भारतीय क्रिकेट टीम के ‘घुटने के बल खड़े होने’ में असल में कितना प्रतिरोध छिपा है

भारतीय क्रिकेट टीम के एकमात्र मुस्लिम खिलाड़ी के समर्थन में साथी खिलाड़ियों के वक्तव्यों की एक सीमा थी, वे उन्हें इस प्रसंग को भूल जाने और अगले मैच में अपनी कला का जौहर दिखाने के लिए ललकार रहे थे, पर किसी ने भी इस पर मुंह नहीं खोला कि पूरे मुल्क में एक समुदाय के ख़िलाफ़ किस तरह ज़हर फैलाया जा रहा है, जिसके निशाने पर अब कोई भी आ सकता है.

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भारतीय क्रिकेट टीम के एकमात्र मुस्लिम खिलाड़ी के समर्थन में साथी खिलाड़ियों के वक्तव्यों की एक सीमा थी, वे उन्हें इस प्रसंग को भूल जाने और अगले मैच में अपनी कला का जौहर दिखाने के लिए ललकार रहे थे, पर किसी ने भी इस पर मुंह नहीं खोला कि पूरे मुल्क में एक समुदाय के ख़िलाफ़ किस तरह ज़हर फैलाया जा रहा है, जिसके निशाने पर अब कोई भी आ सकता है.

24 अक्टूबर 2021 को भारत-पाकिस्तान टी-20 मैच से पहले ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के समर्थन में घुटनों पर बैठकर एकजुटता प्रदर्शित करती भारतीय टीम. (साभार: स्क्रीनग्रैब/हॉटस्टार)

भारत की क्रिकेट टीम, उसका व्यवहार और उसके तमाम करतब- जो पहले भी विभिन्न कारणों से गलत कारणों से सुर्खियां बटोरते आए हैं- रफ़्ता-रफ़्ता अब शेष दुनिया में भी हंसी, पाखंड और वितृष्णा का सबब बनते जा रहे हैं.

दुबई के मैदान में टी-20 विश्व कप के लिए पाकिस्तान के साथ चले मैच की शुरुआत में उन्होंने दिखाया करतब हो या मैच की समाप्ति के बाद उन्होंने ओढ़ी चुप्पी हो, उससे यह बात अब अधिक खुलकर सामने आ गई है.

मैच की शुरुआत में भारतीय क्रिकेटरों द्वारा खेल जगत में प्रतिरोध का प्रतीक बने ‘टेकिंग द नी’ अर्थात खेल के मैदान पर घुटने पर बैठने’ का – जो कथित तौर पर उन्होंने ब्लैक लाइव्स मैटर के समर्थन में उठाया था- उपक्रम किया गया था.

याद रहे कि पिछले साल अमेरिका के मिनियापोलिस में 25 मई जार्ज फ्लॉयड नामक अश्वेत शख़्स की श्वेत पुलिस अधिकारी के हाथों हत्या के बाद पूरे अमेरिका में ही नहीं बल्कि पश्चिमी जगत में अश्वेत अधिकारों के समर्थन में जब एक व्यापक आंदोलन खड़ा हुआ था, जिस दौरान प्रतिरोध का यह प्रतीक दुनिया के कोने-कोने में पहुंचा था.

विडंबना ही थी कि उन दिनों उस मसले पर भारतीय क्रिकेटर अधिकतर चुप्पी ओढ़े रहे थे, किसी का जमीर नहीं जगा था.

उन्हें शायद यह चिंता उस वक्त़ अधिक सता रही होगी कि ब्लैक लाइव्स मैटर का यह आंदोलन, जिसके निशाने पर एक तरह से तत्कालीन अमेरिकी सरकार थी- जो ट्रंप की अगुवाई में चल रही थी जिनके पीएम मोदी के साथ ‘दोस्ती’ की बात चल रही थी- उससे अलग संदेश ऊपर न चला जाए, उन्हें लग रहा हो कि कहीं उनका यह कदम अचानक मोदी सरकार के खिलाफ कोई बयान न समझा जाए, और अब लगा हो कि अब इस कदम को उठाने से कोई जोखिम नहीं है.

फिर बात यह खुली कि यह कदम भी उन्होंने अपनी अंतरात्मा के इशारे पर नहीं उठाया था, उन्हें ऊपरी मैनेजमेंट से इसका इशारा मिला था.

क्या यह कहना गैर मुनासिब होगा कि एक तरह से उनका यह करतब था, ‘उस्ताद’ और ‘जमूरा’ शैली में (उत्तर भारत एवं पाकिस्तान के लोक नाटकों में एक हिस्सा दिखाया जाता है, जहां उस्ताद के इशारे पर जमूरा कुछ करतब दिखाता रहता है और तमाशबीनों से पैसे बटोरता है ) उसी का यह आधुनिक संस्करण था.

बहरहाल क्रिकेट के इन खिलाड़ियों को इस बात पर भी संकोच नहीं हुआ कि अचानक टूटे उनके इस ‘मौन’ से उनके उन तमाम मौनों की बात नए सिरे से खुल सकती है, जिसके लिए वह चर्चित हो चले हैं.

फिर चाहे 11 महीने से चल रहे ऐतिहासिक किसान आंदोलन- जिसमें 500 किसान अब तक शहीद हो चुके हैं- के बारे में उनकी चुप्पी हो, या देश में बढ़ती झुुंडहत्याओं के बारे में या सरकार के आलोचकों को देशद्राही साबित कर कर दमनकारी कानूनों के तहत जेल में डालने की सरकारी कारगुजारियां हो या सबसे बढ़कर दलित-आदिवासियों के साथ बढ़ते अत्याचारों के मामले हों.

उनका पाखंड डैरेन समी प्रसंग में खुलकर उजागर हुआ था, जब क्रिकेट जगत के लीजेंड कहे जाने वाले खिलाड़ी को यहां नस्लीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ा था और किसी ने आत्मालोचना नहीं की थी, माफी नहीं मांगी थी.

याद रहे सेंट लुसिया, वेस्ट इंडीज के निवासी डैरेन समी (Darren Sammy) ने प्रख्यात ऑलराउंडर, जिन्होंने कई साल वेस्ट इंडीज टीम की अगुवाई की और वह एकमात्र ऐसे कैप्टन समझे जाते हैं, जिसकी अगुवाई में खेलने वाली टीम ने टी-20 के दो वर्ल्ड कप जीते (2012 व 2016) क्रिकेट जगत की उनकी उपलब्धियां महज अपने मुल्क की सीमाओं पर खत्म नहीं होती, जिन्हें हिन्दोस्तां की सरजमीं पर नस्लीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ा, तब शुरुआत में लोगों का इस पर यकीन तक नहीं हुआ.

और यह प्रसंग वर्ष 2013-14 में आईपीएल खेलों के दौरान भारत में घटित हुआ था, जब उन्हें कालू कहकर उनके सहखिलाड़ी- जिनमें भारतीय क्रिकेट के कई अग्रणी नाम थे – उनका नस्लवादी मज़ाक उड़ाते थे. भारतीय क्रिकेट के एक खिलाड़ी ईशांत शर्मा की पुरानी इंस्टाग्राम पोस्ट इन्हीं दिनों वायरल हुई, जिसमें वह सैमी को ‘कालू’ कहकर संबोधित करते दिख रहे थे.

इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें, तो क्रिकेट जगत के इन तमाम महानुभावों, सेलेब्रिटीज की जुबां जब खुली है, तब सरकार की हिमायत में खुली है.

गौरतलब है कि जनवरी माह में जब किसान आंदोलन के बारे में दुनिया के अग्रणी सेलिब्रिटीज ने अपना समर्थन प्रकट किया तो क्रिकेट जगत के ही कभी सुपरस्टार रहे सचिन तेंदुलकर जैसे भारतरत्नों द्वारा उनके इस समर्थन वक्तव्य को ‘भारत के आंतरिक मामलों में दखल देने वाला’ कहा गया था.

बहरहाल ‘देर आयद दुरूस्त आयद!’ के तौर पर पहले लग रहे उनके इस ‘घुटने के बल खड़े होने’ में कितना प्रतिरोध छिपा है और कितना समर्पण छिपा है, इस बात पर से परदा खुलने में अधिक वक्त़ नहीं लगा.

ऐसा संयोग रहा कि पाकिस्तान के साथ इस मैच में भारतीय टीम की शर्मनाक हार हुई, यह निश्चित ही समूची टीम की हार थी. इसमें किसी एक व्यक्ति को निश्चित ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता था. हार के तत्काल बाद भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली पाकिस्तान टीम के साथ गर्मजोशी से मिले, फोटो भी खींचे गए. भारत के बरअक्स पाकिस्तान के अख़बारों ने भी इस घटना को उसी अंदाज में रखा गया.

लेकिन मैच समाप्ति के बाद जब भारतीय क्रिकेट टीम के शानदार गेंदबाज मोहम्मद शमी को जब नफरत भरे संदेशों का निशाना बनाया गया उन्हें देशद्रोही कहा गया, पाकिस्तान जाने को कहा गया, तो उनकी टीम के बाकी खिलाड़ी कहीं दिखाई नहीं दिए.

क्या टीम की इस असफलता का जिम्मेदार टीम के अकेले मुस्लिम खिलाड़ी को बनाना उन्हें वाजिब लग रहा था? क्या उन्हें डर था कि अगर वह अपने ही साथी के बारे में बोलेंगे तो वे भी नफरत के संदेशों का शिकार हो जाएंगे? क्या वह खुद मॉब के इस उन्माद से सहमत थे कि यह बिल्कुल वाजिब हो रहा है ?

किसी ने व्यंग में लिखा यह सभी खिलाड़ी शायद मैनेजमेंट के आदेश का इंतज़ार करते रहे क्योंकि चंद घंटों पहले ही ऐसा ही एक करतब उन्हीं के इशारे पर वह मैदान पर दिखा चुके थे.

निश्चित ही क्रिकेटरों में से कुछ ने शमी की हौसलाअफजाई की- जो फिलवक्त़ क्रिकेट के मैदान से बाहर हैं – मगर उनके साथ रोज-बरोज प्रैक्टिस करने वाले अधिकतर खिलाड़ी बिल्कुल खामोश रहे. जब तक कप्तान विराट कोहली उनके समर्थन में उतरे, तब तक ऑनलाइन नफ़रत और ट्रोलिंग का एक कारवां गुजर चुका था.

भारतीय क्रिकेट टीम के एकमात्र मुस्लिम खिलाड़ी के समर्थन में वीरेंद्र सहवाग, वीवीएस लक्ष्मण या सचिन तेंदुलकर ने भी जुबां खोली, मगर उनके वक्तव्य की भी एक सीमा साफ थी, वह उन्हें इस प्रसंग को भूल जाने और अगले मैच में अपनी कला का जौहर दिखाने के लिए ललकार रही थी, किसी ने भी इस बात पर मुंह नहीं खोला कि पूरे मुल्क में समुदाय विशेष के खिलाफ किस तरह जहर फैलाया जा रहा है, जिसके निशाने पर अब कोई भी आ सकता है.

कभी उनका नाम मोहम्मद शमी हो सकता है, कभी पहलू खान हो सकता है; कभी वसीम जफर भी हो सकता है.

वही वसीम जफर, जो मोहम्मद अजहरुद्दीन की तरह ओपनिंग बैटर की तरह खेलते थे और भरोसेमंद खिलाड़ी समझे जाते थे. सचिन तेंदुलकर के साथ खेले, तीस से अधिक टेस्ट मैच खेले वसीम जफर आज भी वह रणजी क्रिकेट के इतिहास के अग्रणी बने हैं, जिन्होंने 150 के करीब मैच खेले है, जिन्हें चंद माह पहले ही (फरवरी 2021) उत्तराखंड क्रिकेट एसोसिएशन के कोच पद से बेहद अप्रिय स्थितियों में इस्तीफा देना पड़ा था.

जून 2020 में वसीम जफर को उत्तराखंड क्रिकेट एसोसिएशन का कोच बनाया गया और जब उन्होंने स्थानीय हितसंबंधों की परवाह किए बगैर अधिक पेशेवर रुख अपनाया तो उन पर यह आरोप लगाए गए कि उन्होंने क्रिकेट में अल्पसंख्यकों का बढ़ावा दिया- जो बात हक़ीकत से परे थी.

जब उन्होंने इस्तीफा दिया तब अनिल कुंबले जैसे उनके सहयोगी को छोड़ दें तोे किसी बड़े ने जुबां नहीं खोली, निश्चित ही सचिन तेंदुलकर- जो उनके साथ न केवल टेस्ट मैच बल्कि वन डे मैच भी साथ खेलते रहे थे, जो दोनों महाराष्ट्र के ही रहने वाले हैं, उनके प्रोफेशनल खिलाड़ी होने की बात तो जानते ही होंगे, लेकिन जब कुछ कहने का वक्त़ था तो सभी ने अपने होंठ इसी तरह सिल लिए, गोया वह कुछ जानते न हों.

साफ है कि भारतीय क्रिकेट के इन तमाम सेलिब्रिटीज को किसी तरह का नैतिक द्वंद परेशान नहीं करता होगा. वे निश्चित ही चैन की नींद सोते होंगे.

क्योंकि वह जानते होंगे कि अगर सरकार की बंसी समय-समय पर बजाते रहेंगे, कभी सफाई जगत का एंबेसेडर बन जाएंगे, कभी किसी राज्य की खुशबू की बात विज्ञापनों में करते फिरेंगे, तो उनके बैंक-बैलेंस की कभी जांच नहीं होगी, वह भी अपनी पहले वाली पीढ़ी के भारत के रत्न बने क्रिकेटरों की तरह अपना अर्जित धन कहीं भी जमा रख सकते हैं.

वैसे तरह तरह के उत्पादों की मार्केटिंग से उन्हें फुर्सत मिले या मैनेजमेंट के इशारे पर तरह-तरह के आसन करने से वह फारिग हो जाएं तो वह पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश के क्रिकेट के पूर्व कप्तान मशरफे मुर्तजा की कहानी पढ़ सकते हैं, जिन्होंने पिछले दिनों बयान दिया कि ‘मैंने पिछले दिनों दो पराभव देखे. पहली हार बांग्लादेश के क्रिकेटरों की हुई, जो मैच में हार गए और दूसरी हार समूचे बांग्लादेश की हुई जिसने मेरा दिल तोड़ दिया.’ अपने ऑफिशियल फेसबुक पेज पर उन्होंने यह बात बांग्लादेश में जारी सांप्रदायिक हिंसा के बारे में लिखी, जिसके तहत वहां हिंदू हमलों का शिकार हो रहे हैं.

या कभी 20 वीं सदी के उस कालजयी फोटोग्राफ देख सकते हैं, जिसमें 1968 के मेक्सिको सिटी ओलिंपिक्स की 200 मीटर दौड़ के मेडल प्रदान किए जा रहे थे और तीनों विजेताओं- टॉमी स्मिथ, ज़न कार्लोस और पीटर नोर्मान- ने मिलकर अमेरिका में अश्वेतों के हालात पर अपने विरोध की आवाज़ को पोडियम से ही अनूठे ढंग से संप्रेषित किया था.

अफ्रीकी अमेरिकी टॉमी स्मिथ (स्वर्ण विजेता) व जॉन कार्लोस (कांस्य विजेता) ने पोडियम पर खड़े होकर अपनी मुठ्ठियां ताने चर्चित ब्लैक पावर का सैल्यूट दिया था और तीसरे विजेता पीटर नोर्मान उन दोनों के साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए अपने सीने पर ओलिंपिक फॉर ह्यूमन राइट्स का बैज लगाया था.

यह बात भले ही अब इतिहास हो चुकी हो, मगर यह एक कड़वी सच्चाई है कि इतनी बड़ी गुस्ताखी के लिए तीनों खिलाड़ियों को अपनी वतनवापसी पर काफी कुछ झेलना पड़ा था, अमेरिका जैसी वैश्विक महाशक्ति की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई इस ‘बदनामी’ का खामियाजा उनके परिवार वालों को भी भुगतना पड़ा था.

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)

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