‘बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने देंगे’ का क्या मतलब है?

बीते कई दशकों से एक साधन-संपन्न और बड़ा केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के बावजूद बीएचयू पूर्वांचल में ज्ञान और स्वतंत्रता की संस्कृति का केंद्र क्यों नहीं बन सका!

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बीते कई दशकों से एक साधन-संपन्न और बड़ा केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के बावजूद बीएचयू पूर्वांचल में ज्ञान और स्वतंत्रता की संस्कृति का केंद्र क्यों नहीं बन सका!

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बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के गेट पर प्रदर्शन के दौरान तैनात पुलिसकर्मी. फोटो: पीटीआई

विश्वविद्यालय परिसर में छेड़खानी और बदसलूकी के खिलाफ आवाज उठाती अपनी छात्राओं पर भीषण पुलिस लाठीचार्ज को जायज ठहराते हुए बीएचयू के वाइस चांसलर डॉ. गिरीश चंद्र त्रिपाठी को एक टीवी चैनल पर सुनना मेरे लिये बेहद दुखद क्षण था. ऐसा लग रहा था, उन्हें अपने पद की गरिमा और बौद्धिक महत्ता का आभास तक न हो. वह किसी बड़बोले निगम पार्षद की तरह बोल रहे थे, जो क्षेत्र की समस्याओं को लेकर किसी द्वारा सवाल उठाए जाने पर अपने इलाके की भौगोलिक और जनसंख्यात्मक विशालता का हिसाब देने लगता है.

वाइस चांसलर बताने लगे कि बीएचयू कितने एकड़ में फैला है, कितने छात्र हैं, कितने अध्यापक और कितने सारे संस्थान. लेकिन जो बात वह नहीं बता सके या नहीं बताना चाहते थे, वह ये कि बीते कई दशकों से साधन-संपन्न एक बड़ा केंद्रीय विश्वविद्यालय होने के बावजूद बीएचयू पूर्वांचल में ज्ञान और स्वतंत्रता की संस्कृति का केंद्र क्यों नहीं बन सका!

बहुत सारे लोग जेएनयू को दिल्ली अवस्थित एक ‘टापू’ कहते हैं, जो अपने आसपास के समाज से सर्वथा भिन्न है. मैं भी मानता हूं, जेएनयू एक ‘टापू’ है- ज्ञान, समझ, और स्वतंत्रता का टापू, जिसके बाहर के समाज के बड़े हिस्से में आज भी अज्ञान, नामसमझी और सामंती दबंगई का काला समंदर हिलोरें मारता रहता है. बाहर का समाज अनुकूल न होने के बावजूद जेएनयू अब तक खड़ा है और बर्बाद करने के अनेक प्रयासों के बावजूद आज तक कायम है.

किसी भी विकासशील समाज या मुल्क में शिक्षा और ज्ञान के बड़े केंद्र, चाहे वह विश्वविद्यालय हों या शोध संस्थान- सोच, खोज और समझ के ‘टापू’ ही होते हैं. पिछड़ेपन, अंधविश्वास और संकीर्णताओं से ग्रस्त अपने समाज को प्रगति, ज्ञान और सभ्यतागत विकास के जरूरी विचारों और खोजों को सामने लाने की इनसे अपेक्षा होती है.

भारत में जेएनयू हो या टाटा इंस्टीट्यूट, आईआईटी हों या आईआईएम, इनको स्थापित करते वक्त संस्थापकों के यही सपने थे. बीएचयू को स्थापित करते वक्त उसके संस्थापकों के सपने भी समाज को शिक्षित करने के ही रहे होंगे.

हालांकि इसके संस्थापकों में सबसे अहम रहे पंडित मदनमोहन मालवीय वैचारिक रूप से व्यापक सोच के व्यक्ति नहीं थे. वह हिंदू महासभा के सक्रिय नेता थे. बीएचयू के शुरुआत दौर की एक शैक्षणिक-घटना इसके संचालकों के सोच की संकीर्णता का ठोस प्रमाण है.

महादेवी वर्मा (जो बाद में हिंदी की विख्यात कवयित्री, विचारक और लेखिका के रूप में सामने आईं) को विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में एम.ए. करने की इजाजत नहीं दी गई, क्योंकि वे स्त्री थीं और ब्राह्मण भी नहीं थीं. लेकिन स्थापना के कुछ समय बाद संस्थान के कुछ बड़े प्रोफेसरों की तरफ से विरासत में मिली संकीर्णताओं से उबरने की कोशिश भी की गई.

अनेक बड़े विद्वान और बुद्धिजीवी संस्थान से जुड़ते गए. महान वैज्ञानिक और विश्वविद्यालय के किंवदतीय प्रोफेसर शांति स्वरूप भटनागर द्वारा लिखित बीएचयू का कुलगीतः ‘मधुर मनोहर अतीव सुंदर, यह सर्वविद्या की राजधानी’ इसका साफ संकेत है.

पचास-साठ के दशक दौर में कई अच्छे प्रयास हुए पर यह सिलसिला बहुत आगे नहीं बढ़ सका. एक विश्वविद्यालय के रूप में बीएचयू को पूर्वांचल में ज्ञान, विवेक और स्वतंत्रता की संस्कृति का जैसा टापू बनकर उभरना चाहिए था, उसमें वह नाकाम रहा.

इसका बड़ा कारण था कि उसके नेतृत्व में पूर्वांचल के गांवों-कस्बों-नगरों की तरह जाति और संप्रदाय, खासकर सवर्ण-हिन्दुत्व (मनुवादी) सोच का वर्चस्व रहा. यही कारण है कि इस परिसर में दलित-बहुजन व स्त्रियां हमेशा हाशिये पर रहीं और न्याय और बराबरी की तनिक आवाज उठाने पर उन्हें निर्मम उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता रहा.

क्या किसी लोकतांत्रिक देश में विश्वविद्यालय जैसे एक ऐसे परिसर की कल्पना की जा सकती है, जहां छात्रों के होस्टल में तो शाकाहारी-मांसाहारी, हर तरह का भोजन मिले लेकिन छात्राओं के होस्टल में मांसाहार वर्जित हो? लेकिन ‘विश्वगुरु’ बनने का सपना देखते डिजिटल इंडिया के बीएचयू में लड़कियों के होस्टल में मांसाहार निषेध है.

परिसर में छेड़खानी और बदसलूकी का सिलसिला नया नहीं है. इस बार नई बात यह हुई कि सभी जाति, वर्ग और समुदाय से आने वाली लड़कियों ने सड़क पर आकर बदसलूकी और छेड़खानी के खिलाफ पुरजोर ढंग से आवाज उठाई.

वे हॉस्टल से निकलकर बीएचयू के मुख्य गेट पर आईं और धरने पर बैठ गईं. यह किसी बड़ी बगावत से कम नहीं था. हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों को प्रवेश के समय ‘निर्देशावली’ दी जाती है, जिसमें एक नियम ये भी है कि वे किसी तरह की राजनीतिक गतिविधि, विरोध या धरना-प्रदर्शन आदि में शामिल नहीं होंगी! कुछ लोगों को छात्राओं की ये गतिविधियां ‘जेएनयू जैसी’ लगीं.

बीएचयू के वाइस चांसलर साहब से लेकर बनारस के कई अखबारों ने भी इस जुमले का बार-बार इस्तेमाल किया कि ‘काशी के महान हिंदू विश्वविद्यालय को किसी भी कीमत पर जेएनयू नहीं बनने दिया जायेगा!’

उन्हें मालूम है कि जेएनयू किस मानस और सोच का शैक्षिक परिसर है. जाति-धर्म, लिंग और संकीर्णता की अन्य दीवारों और दूरियों पर निरंतर चोट करने वाला परिसर. एक ऐसा परिसर जो ज्ञान को बेहतर समाज के निर्माण के बड़े लक्ष्य से जोड़कर देखने की कोशिश करता है, जो अपने छात्रों-शिक्षकों के बीच वैज्ञानिक मानस, लोकतांत्रिक सोच और सेक्युलर मिजाज के विकास जैसे संवैधानिक संकल्पों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराता है.

यही कारण है कि इस परिसर को बीते तीन सालों से नष्ट करने की ताबड़तोड़ कोशिशें हो रही हैं. कथित राष्ट्रवादी यानी सवर्ण-हिंदुत्वा सोच (मनुवाद) को छात्रों के बीच मान्यता दिलाने के लिए कभी परिसर में युद्धक टैंक रखने की बात की जाती है तो कभी बीएसएफ की चौकी स्थापित करने का सुझाव दिया जाता है. पर मौजूदा सत्ताधारी भी अपनी तमाम नफरत के बावजूद जेएनयू की शैक्षिक हैसियत को खारिज नहीं कर पाते.

केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के ताजा मूल्यांकन-सूचकांक में इस वक्त भी जेएनयू देश का नंबर-वन विश्वविद्यालय है. ‘राष्ट्रवादियों’ की मौजूदा सरकार में विदेश सचिव से लेकर औद्योगिक विकास सचिव जैसे दर्जनों बड़े नीति-निर्धारक पदों पर जेएनयू के पूर्व छात्र विराजमान हैं.

जेएनयू को ‘देशद्रोहियों का अड्डा’ कहकर कोसने वालों का काम भी जेएनयू से निकली प्रतिभाओं के बगैर नहीं चलता. पर दारोगाई अंदाज में विश्वविद्यालय चलाने वाले बीएचयू के हुक्मरान कहते हैं, ‘हम अपने बीएचयू को जेएनयू नहीं बनने देंगे.’

इसका सिर्फ एक ही अर्थ है कि वे बीएचयू को जातिवादी-सांप्रदायिक वर्चस्व और सामंती ऐंठन से मुक्त स्वतंत्रता, बंधुत्व, समानता जैसे महान मानवीय मूल्यों से लैस सुसंगत सोच और ज्ञान का बड़ा केंद्र नहीं बनने देंगे.

बीएचयू की एक विडंबना इसके बाहर के राजनीतिक-सामाजिक परिवेश में व्याप्त दशकों की वैचारिक गतिरोध भी है. एक जमाने में, खासतौर पर साठ से अस्सी के दशक के बीच पूर्वांचल अपने सवालों को लेकर उठता नजर आया, खासकर गाजीपुर, आजमगढ़, बनारस और मिर्जापुर के इलाके में. लेकिन जल्दी ही बदलाव की वह बेचैनी और जन-सक्रियता की सुगबुगी सदियों से कायम सवर्ण-सामंती वर्चस्व के नये हमलों के आगे दब सी गई.

इसमें जाति-आधारित जकड़बंदी, आपराधिक गिरोहों के उभार और फिर सांप्रदायिकता के देशव्यापी अंधड़ के चलते. इस अंधड़ के देश में दो-तीन बड़े केंद्र उभरे, उनमें पूर्वांचल भी एक था.

अयोध्या में मंदिर-मस्जिद विवाद और बाबरी मस्जिद ध्वंस अभियान का पूर्वांचल की राजनीतिक संस्कृति पर सबसे भयानक असर पड़ा. छिटपुट जनांदोलनों ने आम लोगों में जो नई चेतना पैदा की थी, वह पुंछती नजर आई.

‘हिन्दुत्व’ की नई लहर ने अज्ञानता, अहमन्यता और अंधविश्वास के माहौल को फिर से ताकत दी. इससे सवर्ण सामंती वर्चस्व लगभग चुनौती-विहीन हो गया. उभरते जनांदोलन बिखर गए. अपार संभावनाओं के बावजूद पूर्वांचल न तो कोई प्रभावशाली नया नेतृत्व पैदा कर सका और न कोई नया जन आंदोलन.

जमीनी स्तर पर बड़े बदलाव की संभावनाएं ध्वस्त हो गईं. अगर पूर्वांचल सत्तर-अस्सी के दशक में नई ऊर्जा के साथ बड़ी करवट लेता तो बीएचयू का परिवेश भी बदल सकता था. यह वह दौर है, जब इलाहाबाद और बनारस में छात्र युवाओं के बीच नया उभार दिखा था. कुछ समय के लिए लगा भी कि बीएचयू बदल जाएगा.

छात्र-आंदोलनों की अगुवाई तब समाजवादी और कुछ समय के लिए वाम-धारा के युवाओं ने की. लेकिन धर्मांधता, जातिवादी संकीर्णता और अंततः मंदिर-मस्जिद विवाद के नाम पर उभारे गए सांप्रदायिक बवाल ने धारा ही बदल डाली.

बीएचयू अपने स्तर से जेएनयू की तरह नये विचार और संस्कृति का ‘टापू’ कभी नहीं था. पूर्वांचल की राजनीति और समाज की गत्यात्मकता ही उसे नई वैचारिकी की प्रेरणा दे सकती थी, जो संभव नहीं हुआ. पता नहीं, पूर्वांचल की तरह बीएचयू को भी नये विचार और नये नेतृत्व का कब तक इंतजार करना होगा!

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