उत्तर प्रदेश चुनाव: क्या योगी आदित्यनाथ को उनके गढ़ में घेर सकेगा विपक्ष

गोरखपुर शहर सीट पर विपक्ष बेमन से चुनाव लड़ता रहा है. पिछले तीन दशक से सपा, कांग्रेस, बसपा के किसी भी नेता ने इस सीट को केंद्रित कर राजनीतिक कार्य नहीं किया, न ही इसे संघर्ष का क्षेत्र बनाया. हर चुनाव में इन दलों से नए प्रत्याशी आते रहे और चुनाव बाद गायब हो जाते रहे. इसी के चलते भाजपा यहां मज़बूत होती गई. 

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योगी आदित्यनाथ. (फोटो साभार: फेसबुक/@MYogiAdityanath)

गोरखपुर शहर सीट पर विपक्ष बेमन से चुनाव लड़ता रहा है. पिछले तीन दशक से सपा, कांग्रेस, बसपा के किसी भी नेता ने इस सीट को केंद्रित कर राजनीतिक कार्य नहीं किया, न ही इसे संघर्ष का क्षेत्र बनाया. हर चुनाव में इन दलों से नए प्रत्याशी आते रहे और चुनाव बाद गायब हो जाते रहे. इसी के चलते भाजपा यहां मज़बूत होती गई.

Gorakhpur: Uttar Pradesh Chief Minister Yogi Adityanath performs prayers on the occasion of Vijay Dashmi at Goraksh Peeth, in Gorakhpur, Friday, Oct 19, 2018. (PTI Photo) (PTI10_20_2018_000055B)
गोरखपुर में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ. (फाइल फोटो: पीटीआई)

गोरखपुर: गोरखपुर शहर की सीट अब पूरे चुनाव में प्रदेश की सबसे चर्चित सीट बनने जा रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद यहां से सभी विपक्ष दल ताकतवर चेहरा उतारने की कोशिश कर रहे हैं. आजाद समाज पार्टी से चंद्रशेखर रावण के मैदान में आ जाने से इस सीट पर मुकाबला दिलचस्प हो गया है.

भाजपा गोरखपुर शहर सीट पर वर्ष 1989 से लगातार जीतती आ रही है. वर्ष 1989 के बाद से हुए आठ चुनावों में भाजपा प्रत्याशी ही विजयी हुए हैं.

वर्ष 1989 में भाजपा के शिव प्रताप शुक्ल ने कांग्रेस प्रत्याशी पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री को हराया था. सुनील शास्त्री 1980 और 1985 में गोरखपुर सीट से चुनाव जीते थे और प्रदेश सरकार में मंत्री रहे थे. 1989 में चुनाव जीते शिव प्रताप शुक्ल उसके बाद 1991, 1993 और 1996 में भी चुनाव जीते. वे भाजपा सरकार में दो बार मंत्री भी रहे.

वर्ष 2002 के चुनाव के पहले उनकी योगी आदित्यनाथ से ठन गई. योगी आदित्यनाथ ने भाजपा पर दबाव बनाया गया कि शिव प्रताप शुक्ल को टिकट न दे. योगी की नाराजगी के बावजूद भाजपा ने शिव प्रताप शुक्ल को ही उम्मीदवार बनाया. शिव प्रताप शुक्ल उस समय गोरखपुर की राजनीति में छाए हुए थे.

योगी आदित्यनाथ तब तक भाजपा से दो बार सांसद बन चुके थे. वर्ष 1999 का लोकसभा चुनाव वह सपा प्रत्याशी जमुना निषाद से बहुत ही कम अंतर से जीते थे. तब तक उन्होंने हिंदू युवा वाहिनी नहीं बनाई थी. योगी समर्थक हिंदू महासभा में सक्रिय थे और कट्टर हिंदुत्व की राजनीति कर रहे थे.

2002 में योगी आदित्यनाथ ने शिवप्रताप शुक्ल के खिलाफ हिंदू महासभा से डाॅ. राधा मोहन दास अग्रवाल को चुनाव लड़ा दिया. डाॅ. अग्रवाल गोरखपुर के जाने-माने बाल रोग चिकित्सक थे. वे आरएसएस से काफी समय से जुड़े हुए थे और संघ की कई अनुषांगिक संगठनों में सक्रिय थे.

यह चुनाव डॉ. अग्रवाल 18 हजार के बड़े अंतर से जीते. शिव प्रताप शुक्ल तीसरे स्थान पर चले गए और उन्हें 14,509 वोट मिले. इसके बाद शिव प्रताप शुक्ल भाजपा की राजनीति में हाशिए पर चले गए.

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके दिन फिर फिरे. उन्हें वर्ष 2016 में राज्यसभा का सदस्य बनाया गया और मोदी -वन सरकार में वे मंत्री भी बने. ये वहीं शिव प्रताप शुक्ल हैं जिन्हें इस चुनाव में ब्राह्मणों की नाराजगी दूर करने वाली भाजपा की एक कमेटी का अगुवा बनाया गया है.

2002 के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी को हराने के बाद योगी आदित्यनाथ ने हिंदू युवा वाहिनी बना ली और उसके सहारे सांप्रदायिक राजनीति की एक नए अध्याय की शुरुआत करते हुए न सिर्फ गोरखपुर बल्कि आस-पास के जिलों में अपना प्रभाव बढ़ाते चले गए. उन्होंने कई बार विधानसभा चुनावों में भाजपा के खिलाफ प्रत्याशी खड़े किए. हर चुनाव में भाजपा संगठन और योगी से टकराव की स्थिति बनती रही.

यह टकराव 2012 में तब थमा, जब भाजपा संगठन ने योगी की राजनीतिक ताकत को स्वीकार कर लिया और उनके पसंदीदा उम्मीदवारों को टिकट दिया जाने लगा.

वर्ष 2002 के बाद हुए तीन और चुनावों- 2007, 2012 और 2017 में डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल ने जीत दर्ज की. हर चुनाव में उनकी जीत का अंतर बढ़ता रहा. वर्ष 2012 में नए परिसीमन के बाद गोरखपुर विधानसभा का नाम गोरखपुर शहर हो गया.

नए परिसीमन के बाद गोरखपुर शहर भाजपा के लिए और अनुकूल हो गई क्योंकि अल्पसंख्यक और पिछ़ड़ी जातियों- विशेषकर निषाद समाज का बड़ा हिस्सा गोरखपुर ग्रामीण विधानसभा में चला गया.

इस सीट पर भाजपा की जीत का अंतर बढ़ने की वजह नया परिसीमन तो था ही, डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल की सबको साथ लेकर चलने, मतदाताओं से सीधा और सहज संपर्क बनाए रखने की वजह से उनकी बढ़ी लोकप्रियता भी थी.

उन्होंने योगी आदित्यनाथ की कट्टर सांप्रदायिक राजनीति से भी एक तरह की दूरी बनाई रखी और दो दशक में अपनी अलग छवि बना ली. इस अवधि में भाजपा का कोई विधायक डॉ. राधा मोहन अग्रवाल की तरह अपनी स्वतंत्र छवि निर्मित नहीं कर सका. अपनी स्वतंत्र छवि बनाने की वजह से गोरखपुर में इस बात को प्रचारित किया जाने लगा कि डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल की योगी आदित्यनाथ से बनती नहीं है.

योगी सरकार में वरिष्ठ विधायक होने के बावजूद डाॅ. अग्रवाल को मंत्री नहीं बनाने और पिछले वर्ष एक इंजीनियर के तबादले को लेकर भाजपा सांसद रवि किशन सहित कई भाजपा विधायकों द्वारा उन्हें सार्वजनिक तौर पर निशाना बनाए जाने से भी इस प्रचार को बल मिला लेकिन भाजपा और योगी आदित्यनाथ को ठीक से जानने-समझने वाले जानते हैं कि राजनीति के अलग-अलग ढंग और दृष्टिकोण के बावजूद दोनों नेताओं में एक खास तरह की अंडरस्टैडिंग है.

पिछले दो वर्ष से गोरखपुर में चर्चा चलने लगी थी कि योगी आदित्यनाथ 2022 का विधानसभा चुनाव गोरखपुर शहर से लड़ सकते हैं. इसी के साथ यह भी चर्चा चलती रहती थी कि यदि योगी आदित्यनाथ गोरखपुर शहर सीट से चुनाव लड़ेंगे तो डाॅ. अग्रवाल का क्या रुख होगा?

इसी बीच पिछले कुछ महीनों से योगी आदित्यनाथ के अयोध्या से चुनाव लड़ने की चर्चा तेज हो गई. मुख्यमंत्री द्वारा अयोध्या के लगातार दौरे, वहां विकास कार्यो के शिलान्यास-उद्घाटन, मुख्यमंत्री के ओएसडी द्वारा अयोध्या में बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक, साधु-संतों से मुलाकात ने इस चर्चा को गंभीर बनाया और अयोध्या से योगी के चुनाव लड़ने को निश्चित बताया जाने लगा लेकिन 15 जनवरी को भाजपा ने पहली सूची जारी की तो योगी आदित्यनाथ का नाम गोरखपुर शहर की सीट के लिए था.

अयोध्या से योगी आदित्यनाथ को चुनाव न लड़ाने के भाजपा नेतृत्व के फैसले को लेकर अब भी चर्चा- बहस चल रही है कि आखिर इसका कारण क्या हो सकता है?

समझा जा रहा है कि यह फैसला भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इसलिए लिया कि अयोध्या से चुनाव लड़ने पर योगी आदित्यनाथ की दिल्ली की गद्दी की दावेदारी को मजबूती मिलती, इसलिए उन्हें गोरखपुर भेज दिया गया.

योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर शहर सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा के पहले डाॅ. अग्रवाल सोशल मीडिया के जरिये मतदाताओं से संपर्क बना रहे थे. जिस दिन टिकट संबंधी घोषणा हुई, उस रात उनका फेसबुक लाइव का कार्यक्रम तय था. घोषणा के बाद उन्होंने इसे स्थगित कर दिया. मीडिया में उन्होंने सिर्फ यह कहा कि मैं भाजपा का कार्यकर्ता हूं. पार्टी के इस निर्णय का स्वागत है.

उनके संक्षिप्त बयान को लेकर भी तमाम कयास लगाए जा रहे हैं. सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस में दो बार डाॅ. अग्रवाल का नाम लेकर टिकट का ऑफर देने से इन चर्चाओं को बल मिलने लगा कि डाॅ. अग्रवाल कहीं दूसरा कदम तो नहीं उठा लेंगे.

मीडिया में इस आशय की खबरें भी आईं हैं कि डॉ. अग्रवाल बगावत कर सकते हैं लेकिन उन्हें ठीक से जानने-समझने वाले जानते हैं कि वे इस तरह का कोई कदम नहीं उठाएंगे.

सोशल मीडिया पर डाॅ. अग्रवाल के अगले कदम और उनकी चुप्पी को लेकर लगातार चर्चा बनी हुई है. सोशल मीडिया पर एक पोस्ट को खूब आगे बढ़ाया जा रहा है जिसमें लिखा गया है कि ‘डॉ. अग्रवाल को गुरु ऋण से उऋण होने का अवसर आ गया है.’

योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर शहर से चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद यह चर्चा होने लगी है कि उनके खिलाफ विपक्षी दल किसे मैदान में उतारेंगे?

गुरुवार को भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर रावण ने गोरखपुर से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. इससे गोरखपुर शहर का चुनावी तापमान और गर्म हो गया.

चंद्रशेखर की गोरखपुर से चुनाव लड़ने की तमन्ना पुरानी है. योगी सरकार ने जब उन्हें जेल भेजा था तब वे जेल से ही 2018 का गोरखपुर सीट पर लोकसभा उपचुनाव लड़कर योगी आदित्यनाथ को चुनौती देना चाहते थे. उनके समर्थकों ने गोरखपुर से चुनाव लड़ने की संभावना को टटोला भी था.

इस चुनाव में सपा और कांग्रेस से गठबंधन न होने के बाद उन्होंने प्रदेश की सभी 403 सीटों से चुनाव लड़ने की घोषणा की है. गोरखुपर से उनके चुनाव लड़ने पर चुनाव परिणाम भले कुछ हो लेकिन वे योगी आदित्यनाथ की कड़ी घेराबंदी जरूर करेंगे. यहां चुनाव लड़ने से उन्हें और उनकी पार्टी को भरपूर चर्चा मिलेगी, साथ ही वे अपनी जुझारू व लड़ने वाले दलित नेता की छवि को और मजबूत कर सकेंगे.

गोरखपुर के कई दलित संगठन चंद्रशेखर के संपर्क में हैं जो उनके लिए प्रचार कर सकते हैं फिर भी इतने कम समय में भाजपा के लिए हर दृष्टि से अनुकूल इस सीट पर वे योगी आदित्यनाथ को कितनी वास्तविक चुनौती दे पाएंगे, कहना मुश्किल है.

सपा, बसपा और कांग्रेस द्वारा भी ऐसे प्रत्याशियों की खोज की जा रही है जो योगी आदित्यनाथ को कड़ी टक्कर दे सके. कांग्रेस की ओर से सुनील शास्त्री के नाम की चर्चा चल चुकी है. सपा की ओर से कभी योगी आदित्यनाथ के काफी करीबी और हिंदू युवा वाहिनी (हियुवा) के प्रदेश अध्यक्ष रहे सुनील सिंह के नाम की भी चर्चा चल रही है.

सुनील सिंह ने वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के समय योगी आदित्यनाथ से बगावत कर दी थी. वे हियुवा के कई नेताओं को भाजपा से टिकट देने की मांग कर रहे थे. वह खुद भी चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन योगी आदित्यनाथ ने मना कर दिया.

बगावत के कारण सुनील सिंह और उनके साथियों को हिंदू युवा वाहिनी से निकाल दिया गया. हिंदू युवा वाहिनी के ये बागी नेता एक दर्जन से अधिक सीटों पर चुनाव भी लड़े थे.

सुनील सिंह बाद में एक केस में गिरफ्तार हुए और उन पर रासुका भी लगा. लंबे समय तक वे जेल में रहे. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से नामांकन किया लेकिन उनका नामांकन रद्द कर दिया गया. तब उन्होंने आरोप लगाया था कि योगी आदित्यनाथ के इशारे में उनका नामांकन रद्द किया गया है. बाद में वे सपा में शामिल हो गए.

वे संतकबीरनगर जिले की खलीलाबाद सीट से चुनाव की तैयारी कर रहे हैं लेकिन वहां से भाजपा के वर्तमान विधायक जय चौबे सपा में शामिल हो गए हैं. इससे सुनील सिंह के वहां से चुनाव लड़ने की संभावना कमजोर हुई है.

सुनील सिंह भी अब गोरखपुर शहर सीट पर योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़ना चाहते हैं. उन्होंने अपने फेसबुक एकाउंट पर कई पोस्ट लिखकर इसकी मंशा जाहिर की है. उन्होंने ललकारते हुए लिखा है कि ‘इस चुनाव को वे योगी आदित्यनाथ के लिए सबसे कठिन चुनाव बना देंगे.’

सपा से भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे दिवंगत उपेंद्र दत्त शुक्ल के बेटे या पत्नी के भी चुनाव लड़ने की चर्चा चल रही है. गुरुवार को उपेंद्र दत्त शुक्ल के बेटे अरविंद दत्त शुक्ल, अमित दत्त शुक्ल और पत्नी शुभावती शुक्ला सपा में शामिल हो गए. उम्मीद है कि एक-दो दिन में उम्मीदवारी की घोषणा कर दी जाएगी.

उपेंद्र दत्त शुक्ल भाजपा के क्षेत्रीय अध्यक्ष थे. वे वर्ष 2018 का लोकसभा उपचुनाव भाजपा से लड़े थे लेकिन निषाद पार्टी के अध्यक्ष डाॅ. संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद से चुनाव हार गए थे. पिछले वर्ष उनका निधन हो गया.

शुक्ल के परिजनों को मलाल है कि पिता की मृत्यु के बाद योगी आदित्यनाथ उनके घर शोक संवेदना प्रकट करने नहीं आए. भाजपा ने भी उनके परिजनों की खोज-खबर नहीं ली.

गोरखपुर शहर की सीट सवर्ण बहुल सीट है. यहां पर ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थ मतदाताओं को अच्छी-खासी संख्या है जो परंपरागत रूप से भाजपा को वोट देते आए हैं. पिछड़े वर्ग में चौहान बिरादरी के लोग सबसे अधिक हैं. इस वर्ग में भी भाजपा की अच्छी पकड़ रही है. शहर विधानसभा क्षेत्र में सवा सौ दलित बस्तियां हैं. वहां से भी भाजपा को वोट मिलता रहा है.

बसपा इस सीट पर कभी 25 हजार से अधिक वोट नहीं प्राप्त कर सकी. उसे हमेशा तीसरे या चौथे स्थान पर रहना पड़ा.

वर्ष 2002, 2007, 2012 और 2017 में इस सीट पर बसपा को क्रमशः 14,124, 5,604, 23,891, 24,297 मत मिले. वहीं, सपा को वर्ष 2002 में 20,382, 2007 में 27,323 और 2012 में 33,694 मत मिले.

पिछले चुनाव में कांग्रेस और सपा के संयुक्त प्रत्याशी राणा राहुल सिंह को 61,491 मत मिले. कांग्रेस का प्रदर्शन तो इस सीट पर बेहद फीका रहा है. वर्ष 2002 में कांग्रेस प्रत्याशी को 3,843, 2012 में 3,556 , 2017 में 11,171 वोट ही मिले.

गोरखपुर शहर सीट पर विपक्षी दल बेमन से चुनाव लड़ते रहे हैं. पिछले तीन दशक से सपा, कांग्रेस, बसपा के किसी भी नेता ने गोरखपुर शहर सीट को केंद्रित कर राजनीतिक कार्य नहीं किया. इस सीट को संघर्ष का क्षेत्र नहीं बनाया.

सभी यही मानते रहे कि इस सीट पर भाजपा को हराया नहीं जा सकता. हर चुनाव में इन दलों से नए-नए प्रत्याशी आते रहे और चुनाव बाद गायब हो जाते रहे. यही कारण है कि भाजपा यहां पर दिनों दिन मजबूत होती गई. अब जब खुद योगी आदित्यनाथ यहां से चुनाव लड़ रहे हैं तो भी सभी दल अलग-अलग चुनाव लड़ने जा रहे हैं.

कोई साझा उम्मीदवार नहीं खड़ा किया जा रहा है जैसा कि वर्ष 2018 के लोकसभा उपचुनाव में किया गया था. इन परिस्थितियों में विपक्षी दल बाहर से प्रत्याशी दें या स्थानीय, योगी आदित्यनाथ को यहां घेर पाना बहुत मुश्किल होगा.

(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)

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