गोंडा की घटना बताती है कि सांप्रदायिकता का ज़हर अब गांवों में भी फैल रहा है

पिछले दो-तीन दशकों में ‘सांप्रदायिक चेतना का ग्रामीणीकरण’ हुआ है. परंपरागत भारतीय समाज में हमारे बुज़ुर्गों ने सांप्रदायिकता से निपटने के लिए अपनी एक प्रणाली विकसित की थी.

पिछले दो-तीन दशकों में ‘सांप्रदायिक चेतना का ग्रामीणीकरण’ हुआ है. परंपरागत भारतीय समाज में हमारे बुज़ुर्गों ने सांप्रदायिकता से निपटने के लिए अपनी एक प्रणाली विकसित की थी.

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प्रतीकात्मक तस्वीर (फोटो: कृष्णकांत)

जब पूरा देश महात्मा गांधी की जयंती मना रहा था और यह प्रण ले रहा था कि हमें मिलजुल कर रहना है तभी उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के कटरा बाजार इलाके के एक गांव में गाय काटकर सांप्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश की गई.

इसे हिंदू समाज व्यवस्था के सबसे शीर्ष पर मानी जाने वाली ब्राह्मण जाति के दो लोगों ने अंजाम दिया. जिस व्यक्ति की गाय थी, वह भी ब्राह्मण जाति का था. इससे समझा जा सकता है कि कितने शातिराना तरीके से यह सब कुछ रचा गया था कि ‘ब्राह्मण की गाय’ सुरक्षित नहीं हैं.

इस भावना के आधार पर एक बड़े हिस्से को दूसरे समुदाय के खिलाफ गोलबंद किया जा सकता था और भारी जान-माल का खतरा उत्पन्न किया जा सकता था. लेकिन आरोपी को लोगों ने देख लिया और पुलिस को सौंप दिया. गोंडा की जिला पुलिस ने तत्परता दिखाई. आरोपी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. इस नाजुक मौके पर कटरा इलाके और गोंडा शहर के लोगों ने जो समझदारी दिखाई है, वह काबिले तारीफ है.

इस घटना ने हमें सचेत भी किया है कि सांप्रदायिक तनावों में फिलहाल कोई कमी आती हुई नहीं दीख रही है. सबसे चिंताजनक बात तो यह है कि यह तनाव ग्रामीण भारत में बहुत तेजी से पांव पसार रहा है और लोगों के रोजमर्रा के जीवन में शामिल हो रहा है.

अभी कुछ साल पहले फैजाबाद जिले के ग्रामीण इलाके में हिंसा हुई थी. इसमें दो लोग मारे गए थे और फैजाबाद शहर में एक समुदाय विशेष के लोगों की दुकानें जला दी गई थीं. लाखों रुपये की सम्पत्ति स्वाहा हुई और लगभग एक सप्ताह तक शहरवासी भय के वातावरण में जीने को मजबूर हुए थे. पुलिस-प्रशासन और नागरिक समाज के अथक प्रयास से वहां भी शांति स्थापित हुई थी.

सवाल यह उठता है कि क्या इस प्रकार की शांति स्थायी होती है या लोगों के दिलो-दिमाग में ऐसा कुछ चलता रहता है जो अवसर पाते ही सांप्रदायिक वैमनस्य के रूप में फूट पड़ता है.

वास्तव में पिछले दो-तीन दशकों में ‘सांप्रदायिक चेतना का ग्रामीणीकरण’ हुआ है. पहले इसे शहरों की समस्या माना गया था. अब यह गांवों में तेजी से फैल रही है. गोंडा इसका अपवाद नही है. गोंडा जिले के कर्नलगंज कस्बे में सितम्बर 1990 में एक दंगा हुआ था, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए थे.

तब मैं आठ या नौ साल का था और मुझे याद है कि लोग इसके बारे में बहुत दिनों तक बात करते रहे थे. इस घटना के बाद गोंडा और उसके आसपास के जिले तनाव में रहे थे. यह तनाव ग्रामीण इलाकों में बहुत तेज था. यहां तक कि प्रदेश सरकार ने मार्च 1991 में गोंडा के कलक्टर को हटा दिया था.

भारत में राजनीति और धर्म की आवाजाही

वास्तव में भारत की राजनीति में धर्म एक निर्णायक भूमिका अदा करता है. यहां दुनिया के लगभग सभी धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं. वे एक दूसरे से अलग हैं. उनके स्वयं के अंदर और एक धर्म से दूसरे धर्म के बीच गहरी असहमतियां हैं.

आधुनिक समय में रोजी-रोजगार, शिक्षा और जमीन तक पहुंच में धर्म को एक प्राथमिक पहचान के रूप में मानकर एक धर्म के अनुयायियों को दूसरे धर्म के अनुयायियों के बीच आपस में लड़ने की प्रवृत्ति देखी जा रही है.

धर्म के बाह्य आचारों, कर्मकांडों और त्योहारों को दूसरे धर्म की आस्था पर प्रहार और अपने धर्म को आगे ले जाने की कोशिशों के रूप में देखने की प्रवृत्ति बढ़ी है. और इसी के साथ हिंसा बढ़ी है और समाज के अछूते क्षेत्रों में सांप्रदायिक मनश्चेतना का प्रसार हुआ हुआ है.

औपनिवेशिक शासन ने अपने शुरूआती दौर से ही विभिन्न धर्मों को एक दूसरे के हित को समाप्त कर अपने हित को आगे बढ़ाने वाले समुदायों के रूप में चित्रित करते हुए एक दूसरे के सामने खड़ा कर दिया था.

भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान राजनीतिक सुधारों के रूप में धार्मिक आधार पर प्रतिनिधियों के चुनाव की व्यवस्था, शिक्षा और रोजगार के अवसरों का सीमित होना, मुस्लिम लीग का विभाजनकारी रवैया, और कांग्रेस की इसे रोक पाने में असफलता ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया.

हालांकि महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, जवाहरलाल नेहरु और सरदार पटेल ने इसे रोकने के भरसक प्रयास किए. महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और उनकी राह पर चलने वाले उस समय के नेताओं ने राजनीति में पवित्रता और नैतिकता का भाव लाने की कोशिश की. गांधी जी ने सभी धर्मों के सार पर बल दिया.

उन्हें लगता था कि इससे बात बन जाएगी. गांधीजी का यह विश्वास उन्हें नोआखली ले गया, जहां उन्हें सांप्रदायिक दंगों को रोकने में सफलता हासिल हुई. लेकिन यह एक व्यक्ति और उसके जीवन से निकले विचार की आभा थी. यह आभा आगे चलकर क्षीण हो गयी. एक दूसरे छोर पर जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल थे.

उन्होंने सांप्रदायिकता के सवाल को प्रशासकीय तरीके से निपटने का प्रयास किया. वे सांप्रदायिक लोगों और इस प्रकार के संगठनों से कड़ाई से निपटने के पक्षधर थे. माना गया था कि इस समस्या से पुलिस कप्तान और कलेक्टर निपट लेंगे. आज भी सरकार ऐसा ही ही मानती है.

आदर्शों और सपनों से भरी आजादी की जंग में महात्मा गांधी ने कहा भी था कि जब देश आजाद हो जाएगा तो शहरों में दंगे होना बंद हो जाएंगे और गांवों में दंगे तो बिल्कुल नहीं होंगे.

यह 1930 का दशक था जब आजादी की जंग का सामाजिक-धार्मिक आधार काफी व्यापक हो चुका था. लेकिन आजादी के बाद के सात दशकों का जैसा भारत के लोगों का सार्वजनिक और व्यक्तिगत अनुभव रहा है, वह गांधी की हार्दिक मंशा के खिलाफ जाता है.

शहरों में लगातार दंगे हुए हैं और वे गांवों की ओर प्रसारित हो रहे हैं. आजाद भारत में बहुत ही खतरनाक तरीके से धर्म को राजनीति से जोड़ दिया गया है और जिसके दुष्परिणाम हमें बार-बार होने वाले सांप्रदायिक विद्वेषों, दंगों और चरमपंथी हत्याओं में देखने को मिलता है.

अब हम सांप्रदायिकता के प्रसार के लिए ब्रिटिश शासन को ही दोष देकर बचकर नहीं निकल सकते. हमें अपनी जिम्मेदारी आयद करनी होगी.

बेगानापन, अपरिचय और डरा हुआ मन

परंपरागत भारतीय समाज में हमारे बुजुर्गों ने सांप्रदायिकता से निपटने के लिए अपनी एक प्रणाली विकसित की थी. बीसवीं सदी की शुरुआत तक भारत में एक आत्मनिर्भर ग्रामीण-सांस्कृतिकी हुआ करती थी.

इसमें स्थानीय स्तर पर सौमनस्य बढ़ने की एक प्रक्रिया थी. शादी-ब्याह, तीज-त्योहार के अवसर पर लोग एक दूसरे से बर्तन-भांड़े, दरी-जाजिम और पालकी मांगते थे और इसमें किसी प्रकार की धार्मिक छुआछूत या धार्मिक विद्वेष नहीं होता था.

हमेशा तो नहीं लेकिन कभी कभार लोग साथ-साथ रामलीला करते थे और ताजिया निकालते थे. लोग एक दूसरे को अपने नजदीक समझते थे. वस्तुओं के एकत्रित करने से निकली आधुनिकता और विकास ने सामुदायिक रूप से हमें लगातार अकेला किया है और एक दूसरे से अपरिचित बना दिया है. यह अपरिचय भी सांप्रदायिक मन तैयार करता है, जो लगातार हिंसक होता गया है.

यह अपरिचय जान बूझकर पैदा किया गया है. जिस कस्बाई इंटर कालेज मैं पढ़ता था, उसे 1857 के एक वीर नायक राजा देबी बक्श सिंह के नाम पर स्थापित किया गया था. बहुत बाद में जब मैंने अमृतलाल नागर के किताब ‘गदर के फूल’ पढ़ी तो पाया कि उनका जीवन और कार्य गोंडा और उसके आसपास के जिलों में बहुत आदर के साथ लिया जाता था.

आज उनका कोई नामलेवा नही है. उस दौर में उन्होंने न केवल वीरता की चरम मिसाल पेश की थी बल्कि हिंदू मुस्लिम सौहार्द्र को बढ़ावा दिया था. लखनऊ की बेगम उन्हें अपना बेटा मानती थी. और जैसा अमृतलाल नागर की किताब बताती है कि ‘सन सत्तावन बहुत पूर्व ही उसके दरबार की यह परिपाटी थी कि मुहर्रम के अंतिम दिन(अशरे के दिन) ताजिये कर्बला जाते हुए उनके सिंह द्वार पर आदर पाते थे. वहां रक्खे जाते थे. मुसलमान इसमें अपना गौरव मानते थे.’

इस सामूहिक स्मृति को नष्ट कर एक सांप्रदायिक स्मृति आरोपित की जाती है. लोगों को उनके अपने सांस्कृतिक वातावरण से बेगाना बनाकर उन्हें ‘दूसरे लोगों’ का दुश्मन बनाया जाता है. इससे एक दूसरे के प्रति डर पैदा होता है.

गोंडा क्या, हर जगह एक दूसरे के प्रति यही डर सांप्रदायिक वातावरण रचने का प्रयास करता है. इस डर और बेगानेपन से निपटा कैसे जाय? यही हम सबको सोचना है और उस पर अमल करना है.

(रमाशंकर सिंह ने अभी हाल ही में जी. बी.पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी की है)

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