैं और कुछ भी रचनात्मक नहीं करते. इस शिकायत या फटकार में आलोचना की गलत समझ है. वह यह कि आलोचना तोड़ती है, बनाती नहीं. वह नकारती है, स्वीकार नहीं करती. यह समझ भ्रामक है. आलोचना वास्तव में विवेक की स्थापना का उपक्रम है. विवेक जिसके बिना रचना संभव नहीं है.

बहरहाल! यह टिप्पणी आलोचना के एक सकारात्मक उदाहरण या उद्यम के बारे में है. इसके विषय में भी कि जो आलोचक है, वही कर्त्ता भी है. पिछले डेढ़ साल से भी ज़्यादा वक्त से समाज का हर तबका कोरोना महामारी से और उसके दूसरे प्रभावों से जूझ रहा है. इस पर इस बीच काफी चर्चा हुई है कि शिक्षा को हर स्तर पर इस महामारी ने कितना नुकसान पहुंचाया है.

उच्च शिक्षा को छोड़ दें, क्योंकि वहां छात्र इतने वयस्क होते हैं कि इस नुकसान की भरपाई के रास्ते शायद खोज सकते हैं. लेकिन जिन्हें सबसे अधिक धक्का पहुंचा है, वे स्कूली छात्र-छात्राएं हैं. अब कई राज्यों में धीरे-धीरे स्कूल वापस खुल रहे हैं लेकिन इतने लंबे वक्त तक स्कूल की बंदी ने इन बच्चों की जो हानि की है और उन पर जो असर डाला है उससे मुक्त होना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा.

इस स्थिति पर बात करते हुए हम प्रायः उन्हें भूल ही जाते हैं जिनके बिना स्कूल पूरे नहीं होते. वे हैं अध्यापक. इस कोरोना महामारी और स्कूलों के बंद होने ने उन पर क्या असर डाला? उनकी आर्थिक और मनोवैज्ञानिक अवस्था क्या है? इन प्रश्नों पर शायद ही बात की गई.

जो नहीं हुआ उसका विलाप क्यों करें? पश्चिम बंगाल के प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों के एक समूह ‘शिक्षा आलोचना’ ने यह काम किया है. यह देखने का कि महामारी ने स्कूली शिक्षा का क्या किया. लेकिन उन्होंने सिर्फ यह नहीं किया है. यह भी पता किया कि अध्यापकों ने इस स्थिति का मुकाबला कैसे किया. इसे उन्होंने अपनी एक रिपोर्ट ‘साथ मिलकर सीखें‘ में संकलित किया.

‘शिक्षा आलोचना’ और उसकी रिपोर्ट ‘साथ मिलकर सीखें’ दोनों ही आलोचनात्मक सकारात्मकता के ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें हर राज्य में, हर जगह दोहराना चाहिए. सबसे पहले समूह के बारे में. यह प्राथमिक स्कूल के अध्यापकों और उनके साथ काम करने वाले शिक्षाविदों का समूह है. 2016 से इसने काम करना शुरू किया. यह शिक्षा, शिक्षाशास्त्र, पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या आदि पर और शिक्षा से जुड़े अन्य विषयों पर जो सैद्धांतिक और व्यावहारिक, दोनों हैं, विचार करता है.

जाहिर है, यह विचार व्यवहार से गहराई से जुड़ा होता है. आमतौर पर प्राथमिक स्कूलों के अध्यापकों को बौद्धिक माना ही नहीं जाता. न सिर्फ सरकारें और प्रशासक बल्कि बुद्धिजीवी भी इन्हें अपनी जमात में शामिल नहीं करते. स्कूलों, छात्रों के बारे में, शिक्षा के विषय में ये भी कुछ सोच सकते हैं और राय दे सकते हैं, यह हम मान नहीं पाते. आमतौर पर इन्हें विचारों और सिद्धांतों को लागू करने लायक मात्र माना जाता है.

‘शिक्षा आलोचना’ ने इस धारणा को तोड़ा है. हर वर्ष यह समूह दीर्घ विचार-विमर्श के बाद एक रिपोर्ट जारी करता है. ‘साथ मिलकर सीखें’ रिपोर्ट की भूमिका में अध्यापक सुकांत चौधरी ने इस समूह और रिपोर्ट की दुर्दांत आशावादिता पर आश्चर्य व्यक्त किया है. आश्चर्य में व्यंग्य नहीं है. वह इसलिए है कि इतना असाधारण और अपवाद जान पड़ता है.

यह रिपोर्ट अध्यापकों की अपनी चिंता का प्रतिफलन है. वह चिंता इतने मार्मिक शब्दों में प्रकट हुई है:

‘बच्चे ठीक नहीं हैं, न उनके माता-पिता. क्या अध्यापक ठीक हैं? नहीं. कम से कम उनके एक हिस्से की तरफ से तो हम बोल ही सकते हैं. …समाज के सबसे सक्रिय तबकों में से एक होने के कारण यह जो निष्क्रियता की अवस्था हम पर थोप दी गई है, वह हताश कर देने वाली है. हम इस आपदा के मूक दर्शक भर बनकर रह गए हैं जिसने हरे पत्तों जैसे बच्चों की मानो हरीतिमा सोख ली है.’

वे उस सामाजिक अनुबंध को पूरा कर पाने की अपनी लाचारी को तोड़ना चाहते हैं. वे इससे भी अपमानित महसूस करते हैं कि उन पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे वह काम नहीं कर रहे जिसके लिए समाज उन्हें पैसे दे रहा है. यह रिपोर्ट उस लाचारी को तोड़ने की कहानी है. उसकी सीख की. जितनी उपलब्धि की नहीं उतनी प्रक्रिया की. जो नहीं हो पाया उसकी भी.

प्रधानमंत्री ने देश को कहा कि महामारी के दौरान आमने-सामनेवाली कक्षाओं की जगह बच्चों और अध्यापकों ने ऑनलाइन माध्यम को अत्यंत सुगमता से अपना लिया. यह रिपोर्ट बतलाती है कि प्रधानमंत्री सच नहीं बोल रहे.

प्रधानमंत्री यह भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं कि ऑनलाइन माध्यम को विकल्प के तौर पर अपना लिया गया है. इस रिपोर्ट में अध्यापकों के अनुभवों को दर्ज किया गया है जिनसे मालूम होता है कि महामारी के दौरान बहुसंख्य छात्रों के लिए यह कितना कठिन था. ज़्यादातर के लिए असंभव.

रिपोर्ट ने सबसे चिंताजनक बात नोट की है कि 92 % के करीब बच्चों ने भाषा और तकरीबन 82% ने गणित की बुनियादी क्षमताएं खो दी हैं. इस हानि की चर्चा तो हुई है लेकिन बच्चों को जो सामाजिक-भावनात्मक हानि हुई है, उसे दर्ज करना भी कठिन है. उस पर ध्यान दिया ही नहीं गया है.

प्रशासकीय स्तर पर ऑनलाइन शिक्षण और शेष तरीकों के लिए जो उपाय किए गए, वे पर्याप्त नहीं थे. टेलीफोन, इंटरनेट जैसे अन्य माध्यमों का इस्तेमाल करके और सेहत का ध्यान रखते हुए आमने-सामने पढ़ाई जारी रखने की भरसक कोशिश अध्यापकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने की. लेकिन इसके बावजूद इस बीच बच्चों के सीखने के रास्ते में बाधाएं ढेर सारी थीं.

एक चौथाई बच्चे बिल्कुल पीछे रह गए, संतोषजनक स्तर तक मात्र 40 % बच्चे पहुंच पाए. इस पर बात करें इसके पहले यह जानना ज़रूरी है कि ये सरकारी स्कूलों के बच्चे हैं. इनके माता-पिता दिहाड़ी मजदूर , छोटे व्यापारी, खेती-बाड़ी करने वाले हैं. इस बीच खुद इनकी आमदनी आधी से भी कम हो गई और इन बच्चों का पोषण अत्यंत क्षीण हो गया था.

सीखने को लेकर चिंता तो बहुत जाहिर की गई है लेकिन बच्चों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य की उतनी फिक्र नहीं की गई है. रिपोर्ट बच्चों के शिक्षा के अधिकार की बात करती है और उसे सही मायने में हासिल करने के लिए जल्दी से जल्दी स्कूल खोलने की ज़रूरत पर बल देती है. बच्चों के समुदायों से लगातार चर्चा करना आवश्यक है. स्कूल खोलने के साथ और उसके पहले तैयारी की ज़रूरत है.

रिपोर्ट इस लिहाज से कीमती है कि इसमें अध्यापकों का संघर्ष, उनकी छटपटाहट और सारी मुश्किलों के बीच रास्ता निकालने की हिकमतों की कहानियां हैं. इनसे यह बात गलत साबित होती है कि अध्यापक कामचोरी कर रहे थे.

दक्षिण दिनाजपुर, पूर्व मेदिनीपुर, 24 परगना के अनुभवों की बानगी दी गई है जिनमें अध्यापक इन मुश्किलों से जूझते हुए दिखलाई पड़ते हैं. अपने पूर्व छात्रों की मदद लेकर, समुदाय के लोगों की सहायता से फोन, डेटा की कमी के बावजूद बच्चों से संपर्क ज़िंदा रखना और सीखने के काम को जारी रखना- यह रोमांचकारी जान पड़ता है.

महामारी के दौरान खुद स्कूल परिसर के बाहर, बच्चों के रिहाइश के करीब जाकर अपना काम जारी रखना भी चुनौतीपूर्ण काम था लेकिन अध्यापकों ने उसे किया. हम सबको यह रिपोर्ट पढ़नी चाहिए. अध्यापकों की वकालत के लिए नहीं, यह समझने के लिए कि प्राथमिक शिक्षा कितना जटिल मसला है और उसके कितने पक्ष हैं.

सीखना, उपलब्धि आदि से पहले एक औसत भारतीय, बंगाली बच्चे का रोज़-रोज़ स्कूल आ पाने का संघर्ष ही कितना विकट है, क्यों उसके माता-पिता की रोजी-रोटी से उसका सीखना जुड़ा हुआ है, उसकी भूख से उसकी गणित और भाषा की उपलब्धि तय होती है, यह अध्यापकों से ज़्यादा कौन जानता है. उसे सिखाने का जिम्मा है. समाज उस पर नाराज़ होता है कि वह ठीक सिखा नहीं पा रहा.

अध्यापक कहना चाहता है कि एक भूखे पेट से भूख के सही हिज्जे लिखवाना अमानुषिक है. लेकिन वह भोजन अध्यापक दे नहीं पाता. इसकी यंत्रणा कितनी तीखी है! यह रिपोर्ट आपको उस यंत्रणा को महसूस करने को भी प्रेरित करती है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)