अलविदा! आरंभिक आधुनिकता के इतिहासकार रजत दत्ता…

स्मृति शेष: मध्यकालीन भारत के इतिहासकार और जेएनयू के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ के प्रोफेसर रहे रजत दत्ता का बीते दिनों निधन हो गया. अठारहवीं सदी से जुड़े इतिहास लेखन में सार्थक हस्तक्षेप करने वाले दत्ता ने इस सदी से जुड़ी अनेक पूर्वधारणाओं को अपने ऐतिहासिक लेखन से चुनौती दी थी.

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इतिहासकार और शिक्षाविद रजत दत्ता (फोटो साभार: फेसबुक/@dr.rdatta)

स्मृति शेष: मध्यकालीन भारत के इतिहासकार और जेएनयू के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ के प्रोफेसर रहे रजत दत्ता का बीते दिनों निधन हो गया. अठारहवीं सदी से जुड़े इतिहास लेखन में सार्थक हस्तक्षेप करने वाले दत्ता ने इस सदी से जुड़ी अनेक पूर्वधारणाओं को अपने ऐतिहासिक लेखन से चुनौती दी थी.

इतिहासकार और शिक्षाविद रजत दत्ता. (फोटो साभार: फेसबुक/@dr.rdatta)

मध्यकालीन भारत के इतिहासकार प्रोफेसर रजत दत्ता का 30 अक्टूबर, 2021 को पुणे में कैंसर की बीमारी से असमय निधन हो गया. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ में प्रोफेसर रहे रजत दत्ता ने आर्थिक व सामाजिक इतिहास के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया.

सेंट स्टीफेंस कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने जेएनयू से ही सत्तर-अस्सी के दशक में एमए और एमफिल किया. बाद में, वर्ष 1990 में उन्होंने के किंग्स कॉलेज (लंदन यूनिवर्सिटी) से पीएचडी की, जहां प्रसिद्ध इतिहासकार पीटर जेम्स मार्शल उनके शोध-निर्देशक रहे.

वर्ष 1992 में जेएनयू में शिक्षक बनने से पूर्व रजत दत्ता लगभग एक दशक तक पश्चिम बंगाल के बर्धमान यूनिवर्सिटी में इतिहास के शिक्षक रहे.
आर्थिक इतिहास के साथ ही आरंभिक आधुनिकता, औपनिवेशिक काल का शुरुआती दौर व ब्रिटिश साम्राज्य, आरंभिक आधुनिक काल में विश्व और भारत की अर्थव्यवस्था और पर्यावरणीय इतिहास में उनकी विशेष दिलचस्पी रही.

जेएनयू में उनके द्वारा पढ़ाए जाने वाले ‘मध्यकालीन विश्व’, ‘मध्यकालीन भारत में ग्रामीण समाज और अर्थव्यवस्था’ और ‘अठारहवीं सदी के भारत में राज्य, समाज और अर्थव्यवस्था’ जैसे पेपर छात्रों के पसंदीदा रहे. वे वर्ष 2013-15 के दौरान जेएनयू के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ के चेयरपर्सन भी रहे.

उन्होंने वर्ष 2013 में आयोजित हुए पंजाब हिस्ट्री कांफ्रेंस के 45वें वार्षिक अधिवेशन के मध्यकालीन इतिहास संभाग की अध्यक्षता की. इसके साथ ही वे मध्यकालीन इतिहास की पत्रिका ‘द मिडिएवल हिस्ट्री जर्नल’ के संपादक भी रहे. वर्ष 2001-02 के दौरान वे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में स्मट्स विज़िटिंग फेलो भी रहे.

अठारहवीं सदी का आर्थिक इतिहास: विभिन्न पहलू

अठारहवीं सदी से जुड़े इतिहास लेखन में रजत दत्ता ने सार्थक हस्तक्षेप किया और इस सदी से जुड़ी अनेक पूर्वधारणाओं को अपने ऐतिहासिक लेखन से चुनौती दी.

मसलन, वर्ष 2000 में प्रकाशित हुई अपनी पुस्तक ‘सोसाइटी, इकोनॉमी एंड द मार्केट’ में रजत दत्ता ने अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में ग्रामीण बंगाल की अर्थव्यवस्था के वाणिज्यीकरण का बेहतरीन इतिहास लिखा. जिसमें उन्होंने अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी के राजस्व दस्तावेज़ों का इस्तेमाल करते हुए ग्रामीण बंगाल में कृषि उत्पादन, उपभोग और कृषि के वाणिज्यीकरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया को रेखांकित किया.

इन आर्थिक प्रक्रियाओं ने न सिर्फ़ बंगाल के देहाती समाज व अर्थव्यवस्था, किसानों, बाज़ार और स्थानीय व्यापार को गहरे प्रभावित किया.

बल्कि इस दौरान बंगाल अभूतपूर्व वाणिज्यीकरण के दौर से भी गुजरा. कहना न होगा कि अठारहवीं सदी में हुए इन बदलावों ने उन्नीसवीं सदी में वाणिज्यीकरण के उस नए दौर की आधारशिला रखी, जिसमें बंगाल में नील, जूट और चाय जैसी वाणिज्यिक फसलों का पदार्पण हुआ.

उल्लेखनीय है कि अठारहवीं सदी से जुड़े इतिहास लेखन में न सिर्फ़ इस सदी को ‘संकट काल’ के रूप में देखा गया, बल्कि प्लासी के युद्ध के बाद बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किए गए आर्थिक शोषण और उसके फलस्वरूप पड़े 1769-70 के अकाल को भी रेखांकित किया गया, जिसमें लगभग एक करोड़ लोग काल कवलित हो गए. इस पूरे दौर में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के संसाधनों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक, वाणिज्यिक और सैन्य हितों को साधने के लिए भी किया.

उल्लेखनीय है कि इतिहासकार बिनय भूषण चौधरी ने वर्ष 1964 में प्रकाशित हुई अपनी किताब ‘ग्रोथ ऑफ कमर्शियल एग्रीकल्चर इन बंगाल’ में अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में बंगाल के कृषि वाणिज्यीकरण की इस पूरी प्रक्रिया के बारे में विस्तारपूर्वक लिखा था.

शुरुआती दौर में हुए आर्थिक इतिहास लेखन की सीमा को रेखांकित करते हुए रजत दत्ता ने लिखा है कि इसमें आर्थिक इतिहास को प्रायः राजस्व इतिहास तक सीमित कर दिया जाता है, जिसमें पूरा ज़ोर कंपनी द्वारा राजस्व उगाही और अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में बंगाल में बदलती हुई भू-स्वामित्व की संरचना को समझने पर होता है.

रजत दत्ता ने राजस्व व भू-स्वामित्व पर केंद्रित इस इतिहास को आर्थिक उत्पादन, ख़ासकर कृषि उत्पादन के संदर्भ में रखकर समझने पर बल दिया. इसी क्रम में, उन्होंने बंगाल में अठारहवीं सदी में बटाईदारों की संख्या में वृद्धि और कृषि उत्पादन में अनाज व्यापारियों के बढ़ते दखल को भी रेखांकित किया.

कृषि के वाणिज्यीकरण का इतिहास लिखते हुए रजत दत्ता ने उन फसलों पर अपना ध्यान केंद्रित किया, जो रोज़मर्रा के इस्तेमाल में आती थीं और यह दर्शाया कि अठारहवीं सदी के आख़िरी दशकों में बंगाल की कृषि अर्थव्यवस्था और ग्रामीण समाज में महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक बदलाव आ रहे थे.

उनके अनुसार, इन बदलावों में राजनीतिक संक्रमण की वजह से राज्य और बाज़ार के संबंधों में आती तब्दीलियों, कृषि उत्पादों की क़ीमतों में वृद्धि, अभाव और अकाल की भी बड़ी भूमिका थी.

बंगाल में अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में अनाजों के स्थानीय व्यापार और बंगाल की कृषि अर्थव्यवस्था में इसकी भूमिका पर लिखे लेख में रजत दत्ता ने अनाज व्यापारियों और किसानों के संबंध और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में इसके निहितार्थों को उजागर किया.

उनके अनुसार, अनाज का यह व्यापार स्थानीय व्यापारियों द्वारा किया जा रहा था, जिसमें कंपनी के अधिकारियों का कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं था. अनाज का यह व्यापार शहर, मुफ़स्सिल और गांवों के बीच एक कड़ी की तरह भी काम कर रहा था, जिसमें अनाज के व्यापारी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे थे. लेकिन देहात में उभर रही इस बाज़ार व्यवस्था में अनाज व्यापारी काश्तकारों पर हावी हो चले थे, जो कृषि उत्पादन में वणिक पूंजी के दखल का भी संकेत देता है.

अठारहवीं सदी में बंगाल में अकाल और अनाज के अभाव के बारे में लिखे एक लेख में रजत दत्ता ने इन संकटों के लिए उत्तरदायी परिस्थितियां तैयार करने में कंपनी की नीतियों के साथ-साथ व्यापारियों और बाज़ार के गठजोड़ को भी ज़िम्मेदार ठहराया. उक्त लेख में रजत दत्ता ने अनाज व्यापारियों की रणनीतियों और उनके व्यवहार का भी गहन अध्ययन किया. साथ ही, बंगाल के इन बाज़ारों, उनसे जुड़ी क्षेत्रीयता की अवधारणा के मध्यकाल से आधुनिक काल में संक्रमण की ऐतिहासिक परिघटना को भी उन्होंने रेखांकित किया.

ये मध्यकालीन बाज़ार एक अत्यंत प्रतिस्पर्धी क्षेत्र की तरह थे, जहां प्राधिकार और स्वामित्व की विभिन्न धारणाएं- परस्पर टकरा रही थीं. व्यापारी, स्थानीय ज़मींदार और कंपनी आदि तमाम शक्तियां इस पर क्षेत्राधिकार हासिल करने के लिए एक-दूसरे से होड़ लगा रही थीं.

मध्यकालीन अर्थव्यवस्था के आरंभिक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में संक्रमण की प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए अपने एक अन्य लेख में रजत दत्ता ने मध्यकालीन और औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की कुछ ढांचागत समानताओं, विशेषकर राजकोषीय व्यवस्था की साम्यता को भी रेखांकित किया.

उनके अनुसार, ये दोनों ही व्यवस्थाएं राजस्व उगाही की मौद्रिक प्रणाली पर निर्भर थीं और दोनों ही व्यवस्थाओं द्वारा इन संसाधनों का इस्तेमाल अपने सैन्य व राजकोषीय उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जा रहा था.

इन समानताओं के बावजूद मध्यकालीन अर्थव्यवस्था और आरंभिक औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में जो बुनियादी अंतर था, वह था औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में राजकोषीय लचीलेपन का अभाव और इसके द्वारा वैश्विक नेटवर्क का इस्तेमाल करते हुए भारत में अर्जित मुनाफ़े का इंग्लैंड को स्थानांतरण. इसके साथ ही औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था द्वारा अपने वाणिज्यिक हितों को साधने के लिए राजनीति का भी बखूबी इस्तेमाल किया जा रहा था.

आरंभिक आधुनिकता का काल

वर्ष 2014 में प्रकाशित अपने एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण लेख में रजत दत्ता ने सोलहवीं सदी के भारत में मुगल राज्य द्वारा आरंभिक आधुनिक अर्थव्यवस्था के निर्माण की परिघटना को दर्शाया. उन्होंने दिखाया कि कैसे मुगल राज्य कृषि संबंधी प्रशासन के लिए नई रणनीतियां बना रहा था और मुगल शासन नीतिगत नवाचार के जरिये कैसे अपनी सत्ता को सुदृढ़ करते हुए, राजस्व संग्रहण के साथ विविधताओं को भी संरक्षित कर रहा था.

इस ऐतिहासिक परिघटना की व्याख्या करने के लिए रजत दत्ता ने ‘मध्यकालीन’ की धारणा को नाकाफ़ी बताया और इसकी जगह ‘आरंभिक आधुनिकता’ की धारणा का इस्तेमाल किया, जो उनके अनुसार तब तक एक साझा वैश्विक अनुभव बन चुकी थी.

एक बेहतरीन इतिहासकार और शिक्षक होने के साथ ही रजत दत्ता अकादमिक जगत और विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के लिए सदैव प्रतिबद्ध रहे. जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन के जनरल-सेक्रेटरी रहे रजत दत्ता ने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी पर वर्तमान सत्ता के इशारे पर हो रहे हमलों का मुखर विरोध किया. वे जेएनयू के उन शिक्षकों में से थे, जो छात्रों के साथ उनकी वाजिब मांगों की समर्थन में कंधे से कंधा मिलाकर हमेशा खड़े रहे.

इसका ख़ामियाज़ा भी उन्हें भुगतना पड़ा, जब जनवरी 2021 में सेवानिवृत्ति के बाद जेएनयू प्रशासन ने उन्हें पेंशन देने में अड़ंगा लगाया, जिसके विरुद्ध उन्होंने उच्च न्यायालय में मुक़दमा दायर किया था, जो अब भी दिल्ली उच्च न्यायालय में लंबित है.

अलविदा, प्रोफेसर रजत दत्ता! आपकी किताबें, कक्षाएं और छात्रों के साथ आपका गर्मजोशी भरा दोस्ताना रवैया आपकी याद हमेशा बरक़रार रखेंगे.

(लेखक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में पढ़ाते हैं.)

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