उत्तर प्रदेश: दलित-ओबीसी समुदायों की बेरुख़ी क्या भाजपा के लिए मुश्किल का सबब बन सकती है

दलित, पिछड़ी और कमज़ोर मानी जाने वाली जातियां, जिन्होंने 2014 के बाद 2017 और 2019 में भाजपा की हिंदुत्व की लहर में बहकर उसे समर्थन दिया, 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले ही उनका पार्टी से मोहभंग हो गया है. मुस्लिम आबादी के साथ इन समुदायों का गठजोड़ भाजपा के लिए बड़ा संकट खड़ा कर सकता है.

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हालिया वाराणसी दौरे पर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ. (फोटो साभार: पीआईबी)

दलित, पिछड़ी और कमज़ोर मानी जाने वाली जातियां, जिन्होंने 2014 के बाद 2017 और 2019 में भाजपा की हिंदुत्व की लहर में बहकर उसे समर्थन दिया, 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले ही उनका पार्टी से मोहभंग हो गया है. मुस्लिम आबादी के साथ इन समुदायों का गठजोड़ भाजपा के लिए बड़ा संकट खड़ा कर सकता है.

हालिया वाराणसी दौरे पर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ. (फोटो साभार: पीआईबी)

उत्तर प्रदेश (यूपी) और उत्तर-मध्य भारत में 2014 के लोकसभा चुनावों के पहले राष्ट्रवाद व हिंदुत्व ब्रांड की मोदी लहर ने जातीय राजनीति के समीकरणों को बुरी तरह ध्वस्त किया था. ढाई दशक से दलित राजनीति के केंद्र में रही बसपा नेता मायावती को इस नए हिंदुत्व उबाल से सबसे ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी.

उनका दलित वोट बैंक साथ छोड़ गया. इन तमाम झटकों से मायावती अब तक नहीं उबर पाईं. हर राज्य में सियासी किरदार की दौड़ में लगातार पिछड़ रही हैं.

दीगर है कि बीते दो लोकसभा चुनाव के साथ ही पिछले विधानसभा चुनाव में सरकार से बाहर होने के साथ ही समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस की भी बुरी गत हुई. दलित, पिछड़ों, अतिपिछड़ों के करीब 70 फीसदी वोटों का बड़ा हिस्सा भाजपा के पाले में जाने से सपा के साथ यादव- मुस्लिम गठजोड़ का तिलिस्म तो टूटा ही, उसके साथ अन्य पिछड़ी जातियों की गोलबंदी को बड़ी शिकस्त मिली.

भाजपा के इस अति हिंदुत्व की आंधी का मुकाबला करने के लिए 2017 में अखिलेश और राहुल गांधी ‘यूपी के लड़के’ बनकर यहां के परदे पर नमूदार हुए. इन दोनों की ‘बेमेल जोड़ी’ को मतदाताओं ने भाजपा की मोदी लहर के आगे सिरे से ठुकरा दिया. सपा-कांग्रेस दोनों को ही करारी चुनावी हार के नतीजों से एहसास हुआ और उनका अरसे से साथ देने वाला ठोस व परंपरागत वोट बैंक भाजपा प्रचंड हिंदुत्व की भेंट चढ़ गया. सपा के खिलाफ मतदाताओं के रुझान से कांग्रेस भी अपनी कई मजबूत सीट गवां बैठी.

जाहिर है कि देश कि सबसे बड़ी आबादी वाले यूपी में ब्राह्मण, राजपूत व बनिया जैसी उच्च जातियों के वर्चस्व पर टिकी भाजपा ने 8 साल से हिंदुत्व ब्रांड की नई सोशल इंजीनियरिंग से गैर यादव पिछड़ों, दलितों व दर्जनों छोटी जातियों में अपनी मजबूत पैठ बना दी. लेकिन भाजपा के साथ गई ये छोटी-छोटी लेकिन मजबूत जाति आधार वाली पार्टियां लगातार उसका साथ छोड़ रही हैं.

राम मंदिर आंदोलन में भी दूरगामी राजनीति के तहत ही मंडल- मंदिर दौर में यूपी बिहार में उभरे यादव -कुर्मी पिछड़े गठबंधन का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने सोची-समझी रणनीति के तहत ही लोध व पिछड़ों में लोकप्रिय कल्याण सिंह को आगे बढ़ाया.

यह गैर यादव पिछड़ों को भाजपा के साथ सियासी तौर पर लामबंद करने की मजबूत पहल थी. यही वजह थी बाकी जातियों के यादव- कुर्मी-मुस्लिम गठजोड़ का भाजपा मुकाबला कर सकी.

यूपीए एक और दो के दौरे में कांग्रेस की केंद्र की राजनीति में ताकत बढ़ने में यूपी की जातीय सियासत में ठहराव व कई वजहों से भाजपा के जनाधार मे तेज गिरावट की अहम भूमिका रही लेकिन मोदी के पर्दापण से पासा ऐसा पलटा कि 2014 लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व में लिपटी राष्ट्रवाद की आंधी में भाजपा 10 सीटों से बढ़कर 71 सीटों पर पहुंच गई. जबकि समाजवादी पार्टी 23 सीटों से सिमटकर 5 तक कांग्रेस राहुल गांधी की अमेठी और सोनिया गांधी की रायबरेली की 2 सीटें ही बचा पाए.

प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खुद ही वाराणसी से चुनाव लड़ने की रणनीति भी यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त आधार बनी. हिंदुत्व की इस आंधी में सबसे बुरी हार बसपा की हुई. 2009 में 20 लोकसभा सीटों के बावजूद 2014 में मायावती यूपी में अपना खाता तक नहीं खोल पाईं और शून्य पर सिमट गईं.

इसी तरह पश्चिमी यूपी में जाट राजनीति के सिरमौर रहे चौधरी अजीत सिंह के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय लोकदल 2009 की पांच सीटों के मुकाबले 2014 में अपनी सभी सीटों से हाथ धो बैठा. जबकि पूर्वांचल में पिछड़े पटेल समुदाय की पार्टी- अपना दल भी भाजपा के साथ गठबंधन में 2 सीटें हासिल करने में कामयाब रही.

ज़ाहिर है भाजपा और संघ परिवार में नरेंद्र मोदी की पिछड़ी जाति के समीकरण को घोर हिंदुत्व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जामा पहनाकर यूपी में ऐसा नायाब प्रयोग कर दिया, जिसके आगे आपस में बिखरी हुई और पारस्परिक अहंकार के आगोश में लिपटी विपक्षी पार्टियों का पत्ता साफ़ हो गया.

रोचक बात यह थी कि यूपी में उच्च जातियों के साथ दलित-पिछड़ों का भारी समर्थन हासिल करने के बाद भी भाजपा ने 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में अपने किसी चेहरे को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश नहीं किया. भाजपा को एहसास था कि चुनाव के पहले ही उच्च या पिछड़े चेहरे को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करना नासमझी होगी.

दूसरा यह कि इस कार्यकाल में भाजपा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के संकल्प को पूरा करने के लिए आर-पार करने का संकल्प ले चुकी थी.

2017 में कुल 403 सीटों के मुकाबले यूपी में 312 सीटों पर जीत हासिल करने के बाद भाजपा के सामने दिल्ली दरबार के फरमान से मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करना और आसान हो गया. इसीलिए भाजपा ने राम मंदिर निर्माण में कानूनी बाधाएं हटाने और समय सीमा के भीतर राम मंदिर के निर्माण एजेंडा को आगे बढ़ाने की नींव डाल दी.

साधु-संतों और राम मंदिर आंदोलन में सक्रिय रहे अपने मज़बूत समर्थन वर्ग को संतुष्ट करने का तुरुप चला. गोरखनाथ मठ के महंत योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री नामित करके भाजपा ने तमाम तरह की अटकलों पर विराम लगा दिया. योगी तब लोकसभा के सांसद थे.

योगी को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने एक बड़ा जोखिम उठाया था. वह था भाजपा मे पिछड़ों और ऊंची ताकतवर जातियों को दूसरे चेहरों को नाराज़ करना. लेकिन मोदी और अमित शाह की पसंद सभी पर हावी रही. भूमिहार और संघ परिवार के प्रमुख चेहरे मनोज सिन्हा गाजीपुर की अपनी विधानसभा सीट से चुनाव हारकर खुद ही दौड़ से बाहर हो गए.

दूसरा ओबीसी चेहरा थे केशव प्रसाद मौर्य जो मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे. लेकिन उन्हें और एक और ब्राह्मण चेहरे दिनेश शर्मा को मन मसोसकर उपमुख्यमंत्री पद पाकर संतोष करना पड़ा.

योगी आदित्यनाथ को घोर हिंदुत्ववादी साधु समाज के मुखर चेहरे के तौर पर चुने जाने के अलावा भी भाजपा ने उच्च जातियों में मजबूती के एक और युग में पार्टी को मज़बूती देने की कोशिश की. यह था योगी के राजपूत समुदाय से ताल्लुक का होना.

प्रचंड बहुमत पाने के बाद भी भाजपा 2014 में मिले दलित पिछड़े समुदाय का समर्थन पाकर अपने उच्च जाति के परंपरागत जनाधार को भी खुश रखना चाहती थी. ज़ाहिर है संघ परिवार के पास भी ब्राह्मण वर्चस्व का इस कार्ड खेलने का या अच्छा मौक़ा था. योगी शासन तंत्र ने साढ़े चार साल में नौकरशाही से लेकर जिलों और पुलिस चौकी तक उच्च जातियों व अधिकारियों की तैनातियों का सिलसिला शुरू किया था.

उत्तर प्रदेश को सर्वोत्तम प्रदेश और विकास में अग्रणी राज्य बनाने के बेशुमार दावे समाचार पत्रों, टीवी चैनलों और डिजिटल माध्यमों से ताबड़तोड़ ढंग से जारी हो रहे हैं. चुनाव नज़दीक आते आते तो सरकार ने आत्मप्रचार की सारी हदें ही पार कर डालीं.

लेकिन प्रचार तंत्र के ज़रिये चुनाव जीतने की इस अंधी दौड़ ने कई सवाल भाजपा और केंद्र की मोदी सरकार की छवि पर खड़े किए. गांव ही नहीं शहरों में आम जनता और कम आय वाला एक बड़ा निर्धन तबका महंगाई से सबसे ज्यादा परेशान है.

दलित, पिछड़ी और कमज़ोर मानी जाने वाली जातियां, जिन्होंने 2014 के बाद 2017 और दोबारा 2019 के पिछले आम चुनाव में भाजपा को हिंदुत्व की लहर में बहकर आंख मूंदकर वोट और समर्थन दिया, 2022 के विधानसभा चुनावों के पहले ही इन समुदायों का भाजपा से बुरी तरह मोहभंग हैं. मुस्लिम आबादी के साथ इन सभी वर्ग के मतदाताओं का गठजोड़ भाजपा के लिए सबसे बड़ा संकट खड़ा करेगा.

करीब 25 करोड़ की आबादी वाले देश के इस सबसे बड़े राज्य यूपी में 12 प्रतिशत ब्राह्मण और बाकी ऊंची जातियों का प्रतिशत 20 के करीब माना जाता है. परंपरागत तौर पर ब्राह्मण और मुस्लिम वोट ही अतीत से कांग्रेस का मजबूत जनाधार माना जाता रहा है. लेकिन बदलते वक्त की रफ़्तार के साथ ब्राह्मणों ने कांग्रेस का साथ छोड़कर भाजपा के हिंदुत्व ब्रांड को आत्मसात कर लिया.

उसके बाद तो मुसलमानों ने भाजपा को हारने के लिए मुलायम के यादव-पिछड़ा और गठबंधन में खुद को तीन दशक से मजबूती से बांधे रखा.

योगी राज के विगत साढ़े चार वर्षों गोमती और गंगा में काफ़ी पानी बह चुका है. चुनाव करीब आते ही भाजपा को सत्ता दिलाने में मजबूत भूमिका निभाने वाले जाट समुदाय ने भाजपा से किनारा पहले ही कर लिया है.

किसान आंदोलन को कुचलने और लखीमपुर में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी के दामन पर दाग ज्यों के त्यों हैं. उनका पुत्र आशीष जेल में है. और राज्य की एसआईटी किसानों को वाहन से रौंदने की टेनी के पुत्र आशीष की भूमिका की कोर्ट में पुष्टि कर चुका है.

छोटी राजनीतिक पार्टियां जो 7-8 साल से भाजपा के साथ थीं अब धीरे-धीरे उससे किनारा कर रही हैं. कुछ माह पूर्व सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष भाजपा से नाता तोड़कर समाजवादी पार्टी के साथ आ गए. वे पिछले साल तक योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री थे.

ओमप्रकाश राजभर के बाद कृष्णा पटेल ने अपना दल के अपने गुट का समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ कर दिया. कृष्णा पटेल की बेटी अनुप्रिया पटेल मोदी सरकार में राज्यमंत्री हैं. उनका अपनी मां से कड़ा विवाद है.

इधर निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद जिन्होंने पिछले ही दिनों केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को बुलाकर निषाद सम्मलेन किया. अब वे भाजपा पर आगबबूला हैं. उनके समर्थक नाराज़ हैं क्योंकि निषादों को सरकार नौकरियों में अलग से आरक्षण की अमित शाह ने सार्वजनिक घोषणा नहीं की.

उसके पहले चाचा शिवपाल यादव के साथ अखिलेश की मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा से भी भाजपा के लिए बुरी खबर है. भाजपा को आस बंधी कि कांटे की सीटों पर यादव-मुस्लिम गठजोड़ में शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के जरिये सेंध लगेगी.

राजनीतिक प्रेक्षकों को लगता है कि भाजपा के साथ गठबंधन वाली छोटी पार्टियों द्वारा उसका साथ छोड़कर सपा का दामन थामने से भाजपा में हड़कंप है.

अखिलेश यादव के समर्थकों के घर पर आयकर छापों के बाद यूपी की सियासत गरमा गई है. अखिलेश यादव का कहना है कि भाजपा चुनाव हारने के डर से बौखलाकर इस तरह की हरकतें कर रही है.

प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सक्रियता ने भाजपा की चिंताओं को कहीं अधिक बढ़ा किया है. उनकी रैलियों में उमड़ रही भीड़ और हाल में राहुल गांधी के साथ प्रियंका के अमेठी दौरे ने भाजपा को अपनी रणनीति को रोज़-रोज़ बदलना पड़ रहा है.

प्रियंका ने 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने और ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ के नारे ने महिलाओं के एजेंडा को यूपी चुनाव में सबसे चर्चित और हलचल करने वाला मुद्दा बना दिया है.

कांग्रेस भले ही सांगठनिक तौर पर कमज़ोर हालत में है लेकिन उसकी सक्रियता न शहरों, कस्बों और गांवों में भाजपा ही नहीं समाजवादी पार्टी में भी बेचैनी बढ़ा दी. कांग्रेस के रणनीतिकार कहते हैं कि नतीजे जो भी हों, वे इस बार का विधानसभा चुनाव अपने दम पर लड़ेंगे.

मौजूदा विधानसभा में कांग्रेस के पास मात्र 7 सीटें हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन में उसे सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा था. उसे मात्र 19 सीटों पर संतोष करना पड़ा, जबकि समाजवादी पार्टी व कांग्रेस गठबंधन को 54 सीटें मिली थीं.

इस बार के विधानसभा चुनाव में भी बसपा और मायावती चुनावी मैदान में प्रभावकारी ढंग से कहीं नहीं दिख रहीं. उसे मात्र बहुकोणीय संघर्ष में ही चुनिंदा सीटों पर आस बंधेगी. विगत पांच सालों से मायावती की राजनीतिक निष्क्रियता ने उन्हें यूपी की सियासत में अप्रासंगिक बना दिया.

अब सबसे ज़्यादा निगाहें विधानसभा मे टिकटों के बंटवारे पर टिकी हैं. दिल्ली से लखनऊ तक उसके मौजूदा विधायकों के बड़ी तादाद मे टिकट कटने की आशंकाओं से हड़कंप व असंतोष बढ़ रहा है. भाजपा के दिल्ली दरबार और योगी के खेमों में टिकट बांटने को लेकर होने वाली सियासी जंग पर सबकी निगाहें लग चुकी हैं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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