पेगासस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय देश के लोकतंत्र को फिर मज़बूत करने का माद्दा रखता है

पेगासस जासूसी का मामला एक तरह से मीडिया, सिविल सोसाइटी, न्यायपालिका, विपक्ष और चुनाव आयोग जैसे लोकतांत्रिक संस्थानों पर आख़िरी हमले सरीख़ा था. ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फ़ैसले ने कइयों को राहत पहुंचाई, जो हाल के वर्षों में एक अनदेखी बात हो चुकी है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

पेगासस जासूसी का मामला एक तरह से मीडिया, सिविल सोसाइटी, न्यायपालिका, विपक्ष और चुनाव आयोग जैसे लोकतांत्रिक संस्थानों पर आख़िरी हमले सरीख़ा था. ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फ़ैसले ने कइयों को राहत पहुंचाई, जो हाल के वर्षों में एक अनदेखी बात हो चुकी है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

पेगासस मामले में सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले की व्याख्या सिर्फ कानूनी आधार पर नहीं की जा सकती है. इसके निहितार्थ बहुआयामी हैं. यह फैसला घुटन में जी रहे एक लोकतंत्र के लिए हवा के ताजे झोंके के समान है.

पेगासस विवाद एक ऐसे समय में सामने आया जब अभिव्यक्ति की आजादी को लेकेर चिंताएं गहरा रही थीं: चाहे सामाजिक कार्यर्ताओं और मीडियाकर्मियों पर लगाए गए अनेक राजद्रोह और आपराधिक मामले हों, लोकतांत्रिक विरोध का गला घोंटने की कोशिशें हों या ऑनलाइन न्यूज मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के इरादे से इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी कानून में पिछले दरवाजे से किया गया दमनकारी संशोधन.

पेगासस जासूसी का मामला एक तरह से मीडिया, सिविल सोसाइटी, न्यायपालिका, विपक्ष और चुनाव आयोग जैसे लोकतांत्रिक संस्थानों पर आखिरी हमले सरीखा था. ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले ने कइयों को राहत पहुंचाई, जो हाल के वर्षों में एक अनदेखी बात हो गई है.

कुछ वरिष्ठ वकीलों ने कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए इसे ‘ऐतिहासिक’ और ‘वॉटरशेड ’ जैसे विशेषणों से नवाजा. इसे प्रथमदृष्टया मोदी सरकार पर आरोपपत्र की स्वीकृति के तौर पर देखा गया. आम नागरिकों के लिए भी यह कोई कम राहत की बात नहीं थी.

द हिंदू अखबार के पूर्व चेयरमैन और पेगासस मामले के एक याचिकाकर्ता एन. राम ने इसे आजाद अभिव्यक्ति ओर खोजी पत्रकारिता के पक्ष में बड़ी जीत बताया.

पेगासस मामले की जांच करने के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन करने के अंतरिम आदेश ने इतनी आश्वस्ति इसलिए भी जगाई क्योंकि सिविल सोसाइटी, सुप्रीम कोर्ट से अपने नये मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में मोदी सरकार को एक उचित संदेश दिए जाने का इंतजार कर रहा था. इस अंतरिम आदेश के साथ एक तरह से कोर्ट ने इस मनोवैज्ञानिक जरूरत को पूरा करने का काम किया, हालांकि ऐसा धीरे-धीरे किस्तों में ही हो सकता है.

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश और इसके सतर्कता के साथ तैयार किए गए नैरेटिव में छिपा हुआ संदेश इसकी शुद्ध कानूनी व्याख्या से कम महत्वपूर्ण नहीं है. इस आदेश ने यह साफ कर दिया है कि निजता और मुक्त अभिव्यक्ति ऐसे संवैधानिक मूल्य हैं जिनकी बलि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर नहीं चढ़ाई जा सकती है.

इस आदेश का यह साफ संदेश है कि इन मूल्यों सर्वोच्चता के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता है.

एक बेहद प्रतिष्ठित जज की अध्यक्षता में गठित की गई तीन सदस्यीय समिति को दिया गया दायित्व और अधिकार अपने आप में एक अन्य मजबूत संदेश है. कुछ संशयवादियों का कहना है कि सरकार इस समिति के रास्ते में उसी तरह से रुकावटें डालने का काम करेगी, जैसे इसने मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ के साथ पहले किया था.

अगर ऐसा होता भी है, तो भी जस्टिस रवींद्रन को सच सामने लाने के लिए भारत और विदेश से विशेषज्ञों को बुलाने का पर्याप्त अधिकार दिया गया है. उन्हें जांच करने का अधिकार दिया गया है और पेगासस जासूसी की जांच करने में मदद के लिए वे सरकार के मोहताज नहीं हैं.

मिसाल के लिए, जस्टिस रवींद्रन समिति पूर्व इंटेलिजेंस अधिकारियों को पेश होने का समन भेज सकते हैं और उनसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए अधिकार के तहत सूचनाएं मांग सकते हैं. अगर पेगासस के इस्तेमाल से परिचित शीर्ष सेवानिवृत्त अधिकारी चुप रहने का फैसला करते हैं और इसके अस्तित्व को नकारते नहीं हैं, तो यह तथ्य भी एक निश्चित दिशा में इशारा करेगा. दरअसल, जब पूरी जांच होती है, तब कई तरह की संभावनाएं बनती हैं.

महत्वपूर्ण तरीके से सुप्रीम कोर्ट का फैसला समिति से 2019 की उस घटना की भी जांच करने के लिए कहता है, जब कई पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के वॉट्सऐप खाते में पेगासस का इस्तेमाल करके सेंधमारी की गई थी. सरकारी अधिकारी ने आधिकारिक तौर पर इसे स्वीकार किया था और वॉट्सऐप को इसके बारे में सूचित किया था, जिसने इस दिशा में अपनी तरफ से कार्रवाई की थी.

लेकिन सरकार ने निजता और मुक्त अभिव्यक्ति पर ऐसे हमले को लेकर अपनी जांच नहीं शुरू की. यहां तक कि इसने इजरायली कंपनी एनएसओ ग्रुप को भी इस संबंध में ज्यादा जानकारी देने के लिए तलब नहीं किया. यह सरकार द्वारा जानबूझकर बरती गई उदासीनता को दिखाता है.

यहां तक कि वर्तमान मामले में भी नरेंद्र मोदी सरकार दुनिया की एकमात्र सरकार है, जो पेगासस के इस्तेमाल को लेकर पूरी तरह से नकार की मुद्रा में है, जबकि कई पश्चिमी सरकारों ने न सिर्फ पेगासस के इस्तेमाल को स्वीकार किया है, बल्कि इजरायली कंपनी से से स्पष्टीकरण भी मांगा है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इस मामले की जांच के लिए मजबूर करने वाले कारण के तौर पर विदेशी मुल्कों द्वारा जाहिर की गई चिंताओं के साथ-साथ भारत द्वारा इस मामले का ‘अस्पष्ट और अनेक जबानों में इनकार’ का भी हवाला दिया है.

जस्टिस रवींद्रन कनाडा के सिटिजन लैब को भी आमंत्रित कर सकते हैं, जिसकी तकनीकी मदद ने वॉट्सऐप को 2019 के पेगासस जासूसी मामले में कैलिफोर्निया में एनएसओ समूह के खिलाफ केस दायर करने में मदद की है. अमेरिकी अदालत ने एनएसओ के इस दावे को खारिज कर दिया कि एक इजरायली कंपनी विदेशी न्यायालय के क्षेत्राधिकार में नहीं आता है. अमेरिकी अधिकारक्षेत्र का दावा इस आधार पर किया गया कि यह जासूसी स्थानीय निजता और डेटा प्रोटेक्शन कानूनों के उल्लंघन है.

अहम तरीके से सुप्रीम कोर्ट की समिति निजता के उल्लंघन को रोकने और डेटा सुरक्षा के लिए वर्तमान कानूनी ढांचे पर भी विचार करेगी. इसे संसद इस संबंध में व्यापक कानून न बनने तक नागरिकों की निजता की रक्षा के लिए अंतरिम कानूनी सिफारिशें करने के लिए कहा गया है.

यह भी निजता और मुक्त अभिव्यक्ति की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा. कुल मिलकार यह समिति विभिन्न आयामों को समेटने वाली विस्तृत सिफारिश कर सकती है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट अपने अंतिम निर्णय के दौरान विचार कर सकता है. इस मामले में आशावादी होने की काफी गुंजाइश है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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