रूस-यूक्रेन संकट से कुछ कठोर सबक सीखे जा सकते हैं

रूस के क़दम भू-राजनीतिक संतुलन को बुरी तरह से बिगाड़ने वाले हैं, लेकिन क्या इन्हें अप्रत्याशित कहा जा सकता है? जवाब है, नहीं. कौन-सा शक्तिशाली देश अपने पड़ोस में निरंतर किए जा रहे रणनीतिक अतिक्रमणों को स्वीकार करेगा? अतीत में अपनी कमज़ोरी की क़ीमत चुकाने के बाद रूस को लगता है कि अब मज़बूत जवाबी कार्रवाई करने का वक़्त आ गया है.

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पूर्वी यूक्रेन में सैन्य अभियान शुरू करने की घोषणा करते रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन. (फोटो: स्क्रीनग्रैब/रॉयटर्स टीवी)

रूस के क़दम भू-राजनीतिक संतुलन को बुरी तरह से बिगाड़ने वाले हैं, लेकिन क्या इन्हें अप्रत्याशित कहा जा सकता है? जवाब है, नहीं. कौन-सा शक्तिशाली देश अपने पड़ोस में निरंतर किए जा रहे रणनीतिक अतिक्रमणों को स्वीकार करेगा? अतीत में अपनी कमज़ोरी की क़ीमत चुकाने के बाद रूस को लगता है कि अब मज़बूत जवाबी कार्रवाई करने का वक़्त आ गया है.

पूर्वी यूक्रेन में सैन्य अभियान शुरू करने की घोषणा करते रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन. (फोटो: स्क्रीनग्रैब/रॉयटर्स टीवी)

रूस द्वारा यूक्रेन से अलग होने की घोषणा करने वाले दो क्षेत्रों- डोनेत्स्क और लुहांस्क को मान्यता देना, इसका ‘शांतिरक्षकों’ को भेजने का फैसला व प्रतिबंध और अन्य उपायों के हिसाब से अमेरिका और यूरोप की सामने आ रही प्रतिक्रियाएं-  अंतरराष्ट्रीय राजनीति के मौजूदा हालात को लेकर बेहद स्पष्ट संदेश देने वाले हैं. एक संकट भ्रमों को दूर करने और दिमाग पर पड़े धुंध को साफ करने वाला साबित हो सकता है. यह संकट निश्चित तौर पर ऐसा ही है.

दुर्बलता एक अपराध है, 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद से रूस ने यह कठोर सबक सीखा है. नाटो का विस्तार एक झूठे वादों और अवास्तविक अपेक्षाओं की कहानी थी. गोर्वाचव, येल्तसिन और यहां तक कि दब्बू कोज़ीरेव की या उपेक्षा की जाती हो, प्रशंसा की जाती हो, या उनसे झूठ बोला जाता हो, लेकिन उनका कभी सम्मान नहीं किया गया, न उनके लिए जगह बनाई गई.

रूस के विरोध कमजोर थे और कभी-कभी भ्रमित भी. जैसा कि शांति के लिए साझीदारी के नाटो के झांसे के मामले में था, जिसके जाल में यह फंस गया. यहां तक कि अपने शासन के शुरुआती दिनों में व्लादिमीर पुतिन ने भी नाटो की सदस्यता के विचार में दिलचस्पी दिखाई. नाटो के विस्तार की हर लहर सैन्य गठबंधन को रूस की सीमा के करीब लाती गई.

आज अपनी पश्चिमी सीमाओं पर रूस एक बेहद प्रतिकूल स्थिति से बचने की कोशिश कर रहा है, जिसे इसे कभी अपनी कमजोरी के कारण स्वीकार करने पर मजबूर होना पड़ा था. रूस सोवियत संघ नहीं है, लेकिन यह अब वह दुर्बल राष्ट्र भी नहीं है, जो यह कभी था. अपनी सैन्य शक्ति को फिर से हासिल करने के बाद यह अमेरिकी और नाटो के अतिक्रमणों से अपने सीमावर्ती इलाकों की रक्षा करने के लिए आक्रामक उपायों का इस्तेमाल कर रहा है.

इसके कदम भू-राजनीतिक संतुलन को बुरी तरह से बिगाड़ने वाले हैं, लेकिन क्या इन्हें अप्रत्याशित कहा जा सकता है? जवाब है, नहीं. कौन-सा शक्तिशाली देश अपने ठीक पड़ोस में लगातार किए जा रहे रणनीतिक अतिक्रमणों को स्वीकार करेगा? अतीत में अपनी कमजोरी की कीमत चुकाने के बाद रूस को लगता है कि अब मजबूत जवाबी कार्रवाई करने का वक्त आ गया है.

बहरापन या न सुनना हेकड़ी के साथ ही आता है. 1990 के दशक में रूस की विदेश नीति का सबसे बड़ा मकसद पश्चिम से स्वीकृति हासिल करना था. यह दौर पुतिन के 2007 के म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन के भाषण तक चला- जिसमें वॉशिंग्टन के रणनीतिक बहरेपन का गंभीरता के साथ विरोध किया गया था. इसका एक साथ तिरस्कार भी किया गया और मजाक भी बनाया गया.

बुखारेस्ट सम्मेलन में यूक्रेन और जॉर्जिया को प्रतीक्षा सूची में रखने के फैसले ने जहां रूस को गहरे तक डराया, वहीं इसने इन दो देशों में इस दिलासा देने वाले मगर झूठे भ्रम को प्रोत्साहित भी किया कि अमेरिका और नाटो रूसी हमले से उनकी रक्षा करेंगे. 2008 में जॉर्जिया को दक्षिण अब्खाजिया और दक्षिण ओसेतिया को गंवाना पड़ा. अब डोनबास में यूक्रेन को रूसी कार्रवाई के खिलाफ अपने हाल पर छोड़ दिया गया है.

यूक्रेनवासियों, खासतौर पर 2014 की मैडन की घटनाओं के बाद रूस से संभावित समस्याओं से हिफाजत के लिए दूर बैठे रक्षकों से उम्मीद लगाने वालों के लिए, ये अधूरे वादे घातक साबित हुए हैं. यूक्रेन और जॉर्जिया को अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का अधिकार है, लेकिन अगर इन हकों को कूटनीतिक और सैन्य विकल्पों के माध्यम से मांगा जाए तब भी विपरीत नतीजे सामने आते हैं. दुखद है कि आज स्थिति यही है.

भू-राजनीतिक एक क्षेत्रीय जेनेटिक्स है- इसे वश में तो किया जा सकता है, लेकिन इसे कभी मिटाया नहीं जा सकता है. नाटो के प्रसार ने ऐसे क्षेत्रीय और जातीय संघर्षों को जन्म देने का काम किया है, जो इतिहास में अनेक यूरोपीय युद्धों का कारण बना है. सदस्यता को लेकर नाटो की ओपन डोर पॉलिसी, जो सैद्धांतिक तौर पर तो काफी सशक्त लेकिन व्यवहार में विनाशकारी रही है, अब अपनी अंतिम हद तक पहुंच गई है और 1990 के दशक के बाद यूरोपीय सुरक्षा सबसे बड़े संकट में है.

वादा करने और क्षमताओं के बीच अंतर बहुत ज्यादा है. आज 30 देशों वाले नाटो के पास 1990 के दशक के 16 देशों वाले नाटो की तुलना में कम सैनिक है. अमेरिकी साये से बाहर निकलकर यूरोपीय सुरक्षा का पुनर्निर्माण करने में यूरोपीय शक्तियों- खासकर फ्रांस और जर्मनी की विफलता अब स्पष्ट है.

शीत युद्ध के बाद की एक महत्वपूर्ण खासियत के उलट अमेरिका एक बार फिर यूरोप में लौट आया है. बेल्टवे बबल एनालिसिस (बीबीए) के विपरीत रूस मध्य यूरोप में ‘सीमित संप्रभुता’ नहीं चाह रहा है- यह इसकी शक्ति से बाहर है. यह अपनी सीमा पर स्थित देशों के खिलाफ कार्रवाई कर रहा है, जो बाहरी सैन्य शक्तियों के पक्ष में अपनी संप्रभुता छोड़ रहे हैं. लेकिन रूस की सफलता निश्चित नहीं है.

वास्तव में एक दीर्घकालीन संघर्ष लाजमी हो गया है, जिसकी कितनी कीमत चुकानी होगी, यह अभी नहीं कहा जा सकता है.

वैश्वीकरण का आकलन साझा सुरक्षा और समृद्धि की प्राप्ति से होता है. वहीं दूसरी तरफ, भू-राजनीति का संचालन अपने बुनियादी हितों के लिए कीमत चुकाने और कष्ट सहने की इच्छा से होता है. रूस आज एक ऐसी ही शक्ति है. यूरोप को अमेरिका-रूस संघर्ष की कीमत चुकाने के लिए कहा जाएगा, जो इसकी सुरक्षा और ऊर्जा हितों को प्रभावित करेगा. इसके पास एक दोषपूर्ण सुरक्षा नीति की छिपी हुई कीमत को स्वीकार करने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा.

दोहरे मोर्चे की क्षमताएं सपनों में लिपटी इुई फंतासी है. इतिहास में किसी भी देश के पास एक साथ वैश्विक पैमाने पर दो मोर्चों पर लड़ने की क्षमता नहीं थी. ग्रेट ब्रिटेन के कब्जे में भारत था, लेकिन यह अमेरिकी उपनिवेशों में बने रहने में सफल नहीं हो पाया. जापान द्वारा पर्ल हार्बर में हमला किया जाने के बाद अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध के काफी अंत तक यूरोप केंद्रित रणनीति पर चलता रहा. 1980 के दशक में नाटो और चीन के खिलाफ दो मोर्चों पर लामबंदी ने सोवियत संघ को निचोड़कर रख दिया, जबकि इसी बीच यह अफगानिस्तान में भी लड़ रहा था.

शीत युद्धकाल में अपनी सैन्य शक्ति के शीर्ष पर होने के बावजूद अमेरिका ने किसी एक मोर्चे पर ही बड़े आक्रमण की योजना बनाई और दूसरे मोर्चे पर काम भर सैन्य जमावड़ा बनाए रखा. बीबीए की मानें, तो अमेरिका इस इतिहास को पलट सकता है. अपनी पश्चिमी सीमा से सटे हिस्सों- बाल्टिक, यूक्रेन, कॉकेशस और काला सागर- में लगातार होने वाले संघर्षों में रूस को उलझाकर पश्चिम मध्य एशिया और सुदूर पूर्व में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए चीन के दरवाजे खोल रहा है. यानी जिसकी शुरुआत यूरोप में हुई है, वह यूरोप तक ही महदूद रह जाने वाला नहीं है.

आज अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे अग्रणी वैश्विक शक्ति है. इसकी वजह यूरोप पर इसका प्रबल वर्चस्व और प्रभाव है. नाटो में नए निवेश से यूरोप को दिया गया अमेरिकी वचन और मजबूत हो जाएगा. लेकिन, बीबीए के सभी आशावाद के बावजूद एक ऐसे समय में जब अमेरिक घरेलू स्तर पर बंटवारों से जूझ रहा है और यूरोपकेंद्रित वैश्विक शक्ति से भारत-प्रशांत क्षेत्र की शक्ति के तौर पर संक्रमण से गुजर रहा है, अमेरिका की राह में कई भौतिक और नीतिगत मुश्किलें दरपेश हैं.

पूर्वी और मध्य यूरोप के छोटे देश और वॉशिंग्टन में उनका समर्थक वर्ग सुरक्षा वचन को और बढ़ाने के लिए अमेरिका की नाक में दम कर देंगे. अमेरिका एक ऐसी स्थिति में आ गया है, जहां यह यूरोपीय दलदल में फंसकर रह जा सकता है, जो इसकी वैश्विक प्रतिबद्धताओं में दीर्घकालीन विकृति पैदा कर सकता है.

भारत ने इस लगातार नए रूप ले रहे संकट को लेकर अपना एक सुविचारित और संतुलित पक्ष रखा है. हम अपने अलावा किसी और को जवाबदेह नहीं हैं. जिन लोगों ने यूरोप के महत्वपूर्ण हथियार नियंत्रण समझौतों- सीएफई, आईएनएफ और मुक्त आकाश संधि (ओपन स्काई ट्रीटी) के अलावा 1997 से रूस-नाटो एक्ट, बुडापेस्ट ज्ञापन और मिन्स्क समझौते से पल्ला झाड़ लिया था,  उनमें से कई आज चाहते हें कि भारत ‘नियम आधारित अंतररराष्ट्रीय व्यवस्था’ के पक्ष में झंडा बुलंद करे.

रूस महानताओं का पुतला नहीं है, लेकिन सिर्फ यही रूस के साथ हमारे दीर्घकालीन संबंधों के फायदों पर संदेह करने का कारण नहीं है-  वैसे ही जैसे हमने अपने पक्ष पर कायम रहते हुए इराक में अमेरिका के दशक भर लंबे हस्तक्षेप के दौरान इसके साथ अपने संबंधों को मजबूती दी.

जैसे भारत को अपनी सीमाओं पर सैन्य वर्चस्व कायम करने की इच्छा रखने वालों का विरोध करना चाहिए, वैसे ही हमारे पड़ोसियों को भी यूक्रेन संकट से मिल रहे सबकों को सीखना चाहिए: दूसरों को धमकाने के लिए विदेशी शक्तियों को अपनी जमीन मुहैया कराने का अंजाम आखिरकार दुखद ही होता है.

लेखक रूस के पूर्व राजदूत (2018-21) हैं.

मूल रूप से इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित इस लेख को लेखक को अनुमति से अनूदित कर प्रकाशित किया गया है.

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