लता मंगेशकर: उर्दू साहित्य में दर्ज उस ‘आवाज़’ की तस्वीर कैसी दिखती है

स्मृति शेष: उर्दू साहित्य में लता मंगेशकर सांस्कृतिक विविधता और संदर्भों के बीच कई बार ऐसे नज़र आती हैं जैसे वो सिर्फ़ आवाज़ न हों बल्कि बौद्धिकता का स्तर भी हों.

//
लता मंगेशकर. [जन्म: 28 सितंबर- अवसान: 6 फरवरी 2022] (फोटो साभार: ट्विटर)

स्मृति शेष: उर्दू साहित्य में लता मंगेशकर सांस्कृतिक विविधता और संदर्भों के बीच कई बार ऐसे नज़र आती हैं जैसे वो सिर्फ़ आवाज़ न हों बल्कि बौद्धिकता का स्तर भी हों.

लता मंगेशकर. [जन्म: 28 सितंबर- अवसान: 6 फरवरी 2022] (फोटो साभार: ट्विटर)
धूप, साया, रोशनी, रंग और नूर के पैकर में ढली ये आवाज़,

शायद आने वाली सदियों के कानों में भी रस घोले…

और अंतहीन युगों की स्मृतियों में हमारी सदी को पुकारे…

उस सदी को जिसमें लता मंगेशकर थीं और हम थे…

इस अनुभूति के बावजूद कोई और बात है जो मुझे ग़ालिब बेतहाशा याद आ रहे हैं;

ढूंढे है उस मुग़ंन्नी-ए-आतिश-नफ़स को जी
जिसकी सदा हो जल्वा-ए-बर्क़-ए-फ़ना मुझे

शायद ये तलाश भी उनके गीतों में ही कही रखी हो.

मैं ये क्या लिख रहा हूं, लता मेरे लिए कौन थीं, क्या मैं उनके मॉड्युलेशन को समझता हूं, उनके आवाज़ की लोचदारी से वाक़िफ़ हूं, क्या उनके रेंज, डिक्शन और सोज़-ओ-गुदाज़ पर बातें कर सकता हूं.

इस तरह की अक्सर बातों का जवाब है, बिल्कुल नहीं. फिर, वो शायद मुझ ऐसे सादा दिलों की सिम्फ़नी महज़ हैं, और जीवन की एक ऐसी तरंग, हां, मधुर तरंग जो कभी आंखों में शांत पड़ी रहती है और कभी जल-तरंग सी बजने लगती है.

जैसे मन मृदंग की हर थाप यही हो.

हालांकि, उनके राजनीतिक विचारधाराओं से असहमति अपनी जगह, उनकी आवाज़ की पाकीज़गी से किस काफ़िर को इनकार होगा. ये आवाज़ कानों में पहली बार कब पड़ी याद नहीं, शायद हमने अज़ान के साथ ही उनकी आवाज़ सुनी हो.

मुझे याद है कि नानी अक्सर उनका गीत ‘जिया बेक़रार है’ अपने ख़ास अंदाज़ में गाया करती थीं, और हम हंसा करते थे.

ऐसे ही किसी लम्हे में वो हम से जुड़ीं होंगीं, फिर रेडियो और वॉकमैन से होते हुए हमारे मोबाइल की गैलरी में कब दिल जैसी जगह बना चुकीं, उसका स्मरण फ़िलहाल मुश्किल है. कुछ ख़ास लम्हों और कई आवारा रातों हमने लगातार ‘लग जा गले…’ एक अजीब सी कैफ़ियत में डूब कर सुना है.

इसमें आज भी अतीत की परछाइयां देख लेता हूं, और याद पड़ता है कि इसी गीत की वजह से हमने कभी इसके गीतकार राजा मेहदी अली ख़ान का लगभग सारा साहित्य पढ़ लिया था.

और ऐसे ही किसी वक़्त में ये भी हुआ कि उर्दू साहित्य में जहां भी लता जी का तज़्किरा नज़र आया, उसे डायरी में ग्रंथ सूची की तरह दर्ज करने लगा. कई बार जी में आया कि इन संदर्भों को एक मज़मून की सूरत बांध दूं. मगर, वो जो कहते हैं कि ‘कुछ इश्क किया, कुछ काम किया’ वाली कैफ़ियत में हमने ‘दोनों को अधूरा छोड़ दिया.’

डायरी के उन्हीं पन्नों से इस ‘आवाज़’ की एक तस्वीर बनाने की कोशिश में ये सब लिख रहा हूं.

और उससे पहले इसी डायरी से जेएनयू के दिनों के अपने अज़ीज़ कॉमरेड और शायर मोईद रशीदी के वो शेर यहां दर्ज कर करता हूं, जिन्हें वो लता की शान में एक ख़ास अंदाज़ में अक़ीदत के साथ पढ़ा करते थे;

शहद में घुलती हुई सौत-ओ-सदा, जादू है
रूह का कोई हवाला कि दुआ, जादू है
नूर है उसके गले में कि ख़ुदा का जलवा
दिल ने आवाज़ सुनी बोल पड़ा, जादू है

मुझे सोचकर ख़ुशी हो रही है कि हमने लता को सिर्फ़ सुना और महसूस नहीं किया, बल्कि उनके बारे में बातें की हैं और उन पर शेर कहने वाले दोस्त को जी भर दाद भी दी है.

ख़ैर, अब उन पन्नों की तरफ़ आता हूं जहां मंटो के उस स्केच का संदर्भ है, जो उन्होंने नूरजहां के लिए लिखा था. हां, मंटो नूरजहां के परस्तार थे और उनकी आवाज़ से ‘लोच’, ‘रस’ और ‘मासूमियत’ के चले जाने का ज़िक्र करते हुए भी उन्हीं में गुम थे, लेकिन;

‘लता मंगेशकर की आवाज़ का जादू आज हर जगह चल रहा है, पर कभी नूरजहां की आवाज़ फ़िज़ा में बुलंद हो तो कान उससे बे-एतिनाई नहीं बरत सकते…’

शायद ये कमाल ही है कि हर हाल में नूरजहां का जाप करने वाले मंटो ने बिल्कुल शुरुआती ज़माने में लता की आवाज़ को ‘जादू’ कहा.

और साहित्य में जब मंटो के दोस्त और नज़्म के बदनाम-ए-ज़माना शायर मीराजी की दिल्ली वाली महबूबा की तस्वीर बनाई गई तो उसके गले की मिठास को भी लता जैसी आवाज़ के हुस्न के तौर पर ही पेश किया गया.

इसी डायरी में क़लम के सुर्ख़ घेरे के अंदर इन्तिज़ार हुसैन के एक कॉलम ‘लता मंगेशकर की वापसी’ का विवरण भी दर्ज है. आज इन्तिज़ार साहब की किताब ‘बूंद-बूंद’ में इस तहरीर को पढ़ रहा हूं, तो एहसास हो रहा है कि जंग के दिनों में कैसी-कैसी पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं. लेकिन, कहां कोई सरहद दिल के साज़ को तोड़ सकी हैं.

दरअसल, इसी तरह की पाबंदी के कारण भारत-पाक (1965) युद्ध के दौरान सरहद पार के आम लोगों में लगातार 17-18 दिनों तक लता को नहीं सुन पाने की अजीब सी बेचैनी थी.

जंग के इन दिनों में चाय की दुकानों पर रेडियो जालंधर से फरमाईशें सुनने वालों की इसी कैफ़ियत का हाल सुनाते हुए इन्तिज़ार साहब याद करते हैं;

‘वो 6 सितंबर थी, जब लता मंगेशकर ने हमसे बेवफ़ाई की और हमने इस काफ़िर से किनारा किया.’

और ज्यों ही ये पहाड़ से दिन गुज़रे, और कानों में रेडियो जालंधर से लता ने रस घोलना शुरू किया तो इन्तिज़ार साहब ने ग़ालिब का शेर पढ़ा;

फिर उसी बे-वफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िंदगी हमारी है

इससे पहले का दिलचस्प हाल सुनाते हैं कि जब रेडियो पाकिस्तान की ‘लश्तम-पश्तम आवाज़’ गूंजती और कोई पनवाड़ी बेचैन होकर स्विच घुमाता, रेडियो सीलोन लगाता या रेडियो जालंधर मिलाता तो ‘कोई तन-जला तंज़ कर देता; उस्ताद जालंधर लगा रखा है और पनवाड़ी झेंपकर सुई को फिर अपने स्टेशन पर ले आता.’

और जंग के बाद जब उन्हें अपनी लता फिर से मिल गईं तो इन्तिज़ार साहब ने तंज़ किया; ‘यारो ये क्या है कि जंग के दिनों में तो तुम्हें लाहौर स्टेशन सुने बग़ैर कल नहीं पड़ती थी-जंग का ज़माना रुख़्सत हुआ तो तुमने उसे दूध की मख्खी की तरह निकाल फेंका है…’

फिर यहां इन्तिज़ार साहब न सिर्फ़ लता की लोकप्रियता को इंगित करते हैं, शादी-ब्याह और ज़िंदगी के झमेलों में उनके सुरूर को रेखांकित करते हैं, बल्कि वफ़ूर-ए-जज़्बात में ख़ुद भी गुनगुनाने लगते हैं; ‘कंकरिया मार के जगाया…ज़ालिमा तू बड़ा वो है

यूं इन्तिज़ार साहब ने बड़े सुथरे अंदाज़ में जंग की मानसिकता के ख़िलाफ़ उस सांस्कृतिक चेतना को ऊपर उठाने की कोशिश की है जिसमें कोई एक लता जैसी आवाज़ न सिर्फ़ बसती है, बल्कि पड़ोसी मुल्कों के लिए भाईचारे की वजह भी बन सकती है.

ठीक इसी तरह सरहद पार की ही हमारी प्यारी शायरा परवीन शाकिर की नज़्म ‘मुश्तरका दुश्मन की बेटी’ इन दो मुल्कों के हालात और जंगों को संदर्भित करते हुए एक चीनी रेस्तरां के घुटन और हब्स का नक़्शा खींचती हैं और कहती हैं;

‘लेकिन उस पल, आर्केस्ट्रा ख़ामोश हुआ
और लता की रस टपकाती, शहद-आगीं आवाज़, कुछ ऐसे उभरी
जैसे हब्स-ज़दा कमरे में
दरिया के रुख़ वाली खिड़की खुलने लगी हो!

………

मैंने देखा
जिस्मों और चेहरों के तनाव पे
अनदेखे हाथों की ठंडक
प्यार की शबनम छिड़क रही थी
मस्ख़-शुदा चेहरे जैसे फिर सवंर रहे थे

………

मुश्तरका दुश्मन की बेटी
मुश्तरका महबूब की सूरत
उजले रेशम लहजों की बाहें फैलाए
हमें समेटे
नाच रही थी!’

शायद ये ख़ुशी में झूमने जैसी बात भी हो कि सरहद पार के ये साहित्यकार अपने ख़ास अंदाज़ में लता को हिंद-ओ-पाक की दोस्ती का सिंबल बनाते हैं और जंग के ख़िलाफ़ मौसिक़ी को साए में दुश्मन की बेटी की बांहों में नाचने लग जाते हैं.

सरहद पार की ही बात करें तो मुमताज़ मुफ़्ती जैसे साहित्यकार जब दिल्ली आते हैं और ‘हिंद यात्रा’ के शीर्षक से यात्रा वृत्तांत लिखते हैं, तो भारत को ‘लता का देश’ कहते हैं कि;

ऐ लता मंगेशकर के देश मैं तुझे प्रणाम करता हूं. मेरा सलाम क़ुबूल कर.’

और हमसफ़र दोस्त के याद दिलाने पर कि लता तो बंबई में रहती है, कहते हैं;

‘इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है. वो तो मेरे दिल में रहती है. ज़िंदगी में जितना सुख जितनी ख़ुशी मुझे लता ने दी है. किसी और फ़र्द-ए-वाहिद ने नहीं दी. जवानी में उसने मुझे दिल की धड़कनें दीं, बुढ़ापे में दिल का सुकून दिया. ज़ालिमों ने उसे मंदिर से निकालकर फैशन परेड में बिठा दिया.’

दरअसल, उस समय वो इस बात से नालां थे कि लता को अपनी मौसिक़ी में ही रमे रहना चाहिए, फैशन वाले गीत नहीं गाने चाहिए. इसलिए उनका दिल ये मानने को तैयार ही नहीं है कि एक हिंदू शुद्ध संगीत को पल भर के लिए भी छोड़ सकता है.

यहां ‘हिंदू’ और ‘संगीत’ की बात आ ही गई है तो इस बात की भी चर्चा कर ही दूं कि जहां सरहद पार के कई क़लमकार राग विद्या को भारत की रूह मानते हैं, वहीं नूरजहां जैसी गुलूकारा को उनके अपने मुल्क में उचित सम्मान नहीं मिलने के पीछे अपने मज़हब में मौसिक़ी के ‘हराम’ होने को भी वजह बताते हैं, और हिंदुस्तान में लता को देवी की तरह पूजने के जज़्बे को सलाम पेश करते हैं.

ख़ैर, इसी कड़ी में शायरी को लोकतंत्र की भाषा में ढाल देने वाले शायर हबीब जालिब भी लता को गले लगाते नज़र आते हैं, और क़ैद की तन्हाई में पुकार उठते हैं;

तुझको सुनकर जी उठते हैं
हम जैसे दुख-दर्द के मारे
तेरे मधुर गीतों के सहारे
बीते हैं दिन-रैन हमारे…

आख़िर जालिब ने जेल में लता को इतनी मोहब्बत से क्यों याद किया होगा, समझना मुश्किल नहीं. हालांकि, असग़र नदीम सैयद इसकी एक ख़ास वजह भी बताते हैं;

‘हबीब जालिब ने तारीकी को डराया है-वो लता मंगेशकर का गीत इसलिए पसंद करता है कि वो अपाहिज गदागरों का मिला-जुला कोरस नहीं सुनना चाहता. अगर उसे ये सब कुछ भी सुनना पड़ेगा तो फिर वो ये भी कहने का हक़ रखता है कि मैं अभी तारीकियों के सफ़र से वापिस नहीं लौटा. अलबत्ता वो यक़ीन दिलाता है कि मैं ज़रूर आऊंगा.’

गोया लता जालिब के लिए अंधेरे में रोशनी थीं, ख़ुद जालिब की गवाही क़ुबूल करें तो वो जेल की तारीकियों में अपने नौजवान दोस्त वहाब से कहा करते थे; कोई लता को ढूंढकर लाओ…वहाब रेडियो पर सुई घुमाते जहां कोई न कोई लता का गाना लगा होता. वो चिल्लाता, जालिब साहब! लता आ गई, लता आ गई...

यूं लता के आ जाने में जीवन की ज्योति का इशारा भी है;

तेरी अगर आवाज़ न होती
बुझ जाती जीवन की ज्योति

इन बातों से इतर उर्दू साहित्य में लता सांस्कृतिक विविधता और संदर्भों के बीच कई बार ऐसे नज़र आती हैं जैसे वो सिर्फ़ आवाज़ न हों बल्कि बौद्धिकता का स्तर भी हों.

मसलन, ज़ाहिदा ज़ैदी के उपन्यास ‘इंक़लाब का एक दिन’ में उनके किरदार उर्दू शायरी, अंग्रेज़ी साहित्य, रूसी उपन्यास, अजंता आर्ट और अमृता शेरगिल के साथ लता मंगेशकर के बारे में बात करते हैं तो वो असल में इन बातों को एक बौद्धिक समाज का प्रतीक भी बनाते हैं.

कुर्रतुलऐन हैदर के यहां देखिए तो अपनी किताब ‘कोह-ए-दमावंद’ (माउंट दमावंद) में एक जगह बताती हैं कि सड़कों पर बूढ़े उज़बेक सीख़ कबाब बेच रहे हैं और बाज़ार में लता की आवाज़ सुनाई पड़ रही है.

ऐसे में हैदर चौंक कर कहती हैं; समरक़ंद के बाज़ार में लता का फ़िल्मी गीत! तो गोल्डन समरक़ंद को क़िस्सा-ए-माज़ी समझो.

यहां उन्होंने इस बात की तरफ़ इशारा किया है कि एक बेगाने मुल्क में लता की इस तरह की मौजूदगी का मतलब ये भी है कि कल्चरल हेजेमनी या सत्ताधारियों के वर्चस्व का ज़माना लद गया.

बहरहाल, बानो क़ुदसिया ने ‘समझौता’ में विभाजन, पाकिस्तान, हिंदू मुसलमान, बांग्लादेश और हिंदुस्तान में पाकिस्तानी क़ैदियों के इर्द-गिर्द एक ताक़तवर कहानी बुनी है. जिसमें एक मंज़र कुछ ऐसा है;

नंबर बासठ,
जी साहब,
लता मंगेशकर का नाम सुना है तुमने?
जी सर,
ये गाना सुना है; आएगा आने वाला-
जी साहब.

ज़रा सीटी बजाओ इस धुन पर-लेकिन जब मैं कहूं फ़ौरन बंद कर देना.
यस सर.

अब्दुल करीम दुश्मन के सिपाही को ख़ुश करने के लिए काफ़ी देर तक सीटी बजाता रहा.
आएगा आने वाला,
आएगा-आएगा-आएगा…

और दूसरे मंज़र में;

हमें वो लोग याद आने लगे जो पाकिस्तान में हमारी राह देख रहे थे, उस लम्हे हम क़ैदी न रहे. हमारा अपना कोई ग़म न रहा….

इस गीत ने हमारा अपना ग़म, ज़िल्लतें, रुस्वाइयां, भूक, तंगदस्ती, ज़ुल्म, बेग़ैरती, बेइज्ज़ती को अपने में समो लिया. और उस पर उन लोगों का ग़म ग़ालिब आ गया जो हमारे लिए तरस रहे थे-जो हमारी राह देख रहे थे.

याद दिला दूं कि फ़िल्म ‘महल’ के इसी शाहकार गीत ने लता को लोकप्रिय बनाया था. अब इसको इन क़ैदियों की नज़र से देखिए तो शायद इसमें एक दूसरा अर्थ भी नज़र आएगा.

कहीं दूर से आती हुई आवाज़ और एक ख़ास क़िस्म की धुन को अपनी कहानी में बानो ने इस तरह पेंट किया कि क़ैदी एक तरह की कथार्सिस के भेद को पा लेते हैं, लेकिन उनकी राह देखने वालों का दुःख इस भेद को और गहरा बना देता है.

समझा जा सकता है कि लता किस-किस तरह से साहित्य और उसके रचनात्मक प्रकिया का हिस्सा बन जाती हैं.

ऐसे ही अख़्तर जमाल की कहानी ‘स्काई लैब’ में एक सुदूर पहाड़ी गांव का चित्रण मिलता है, जहां बस ट्रांजिस्टर ही है जो यहां के लोगों को बाहरी दुनिया से जोड़ता है.

वो बाहरी दुनिया को ज़्यादा नहीं जानते, ऐसे में ट्रांजिस्टर की तेज़ आवाज़ में आवाज़ मिलाकर लड़कियों का लता और नूरजहां संग कोरस के अंदाज़ में गाना हमें अपनी सांस्कृतिक स्मृतियों की पुकार लगने लगता है.

ऊपर हमने जंग के दिनों में लता की चर्चा की है, शायद ये संयोग हो कि वो बार-बार इसका संदर्भ बनती हैं. यहां भी देखिए कि ‘वियतनाम’ के हालात का ज़िक्र करते हुए इसी शीर्षक से भारतीय दर्शन और संगीत से गहरी दिलचस्पी रखने वाले शायर अमीक़ हनफ़ी कह गए;

‘…लता मंगेशकर की शहद सी आवाज़ का जादू यकायक तोड़ कर तेज़ाब की बदली से

बिजली बनके गिरती है, लहू में जज़्ब होकर चश्म-ओ-लब पर अश्क-ओ-खून-ओ-नारा-ए-शब-गीर बनकर थरथरती है…

अमीक़ साहब ने ‘लता मंगेशकर’ के शीर्षक से 1964 में एक और नज़्म कही थी, जो उनकी किताब ‘शब-ए-गश्त’ में शामिल है.

हालांकि इसकी एक ना-मुकम्मल सूरत इससे पहले फ़िल्म पत्रिका ‘माधुरी’ में भी छप चुकी थी;

‘आवाज़ों के शहर बसे हैं आवाज़ों के गांव हैं
आवाज़ों के जंगल में कांटों से ज़ख़्मी पांव हैं
आवाज़ें ही आवाज़ें हैं
लेकिन इक आवाज़
जो ये घने भयानक जंगल चीर के दूर से आती है
….

फिर वो मेरे अंदर की गहराई में खो जाती है’

इस नज़्म में लता को एक ऐसी आवाज़ क़रार दिया गया है जो शायर के ‘ध्यान-नगर में नीले महल बनाती है.’

इसी तरह जाबिर हुसैन जब ‘दीवार-ए-शब’ में कहते हैं;

‘मैं भी कहूंगा वंदेमातरम्
जैसे कि कहती हैं लता मंगेशकर
जैसे कि कहते हैं एआर रहमान

किसी गृहमंत्री
किसी सरसंघचालक
किसी पार्टी अध्यक्ष
के कहने से नहीं कहूंगा मैं
वंदेमातरम्!’

तो हुसैन यहां अक्षरशः वंदेमातरम् कहने की बात नहीं करते बल्कि वो लता और रहमान के देशप्रेम के जज़्बे को इस मुल्क की सियासत के ख़िलाफ़ अपने विरोध का प्रतीक बनाने की कोशिश करते हैं.

इस अध्याय में कुछ अलग रंग की नज़्में भी हैं, जैसा कि साहिर और लता के क़िस्से अक्सर लोग जानते हैं, तो बस उनकी दो नज़्में ‘तेरी आवाज़’ और ‘इंतिज़ार’ की चर्चा जिनमें जुदाई की तड़प है, शिकवा है इंतिज़ार हैं और एक हारे हुए आशिक़ की दास्तान है;

‘देर तक आंखों में चुभती रही तारों की चमक
देर तक ज़हन सुलगता रहा तन्हाई में
अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुर्सिश के लिए
तू न आई मगर इस रात की पहनाई में’

इसके बर-अक्स मजरूह साहब ने ‘लता मंगेशकर के नाम’ के शीर्षक से अपनी शायरी और लता की आवाज़ के हुस्न का जश्न मनाया है;

मेरे लफ़्ज़ों को जो छू लेती है आवाज़ तिरी
सरहदें तोड़के उड़ जाते हैं अशआर मिरे

यूं लता साहित्य में भी एक मुकम्मल कल्चरल डिस्कोर्स हैं, और कई बार हमारे दिनचर्या के हास्य में शामिल होकर साहित्य की इस शैली को भी समृद्ध करने के काम आती हैं.

पहले एक प्रसंग सुन लीजिए कि अख़्लाक़ अहमद देहलवी जोश मलीहाबादी और लता के बड़े प्रशंसक थे और विभाजन के बाद रेडियो पकिस्तान से जुड़ गए थे. एक दिन जब वो रेडियो पर प्रसारण के लिए जा रहे थे तो किसी ने तफ़रीह के लिए कह दिया, जोश ने लता के लिए क्या ख़ूब कहा है. वो तड़प उठे, बोले क्या कहा है? सामने वाले ने शेर में एक शब्द बदलकर सुना दिया;

वो गूंजा नग़्मा-ए-शीरीं लता का
ज़मीन-ओ-आसमां ख़ामोश-ख़ामोश

और इससे पहले कि उन्हें रोका जाता और जोश का सही शेर सुनाया जाता, उन्होंने रेडियो पर बड़े मज़े से कहा; देखिए हज़रत-ए-जोश मलीहाबादी ने लता को किस अंदाज़ से हदिया-ए-तहसीन पेश किया है.

बाद में इस हास्य के सूत्रधार को ये कहकर सफ़ाई पेश करनी पड़ी कि उन्हें जोश का ये शेर इसी तरह याद था.

अब बाक़ायदा इस शैली के बारे में दो-चार बातें कि शौकत थानवी जैसे बड़े हास्यकार ने जब मौलाना आज़ाद की चर्चित पुस्तक ‘ग़ुबार-ए-ख़ातिर’ की तर्ज़ पर ‘बार-ए-ख़ातिर’ लिखा तो इसमें उन्होंने तमाम बड़े लोगों के साथ एक दिलचस्प ख़त लता मंगेशकर को भी लिखा;

‘ये आफ़त-ए-होश-ओ-ईमां आवाज़ तो दर-दर और घर-घर पहुंची हुई है. कौन सा ख़ित्ता है जहां ये शराब न बरसती हो. इन नग़्मों की ज़बान कोई समझे या न समझे मगर ये गीत गुनगुनाने वाले वहां भी मिल जाते हैं जहां उर्दू अभी तक नहीं पहुंची…’

इसी ख़त में आगे कहते हैं;

‘मैंने उर्दू के सबसे बड़े मुबल्लिग़ मौलाना अब्दुल हक़ के नाम जो ख़त लिखा है उसमें निहायत संजीदगी के साथ अर्ज़ किया है कि भारत की सबसे बड़ी मौलाना अब्दुल हक़ लता मंगेशकर है, जिसके गाने उस हिंदुस्तान के गोशे-गोशे में रचे हुए हैं जो उर्दू से अपना दामन बचाने का दावादार है, मगर उर्दू है कि लता के गानों की शक्ल में अपने गुण गवा रही है.’

फिर इस अंदाज़ में दाद देते हैं;

‘एक मोअत्तर गिलौरी मुंह में हो और कानों में आपकी आवाज़ का रस उंडल रहा हो तो इस दो-आतिशा का कैफ़ मुझको वाक़ई गुम कर देता है और मैं चाहता हूं कि कोई मुझको न ढूंढे.’

इसी तरह फ़िक्र तोनस्वी ने जब अपने एक लेख में व्यक्तित्व के साथ नाम के सूट करने के बारे में लिखा तो लता के नाम को भी अपना विषय बनाया;

‘लफ़्ज़ मंगेशकर को ज़बान से अदा करते वक़्त हलक़, ज़बान और दांतों को तीन मुश्किल स्टेजों से गुज़रना पड़ता है. बिल्कुल रुसी नावेलों के किरदारों की तरह कि वो आसानी से ज़बान की गिरफ़्त में आते ही नहीं. लेकिन जब लता मंगेशकर की मुतरन्निम, रसीली और बताशे की तरह घुलती हुई आवाज़ ने हिंदुस्तानियों के आसाब में जादू जगाना शुरू कर दिया और पान फ़रोश से लेकर कॉलेज के लेक्चरार से होते हुए मेम्बरान-ए-पार्लियामेंट तक लता की आवाज़ पर झूमने लगे तो लता मंगेशकर के नाम में कोई अड़चन और दिक्क़त न रही. उसके नाम और आवाज़ में पहाड़ी झरने की सी रवानी महसूस होने लगी.’

तोनस्वी साहब ने ‘प्याज़ के छिलके’ में भी बड़े मज़े के साथ लता और उनकी आवाज़ को व्यंग की शैली के लिए बरता है.

और इस तरह हमारे ज़माने के हास्य-व्यंगकार मुजतबा हुसैन ने जब अपना ही शोक संदेश लिखा तो ये भी लिख गए कि;

‘करोड़ों बरस पुरानी दुनिया में 20 वीं और 21 वीं सदी के बीच ये जो अस्सी बरस उन्हें (मुजतबा साहब) मिले थे, उनसे वो बिल्कुल मायूस नहीं थे. कभी-कभी मौज में होते तो अपना मुक़ाबला दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियों से करके उन हस्तियों को आन की आन में चित कर देते थे. अपने आपको सिकंदर-ए-आज़म से बड़ा इसलिए समझते थे कि सिकंदर-ए-आज़म ने लता मंगेशकर का गाना नहीं सुना था…’

यूं देखें तो लता हर तरह से उर्दू साहित्य की शैलियों में सृजनशीलता का हिस्सा बनती रही हैं, अब दिलावर फ़िगार को ही देखिए कि;

ट्यून में पैदा करो कैफ़-ओ-असर
जैसे गाती है लता मंगेशकर

इसके अलावा राजिंदर सिंह बेदी (मुक्तिबोध), अब्दुल्लाह हुसैन (नशेब), मुस्तनसिर हुसैन तारड़ (बर्फीली बुलंदियां), अर्श मलसियानी, क़तील शिफ़ाई और गुलज़ार जैसे जाने कितने लिखने वालों ने लता को उर्दू साहित्य के बौद्धिक सम्पदा में शामिल करने की कोशिश की है.

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq