साल 2016 में बीकानेर के एक स्कूल की छात्रा के बलात्कार और मौत की घटना के बाद दो स्टाफ सदस्यों को इस अपराध को छिपाने का दोषी पाया गया था. अब राजस्थान हाईकोर्ट ने उनकी सज़ा रद्द करते हुए कहा कि वे ‘लड़की की प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश’ कर रहे थे.
मुंबई: राजस्थान उच्च न्यायालय की जोधपुर पीठ ने यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत बाल यौन शोषण के मामलों की ‘अनिवार्य रिपोर्टिंग’ के सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों में से एक को खारिज करते हुए एक 17 वर्षीय दलित लड़की को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने के लिए दोषी ठहराए गए दो स्कूल स्टाफ सदस्यों की सजा लंबित होने की अपील को रद्द कर दिया है.
जहां मुख्य आरोपी विजेंद्र सिंह को लड़की के साथ बलात्कार और आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराया गया था, अन्य दो दोषी व्यक्तियों- प्रज्ञा प्रतीक शुक्ला और उनकी पत्नी प्रिया प्रतीक शुक्ला को पुलिस को यौन उत्पीड़न के बारे में न बताने और पीड़ित लड़की को शर्मसार करते हुए उससे एक ‘स्वीकारोक्ति पत्र’ [Confession Letter] पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करने का दोषी पाया गया था.
लेकिन जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस विनोद कुमार भरवानी की खंडपीठ ने प्रज्ञा प्रतीक और प्रिया के इस घटना को जानबूझकर छिपाने के कृत्य को ‘लड़की की इज्जत बचाने’ के लिए अपनाया जाने वाला ‘सामान्य’ तरीका करार दिया है. प्रज्ञा प्रतीक और प्रिया की सजा को दंड प्रक्रिया संहिता (आईपीसी) की धारा 389 के तहत रद्द करते हुए दंपति को जमानत पर रिहा कर दिया गया.
अदालत ने प्रज्ञा प्रतीक और प्रिया की छह साल की सजा को निलंबित करते हुए कहा, ‘इस तरह की घटनाएं असामान्य नहीं हैं, जहां विचार-विमर्श के बाद यह तय किया जाता है कि ऐसे मामलों की पुलिस को रिपोर्ट न करें, ऐसा न हो कि लड़की की प्रतिष्ठा पर कोई दाग लगे. इस पहलू का अधिक महत्व इसलिए भी है क्योंकि छात्रावास के वॉर्डन/उच्च अधिकारी निश्चित रूप से इस तरह की कोई भी कार्रवाई करने से पहले लड़की के माता-पिता के साथ चर्चा करना पसंद करेंगे.’
यहां ‘वास्तविक’ कानून, जैसा हाईकोर्ट ने माना भी है, जानबूझकर पुलिस को अपराध के बारे में रिपोर्ट न करना है. पॉक्सो एक्ट की धारा 21 के तहत बच्चे के साथ यौन उत्पीड़न की सूचना न देना दंडनीय अपराध है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पुलिस को मामले की सूचना देने से पहले अधिनियम में किसी भी विचार-विमर्श या माता-पिता की सहमति की आवश्यकता नहीं है.
साथ ही, उच्च न्यायालय ने किशोरी की ‘प्रतिष्ठा’ पर ध्यान केंद्रित करते हुए, उसकी कमजोरियों, वह बल जो अपराधियों ने उस पर प्रयोग किया और वह हालत जिसमें उसे उसके साथ अपराध करने वालों के बीच अकेला छोड़ दिया गया, को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया.
इस आदेश के साथ उच्च न्यायालय ने न केवल कानून के एक महत्वपूर्ण प्रावधान की अनदेखी की है, बल्कि भारत-पाक सीमा पर बसे सुदूर त्रिमोही गांव की महत्वाकांक्षी युवा दलित लड़की के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए छह साल के लंबे प्रयासों को भी बेकार कर दिया है. वो लड़की, जिसके साथ बलात्कार किया गया और अंततः बीकानेर के जैन आदर्श कन्या स्कूल, जहां वह शिक्षक प्रशिक्षण ले रही थी, के कर्मचारियों द्वारा उसका जीवन खत्म करने के लिए उकसाया गया.
इस मामले में दोषसिद्धि आसान नहीं थी. अपने गृहनगर से बहुत दूर सवर्णों द्वारा संचालित एक संस्थान में पढ़ने वाली एक दलित लड़की होने के कारण वह कमजोर पड़ गई थी. उसका बलात्कारी विजेंद्र सिंह प्रमुख जाट समुदाय से है और अन्य दो आरोपी ब्राह्मण हैं. घर से दूर रहते हुए संस्थान के कर्मचारियों को उसका अभिभावक माना जाता. अपनी देखभाल और सुरक्षा के लिए वह उन्हीं पर निर्भर थी.
घटना 17 साल की किशोरी से रेप के दो दिन बाद 30 मार्च 2016 की है. वह 28 मार्च को होली के त्योहार की छुट्टी के बाद अपने परिसर में लौटी थी. उसके पिता ने उसे सुबह करीब 11 बजे परिसर में छोड़ा था.
अपनी शिकायत में उसके पिता का कहना है कि उन्हें रात करीब 8 बजे उनकी बेटी का फोन आया, जब उसने शिकायत की कि छात्रावास की वॉर्डन प्रिया शुक्ला ने उसे सफाई के बहाने सिंह के कमरे में भेजा और सिंह ने उसके साथ बलात्कार किया. सिंह ने उसे कथित तौर पर धमकी दी थी और किसी से कुछ भी कहने पर गंभीर नतीजे भुगतने की चेतावनी दी थी. उसके पिता, जो 400 किमी से अधिक दूर भारत-पाक सीमा पर रहते थे, ने अपनी बेटी को अगली सुबह घर लौटने के लिए कहा.
लेकिन 29 मार्च को उसका शव पानी की टंकी में मिला. हालांकि, कॉलेज ने उसके पिता से संपर्क नहीं किया. पुलिस ने उन्हें बेटी की मौत की सूचना दी.
बाद में, जांच के दौरान एक कथित स्वीकारोक्ति पत्र सामने आया. एक 17 वर्षीय ने उस पत्र, जो माना जाता है कि उसने लिखा था और जिस पर उससे सुबह 3 बजे हस्ताक्षर करवाए गए, में कहा कि ‘उससे एक ऐसी गलती हो गई है, जिसे माफ नहीं किया जा सकता.’ यह पत्र प्रज्ञा प्रतीक और प्रिया की भूमिका को निर्धारित करने में बहुत महत्वपूर्ण है, जिन्होंने पुलिस को घटना की रिपोर्ट करने के बजाय लड़की से एक कागज पर अपनी बात लिखकर दस्तखत करवाए.
पिछले साल अक्टूबर में विशेष सत्र अदालत ने इन सभी कारकों पर विचार किया और विजेंद्र सिंह और प्रज्ञा प्रतीक और प्रिया को उनकी भूमिका के लिए दोषी ठहराया. निचली अदालत ने इसे जातिगत अपराध माना और उन सभी को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के प्रावधानों के तहत दोषी पाया.
यौन शोषण के मामलों का फैसला करते समय पीड़ित और दोषी अपराधियों के बीच के भरोसे के संबंध को ध्यान में रखा जाना चाहिए. हालांकि, उच्च न्यायालय ने लंबित सजा की अपील को ख़ारिज करते हुए इसे नजरअंदाज कर दिया था.
राजस्थान सरकार ने इस मामले को उच्च न्यायालय में देखने के लिए एक वरिष्ठ आपराधिक वकील जगमल सिंह चौधरी को विशेष लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) नियुक्त किया था. लेकिन हैरानी की बात यह है कि जब मामला सुनवाई के लिए आया, तो चौधरी ने पहले बहस करने से इनकार कर दिया और इसके बजाय पीड़ित परिवार की वकील दिशा वाडेकर को अपना मामला पहले पेश करने के लिए कहा.
सुप्रीम कोर्ट के वकील, वाडेकर, जिन्होंने निचली अदालत में पीड़ित परिवार का प्रतिनिधित्व किया है, ने उस अपराध की गंभीरता को इंगित किया, जिसके लिए प्रज्ञा प्रतीक और प्रिया को दोषी ठहराया गया था और अपराध को छुपाने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रयासों पर भी जोर दिया. चौधरी ने बस उन्हीं के तर्क दोहराए.
जब राज्य किसी विशेष मामले को संभालने के लिए एक विशेष लोक अभियोजक की नियुक्ति करता है, तो वकील को एक बार पेश होने के लिए दी जाने वाली फीस की राशि हजारों में होती है. इस मामले में राज्य सरकार के प्रतिनिधि चौधरी ने दोषियों की सजा रद्द करने या जमानत के खिलाफ अदालत को समझाने का कोई प्रयास नहीं किया.
शुक्ला परिवार ने कुछ ही महीने जेल में बिताए हैं. 2016 में ही उन्हें गिरफ्तारी के कुछ दिनों के भीतर रिहा कर दिया गया था. तब हाईकोर्ट ने जस्टिस संदीप मेहता (सजा की अवधि रद्द करने वाले खंडपीठ के न्यायाधीशों में से एक) की अध्यक्षता में लड़की के फोन रिकॉर्ड पर ध्यान केंद्रित करते हुए दावा किया था कि चूंकि उसके फोन से सिंह को कुछ आउटगोइंग कॉल किए गए थे, इसलिए वे उन परिस्थितियों का संकेत’ थे, जो उस दिन पैदा हुईं, जिस दिन बलात्कार हुआ.
बाल अधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों का कहना है कि उच्च न्यायपालिका द्वारा इस तरह की टिप्पणियां चिंताजनक हैं और और वे बच्चों के अधिकारों से संबंधित न्यायशास्त्र के निर्माण में हुई प्रगति को शून्य कर देती हैं.
मुंबई की एक प्रमुख बाल अधिकार वकील पर्सिस सिधवा सजा रद्द करते समय विचार किए गए कारणों पर कहती हैं, ‘हाईकोर्ट सिर्फ दोषी व्यक्तियों की सजा रद्द करने के लिए कानून के दायरे से बहुत आगे निकल गया है और वास्तव में बचाव पक्ष की याचिका के लिए कानून के उन प्रावधानों के विरुद्ध गया है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘कानून का मकसद और विशेष रूप से अनिवार्य रिपोर्टिंग से संबंधित प्रावधान यही सुनिश्चित करने के लिए है कि बाल यौन शोषण के मामलों को सामने लाया जाए न कि ‘प्रतिष्ठा धूमिल होने’ और “माता-पिता की सहमति” की आड़ में उन्हें रफा-दफा कर दिया जाए.’
सिधवा ने आगे जोड़ा, ‘उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का ऐसा मानना कि यदि कोई बच्चा/बच्ची एक शिक्षक के साथ बंद कमरे में पाए जाते हैं, तो इससे बच्चे की इज्जत पर दाग लगेगा, तो यह उनकी प्रतिगामी और स्त्रीद्वेषी मानसिकता को उजागर करता है.’
पीड़ित लड़की के पिता बाड़मेर में एक स्कूल में शिक्षक हैं और हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ उनकी प्रो-बोनो वकील वाडेकर के जरिये शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाने की सोच रहे हैं. पिछले एक साल का संघर्ष उन्हें सबसे अलग-थलग करने वाला रहा है.
उनका कहना है कि ऐसे कई अधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों ने उनका साथ छोड़ दिया था, जिन्होंने शुरू में इंसाफ की इस लड़ाई में उनके साथ खड़े रहने का वादा किया था. केस लड़ने के लिए अपनी जिंदगीभर की बचत लगा दी है. वो जानते हैं कि कानूनी लड़ाई कई सालों तक चलेगी. उन्होंने कानूनी खर्चों को संभालने के लिए एक ऑनलाइन अभियान भी शुरू किया है.
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