चुनाव प्रचार में भाषा का गिरता स्तर लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण का संकेत है

आजकल जिस भाषा में सत्ताधारी नेता चुनाव प्रचार कर रहे हैं, वो दिखाता है कि हम लोकतंत्रिक प्रणाली के लायक विकसित ही नहीं हुए हैं. क्योंकि दुनिया का कोई भी सभ्य व लोकतांत्रिक राष्ट्र ऐसी भाषा को स्वीकार नहीं कर सकता है, जो समाज में नफ़रत और हिंसा के उत्प्रेरक के तौर पर काम करे.

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एक चुनावी सभा में गृह मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (फोटो साभार: फेसबुक/@amitshahofficial)

आजकल जिस भाषा में सत्ताधारी नेता चुनाव प्रचार कर रहे हैं, वो दिखाता है कि हम लोकतंत्रिक प्रणाली के लायक विकसित ही नहीं हुए हैं. क्योंकि दुनिया का कोई भी सभ्य व लोकतांत्रिक राष्ट्र ऐसी भाषा को स्वीकार नहीं कर सकता है, जो समाज में नफ़रत और हिंसा के उत्प्रेरक के तौर पर काम करे.

एक चुनावी सभा में गृह मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (फोटो साभार: फेसबुक/@amitshahofficial)

ऐसा नहीं है कि धर्मों व संप्रदायों के आधार पर बांटने व नफरत फैलाने वाली, अमर्यादित व अलोकतांत्रिक भाषा को उत्तर प्रदेश विधानसभा के इसी चुनाव में या कि पहली दफा इस्तेमाल किया जा रहा है. हाल के दशकों में जैसे-जैसे सत्ताकांक्षी नेता व दल लोकतंत्र के उद्देश्यों, मूल्यों व परंपराओं को लेकर अगंभीर होते गए, अपने विपक्ष को प्रतिद्वंद्वी के बजाय दुश्मन की तरह लेने और वास्तविक मुद्दों को दरकिनार व मतदाताओं पर इमोशनल अत्याचार करके वोट मांगने लग गए हैं, उनकी भाषा राजनीतिक शिष्टाचार की सारी सीमाएं तोड़कर दुर्भावनापूर्ण, असभ्य और फूहड़ होती गई है.

लेकिन हमारे वर्तमान सत्ताधीशों को अपनी चुनावी बदज़बानी के लिए इस स्थिति की आड़ लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती क्योंकि जिस निर्लज्जता से वे उसका औचित्य सिद्ध करने में लगे हैं, वैसी निर्लज्जता इससे पहले कभी देखने में नहीं आई. यह वैसे ही बेमिसाल है, जैसे उनके द्वारा गुजरात के 2002 के नरसंहार व माॅब लिंचिंग वगैरह को सही ठहराना.

इससे पहले ऐसी भाषा का इस्तेमाल तीसरी-चौथी पांत के छुटभैये नेता किया करते थे या फिर चर्चा में आने को आतुर कुछ हताश विपक्षी नेता, जिनके बारे में माना जाता था कि वे सार्थक मुद्दों के आधार पर सत्तापक्ष को चुनौती नहीं दे पा रहे, इसलिए गिरावट के इस स्तर पर उतर आए हैं.

सत्ताधीश करते तो उसे लेकर लानत-मलामत के डर से रक्षात्मक होकर भी देते थे. तब विपक्ष ही नहीं, सत्तापक्ष भी ऐसी भाषा को लेकर शिकायती हुआ करता और कहता था कि आखिर राजनीतिक शिष्टाचार भी कोई चीज होती है.

लेकिन इस चुनाव में धरती अपनी धुरी पर इस तरह पूरे 360 अंश घूम गई है कि विपक्षी दलों की भाषा तो संयत है और वे मतदाताओं के सुख-दुख से जुड़े सार्थक मुद्दों की चर्चा पर जोर दे रहे हैं.

लेकिन केंद्र व उत्तर प्रदेश दोनों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेता, यहां तक कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री भी ‘युद्धं देहि’ की तर्ज पर परस्पर अविश्वास, भय व सांप्रदायिक विभाजन बढ़ाने वाली भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे यह विभाजन उन्हें हर हाल में अभीष्ट हो. साथ ही विपक्षी दलों के नेताओं के दानवीकरण में भी कुछ उठा नहीं रख रहे.

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह, जिन पर देश भर में अमन-चैन कायम रखने की जिम्मेदारी है, पुराने दंगों की याद दिलाकर मतदाताओं को डराते हुए कह रहे हैं कि उन्होंने समाजवादी पार्टी को वोट दिया तो दंगे रोज की चीज हो जाएंगे. उन्होंने मुजफ्फरनगर से सहारनपुर तक के दंगों के पुराने जख्म कुरेदते हुए लोगों से कहा: आप सब दंगों को भूल गए हैं क्या? अगर नहीं तो वोट देने में गलती मत करना, नहीं तो मुजफ्फरनगर फिर से जल उठेगा. अगर वोट देने में गलती हुई तो दंगे करवाने वाले फिर से लखनऊ में बैठ जाएंगे.

एक ओर उन्हें अपने ऐसा करने पर कोई अपराधबोध नहीं है और दूसरी ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बड़े मियां तो बड़े मियां, छोटे मियां सुभानअल्ला की तर्ज पर विपक्षी नेताओं की ‘गर्मी उतार देने’ तक की धमकियां दे रहे हैं.

उन्हीं के शब्दों में कहें तो: ये जो गर्मी अभी कैराना और मुजफ्फरनगर में दिखाई दे रही है न, यह सब शांत हो जाएगी. क्योंकि गर्मी कैसे शांत होगी- यह तो मैं मई और जून में भी शिमला बना देता हूं.’

तिस पर बात इतनी-सी ही नहीं है. जिन प्रधानमंत्री से इन दोनों को रोकने-टोकने या बरजने की अपेक्षा की जाती थी, इस तथ्य के बावजूद कि पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने भी जमकर कब्रिस्तान व श्मशान किया था, साथ ही पूछा था कि ईद पर बिजली आती है तो होली और दीवाली पर क्यों नहीं, वे भी अपनी पुरानी राह पर ही आगे बढ़ रहे हैं: पश्चिम उत्तर प्रदेश के लोग कभी यह भूल नहीं सकते कि जब यह क्षेत्र दंगे की आग में जल रहा था तो पहले वाली सरकार उत्सव मना रही थी, उत्सव! पांच साल पहले दबंग और दंगाई ही कानून थे. उनका कहा ही शासन का आदेश था.

इस सबके चलते विपक्ष की सबसे बड़ी समाजवादी पार्टी को चुनाव आयोग से आग्रह करना पड़ा है कि वह कम से कम मुख्यमंत्री की भाषा का संज्ञान ले और उपयुक्त कार्रवाई करे क्योंकि वह किसी मुख्यमंत्री की भाषा लगती ही नहीं है.

लेकिन जो हालात हैं और जिस तरह पिछले सात आठ सालों में संवैधानिक संस्थाओं का क्षरण हुआ है, उसकी रोशनी में कह नहीं सकते कि चुनाव आयोग उसका आग्रह स्वीकार कर कोई कार्रवाई करेगा या नहीं.

आम तौर पर वह नेताओं द्वारा चुनाव प्रचार में इस तरह मर्यादाएं व सीमाएं तोड़े जाने पर उन्हें चेतावनी देता और कुछ अवधि के लिए चुनाव प्रचार करने से रोक देता रहा है. लेकिन इस मामले में ये पंक्तियां लिखे जाने तक वह अपनी निष्पक्षता प्रदर्शित कर ऐसा कुछ नहीं कर पाया है, जिससे न सिर्फ उसकी खुद की प्रतिष्ठा धूमिल हो रही है, बल्कि सत्ताधीशों की भाषा से लोकतंत्र की परंपराओं, मूल्यों व स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की संभावनाओं के समक्ष जो संकट उत्पन्न हुआ है, वह और गहरा हो रहा है.

ऐसे में एक प्रेक्षक द्वारा पिछले दिनों लिखी गई यह बात बेहद काबिलेगौर है: लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली ही नहीं बल्कि जीवन शैली भी है, जिसको बनाए रखने का सबसे ज्यादा जिम्मा सत्ता एवं राजनीति में संलग्न लोगों का होता है. यह जिम्मा सौहार्द एवं समन्वयपूर्ण वातावरण में ही निभाया जा सकता है, जिसे बनाने की शुरुआत शालीन एवं संयमित भाषा से ही होती है- व्यवहार की बारी तो बाद में आती है.

अगर हमें अपने लोकतंत्र की उम्र लंबी करनी है और लंबे समय तक उसकी व्यवस्था में जीना है तो विधायिकाओं में बैठे या वहां तक पहुंचने के इच्छुक अपने प्रतिनिधियों को विवश करना होगा कि वे अपनी भाषा सुधारें.

अगर अपने पसंदीदा दल के नेताओं द्वारा ऐसी भाषा का प्रयोग हमें मुदित करता है, तो मानना होगा कि हम लोकतंत्रिक प्रणाली के लायक विकसित ही नहीं हुए हैं. क्योंकि दुनिया का कोई भी सभ्य व लोकतांत्रिक समाज या राष्ट्र न तो ऐसी भाषा पर यकीन कर सकता है और न ही उसका कायल हो सकता है, जो समाज में नफरत एवं हिंसा के उत्प्रेरक के तौर पर काम करे.

खुद को इस आईने के सामने करते हुए गौर करें: प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मुख्यमंत्री अदम्य सत्ताकांक्षा की बेलगाम रौ में अपने विपक्षियों को निचले दर्जे का शत्रु साबित करते हुए यह तक नहीं देख पा रहे कि इस चक्कर में वे ‘सूप हंसे तो हंसे छलनी भी हंसे’ जैसी गति को प्राप्त हुए जा रहे हैं तो इसका कारण क्या है?

जब वे विपक्षियों पर राजनीति के अपराधीकरण की तोहमत जड़ते हैं तो क्यों नहीं बताते कि उनकी ‘पाक-साफ’ पार्टी ने निन्यानवे ऐसे उम्मीदवार क्यों उतारे हैं जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि है? खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का अतीत कैसा रहा है? उन पर मुख्यमंत्री बनने से पहले तक कितने और कैसे मामले दर्ज थे, जो उन्होंने मुख्यमंत्री बनने के बाद खुद वापस ले लिए?

शायद इसीलिए जब मुख्यमंत्री कहते हैं कि उन्होंने प्रदेश की उन बेटियों को अभयदान दे दिया है, जो पहले सूर्यास्त के बाद बाहर निकलते सहमती थीं, तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की सितंबर, 2021 की रिपोर्ट ही आगे बढ़कर उनका प्रतिवाद करती दिखती है, जिसमें हत्या, बलात्कार व महिला उत्पीड़न आदि के मामलों में उत्तर प्रदेश दूसरे प्रदेशों से लगातार ऊपर बना हूुआ है.

यहां गौर करने की एक बात यह भी है कि इन तीनों से पहले के प्रधानमंत्री, मंत्री व मुख्यमंत्री भी चुनावों में अपनी-अपनी पार्टियों एवं प्रत्याशियों का कुछ कम प्रचार करते थे. लेकिन वे इनकी तरह अर्धसत्यों से काम नहीं लेते थे, न तथ्यों को तोड़ते-मरोड़ते थे.

बुरे से बुरे हाल में भी वे अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों को अपनी पार्टी के हितों से ऊपर रखते थे. ये नहीं रख रहे तो यही कहना होगा कि अब बाड़ ही खेत खाने लगी है. सवाल है कि उसे यूं खेत खाने से देश-प्रदेश के भाग्यविधाताओं यानी मतदाताओं के अलावा और कौन रोक सकता है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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