उत्तर प्रदेश चुनाव: क्या समाजवादी पार्टी योगी आदित्यनाथ सरकार को हटा पाने की स्थिति में है

यूपी में बीते कुछ चुनावों से सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला ही राजनीतिक दलों की सफलता का आधार बना है. वर्तमान चुनाव में समाजवादी पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग चर्चा में है. हालांकि जानकारों के अनुसार, पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनावों के दो अलग-अलग सपा गठबंधनों की विफलता के चलते इस बार के गठबंधन की कामयाबी को लेकर कोई सटीक दावा नहीं किया जा सकता.

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अखिलेश यादव. (फोटो: पीटीआई)

यूपी में बीते कुछ चुनावों से सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला ही राजनीतिक दलों की सफलता का आधार बना है. वर्तमान चुनाव में समाजवादी पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग चर्चा में है. हालांकि जानकारों के अनुसार, पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनावों के दो अलग-अलग सपा गठबंधनों की विफलता के चलते इस बार के गठबंधन की कामयाबी को लेकर कोई सटीक दावा नहीं किया जा सकता.

अखिलेश यादव. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: यूं तो धर्म और जाति भारतीय राजनीति का पर्याय हैं, लेकिन जब बात उत्तर प्रदेश (यूपी) की होती है, तो इस राज्य की राजनीति की कल्पना जाति-धर्म के समीकरणों के बिना संभव ही नज़र नहीं आती है.

जाति आधारित दलों की यहां भरमार है और बीते कुछ चुनावों से सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला ही राजनीतिक दलों की सफलता का आधार है. इस फॉर्मूले के तहत जिस भी दल ने जितनी अधिक अलग-अलग जातियों को साध लिया, उसकी सरकार बनना तय है. 2007 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और 2017 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सोशल इंजीनियरिंग इस बात का प्रमाण हैं.

2022 के वर्तमान विधानसभा चुनावों में भी समाजवादी पार्टी (सपा) की सोशल इंजीनियरिंग चर्चाओं में है, जिसके चलते उसे भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार के सामने सबसे कद्दावर प्रतिद्वंद्वी माना जा रहा है.

चुनावों से कुछ माह पहले तक बतौर विपक्ष जमीन से गायब नज़र आ रही सपा और उसके अध्यक्ष अखिलेश यादव ने चुनाव करीब आते-आते विभिन्न जातियों की ऐसी गोलबंदी की, जिसके आधार पर वे सत्ता में वापसी की राह तलाश रहे हैं.

उत्तर प्रदेश के छोटे-छोटे, लेकिन विभिन्न जाति समूहों में मजबूत जनाधार रखने वाले क्षेत्रीय दलों को अखिलेश ने अपने साथ जोड़ा. साथ ही, दूसरे दलों से आए विभिन्न जाति-वर्गों में गहरी पैठ रखने वाले नेताओं के लिए भी सपा के द्वार खोल दिए.

इस चुनाव में राष्ट्रीय लोक दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, अपना दल (कमेरावादी) , प्रगतिशील समाज पार्टी (लोहिया), महान दल, राष्ट्रीय जनवादी पार्टी, गोंडवाना पार्टी के साथ-साथ कुछ अन्य क्षेत्रीय दल/संगठन भी सपा गठबंधन में शामिल है.

भाजपा और बसपा छोड़कर आए स्वामीप्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, लालजी वर्मा जैसे ऐसे कई कद्दावर नेता अब सपा का हिस्सा हैं जिन्होंने पूर्व में भाजपा-बसपा की सरकारें बनाने में अहम भूमिका निभाई.

दूसरे दलों के नेताओं को तोड़ने में महारथ रखने वाली भाजपा के तकरीबन दो दर्जन नेता और विधायक इस बार भाजपा छोड़कर सपा में शामिल हुए हैं, जिससे राजनीतिक गलियारों में सपा के पक्ष में लहर होने संबंधी दावों को बल मिला है.

हालांकि, इन दावों के बीच बड़ा सच यह भी है कि 2014 लोकसभा चुनावों से भाजपा उत्तर प्रदेश में जिस प्रचंड तरीके से लगातार एकतरफा जीत दर्ज कर रही है, उसने उसके और राज्य के अन्य विपक्षी दलों के बीच मत विभाजन के मामले में एक बड़ी खाई खड़ी कर दी है.

पिछले विधानसभा चुनावों को ही लें, तो भाजपा ने चुनाव में पड़े कुल मतों का 39.67 फीसदी पाकर सरकार बनाई थी, जबकि दूसरे नंबर पर रहने वाली सपा को महज 21.82 फीसदी मत मिले थे. (इस दौरान 403 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा कुल 384 और सपा 311 सीटों पर चुनाव लड़ी थी.)

इसलिए मुख्य मुकाबले में खड़ी सपा के सामने करीब दोगुने मत अंतर को पाटने की चुनौती है, जिससे सवाल उठता है कि क्या सपा वाकई ऐसी मजबूत स्थिति में है कि वह इस अंतर को पाटकर योगी सरकार को यूपी की सत्ता से अपदस्थ कर सके?

अखिलेश यादव और जयंत चौधरी. (फोटो साभार: ट्विटर)

पिछले विधानसभा चुनाव और दो लोकसभा चुनावों में सपा का लचर प्रदर्शन भी उसकी सत्ता वापसी पर संदेह खड़ा करता है. 2014 व 2019 के दोनों लोकसभा चुनावों में उसे महज 5-5 सीटों से संतोष करना पड़ा, तो वहीं 2017 के विधानसभा चुनावों में उसे सिर्फ 47 सीटों पर जीत मिली थी. इस दरम्यान वह दूर-दूर तक भाजपा के करीब भी फटकती नज़र नहीं आई.

हालांकि, वरिष्ठ पत्रकार और विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में सहायक प्रोफेसर अभय कुमार दुबे का कहना है कि वर्तमान चुनाव में हालात भिन्न हैं.

वे कहते हैं, ‘2014 और 2017 में सत्ता विरोधी लहर अखिलेश के खिलाफ थी, क्योंकि उनकी सरकार थी. 2019 में भी उसी सत्ता विरोधी लहर ने सपा को नुकसान पहुंचाया. वहीं, यूपी की सत्ता का रास्ता तय करने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2013 में दंगा होने के कारण वहां हिंदू-मुस्लिम के बीच तनाव के चलते सांप्रदायिक स्थिति थी, जिससे भाजपा को हिंदू वोट गोलबंद करने में आसानी हुई. अब ऐसे हालात नहीं हैं, न अखिलेश की सरकार है और न पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदयिक तनाव.’

इसके उलट पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार किसान आंदोलन के चलते भाजपा के खिलाफ नाराजगी देखी गई, वहीं सरकार भाजपा की है इसलिए सत्ता विरोधी लहर का सामना भी उसे करना है.

इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण प्रताप सिंह का कहना है कि सपा, भाजपा को नहीं हरा पाएगी लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले पांच सालों में जो जनविरोधी कार्य किए हैं, उसके चलते खड़ी हुई सत्ता विरोधी लहर के चलते सपा ताकतवर नज़र आ रही है.

वे कहते हैं, ‘पिछले तीन चुनावों से यूपी का मतदाता हराने का ही काम कर रहा है, किसी को जिता नहीं रहा है. पहले मुलायम को हराया, फिर मायावती को हराया, उसके बाद अखिलेश को हराया, अब इस बार योगी निशाने पर हैं.’

भाजपा और योगी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर की ही बात उत्तर प्रदेश के चुनावी कवरेज में लगे पत्रकार मनोज सिंह बताते हैं.

वे कहते हैं, ‘सपा को जितना फायदा ज़मीन पर मेहनत करने का नहीं मिल रहा, उससे ज्यादा फायदा जो सरकार के खिलाफ लोगों की नाराजगी है, उससे मिल रहा है. सपा बस उस नाराजगी को भुनाते हुए सत्ता में आने पर उन समस्याओं को दूर करने का कह रही है जो योगी सरकार में बनी रहीं और पांच सालों तक लोग उनके समाधान की उम्मीद लगाए रहे. सपा का घोषणा-पत्र भी उन्हीं समस्याओं पर केंद्रित है.’

अपने खिलाफ पनपती इस सत्ता विरोधी लहर को दबाने के लिए योगी और भाजपा मतदाताओं को सपा की पूर्व अखिलेश सरकार का जंगलराज याद करा रहे हैं. प्रदेश भर में बड़े-बड़े होर्डिंग लगाकर लोगों को सपा शासन की बदहाल कानून-व्यवस्था का हवाला देकर डरा रहे हैं.

जानकार मानते हैं कि कहीं न कहीं यह मुद्दा सपा की संभावनाओं पर कुठाराघात तो कर रहा है और उसकी एकमात्र कमजोरी बना हुआ है.

कृष्ण प्रताप कहते हैं, ‘सपा की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि भाजपा बार-बार अखिलेश सरकार के पांच साल याद करा रही है. अगर वह इससे पार पाती है, तभी सत्ता में आएगी.’

वे आगे कहते हैं, ‘हकीकत तो यह है कि योगी सरकार में कानून-व्यवस्था केवल अखबारों और टीवी में मीडिया प्रबंधन के जरिये ठीक हुई है, वरना एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि वह अभी भी बदहाल है. लेकिन इस चुनाव में गिनाने के लिए सपा-भाजपा दोनों के पास ही कोई उपलब्धि नहीं है, बस एक-दूसरे के कुकर्म गिनाकर कह रहे हैं कि वो ज्यादा खतरनाक हैं, हम थोड़ा कम खतरनाक हैं. अब देखना यह है कि किसके कुकर्म उस पर भारी पड़ते हैं!’

इस संबंध में अभय दुबे कहते हैं, ‘भाजपा की कोशिश है कि वह अपनी सरकार की उपलब्धियों पर कम चर्चा करके अखिलेश सरकार की पांच साल पुरानी कमियां गिनाए, लेकिन उनके खिलाफ तो लोग तीन बार वोट कर चुके. भाजपा को लगता है कि यदि वे लोगों को डराएंगे कि सपा के आने पर यादव-वाद फैलेगा और गुंडागर्दी होगी तो लोग फिर से उस सरकार के खिलाफ वोट देंगे जो पांच साल पहले ही जा चुकी है.’

वे आगे कहते हैं, ‘हो सकता है कि इसका कुछ लाभ भाजपा को मिले भी, लेकिन मतदाता उस सरकार को देखकर वोट करेगा जो पांच साल से मौजूद है, न कि उस सरकार को देखकर जो कि पांच साल पहले जा चुकी है.’

बीबीसी से जुड़े रहे यूपी के वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी भी मानते हैं कि लोगों के जहन में जंगलराज वाली बात तो है, लेकिन योगीराज में पुलिसिया अत्याचार भी बड़ा मुद्दा है.

वहीं, मनोज जंगलराज का एक जातिगत दृष्टिकोण भी समझाते हैं. वे कहते  हैं, ‘सपा पर जंगलराज का टैग चस्पा हुआ क्योंकि एक समय ऐसा था भी. भाजपा की रणनीति इसी को केंद्र में रखना है. बहरहाल, जंगलराज की बात ज्यादातर सवर्ण, जो भाजपा के कोर वोटर हैं, और दलित वर्ग के लोग करते हैं लेकिन आंकड़े बताते हैं कि योगी सरकार में भी दलितों पर अत्याचार बढ़े हैं. ऊपर से कार्रवाई भी नहीं हुई. सपा जंगलराज के आरोपों को यही सब गिनाकर काउंटर कर रही है और बता रही है कि योगी सरकार में गरीबों पर बुलडोजर चल रहा है, फर्जी मुठभेड़ें हो रही हैं.’

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर. (फोटो सभार: ट्विटर/@samajwadiparty)

वे आगे कहते हैं, ‘इसलिए इसका सपा को ज्यादा नुकसान होता दिखता नहीं है, बस भाजपा को इससे यह लाभ हो सकता है कि जो सवर्ण योगी सरकार के काम से संतुष्ट नहीं है और भाजपा से दूर जाने का सोच रहे हैं, वे जंगलराज के मुद्दे पर भाजपा के पास रुक जाएंगे. वैसे भी जंगलराज को सब अपने-अपने नजरिये से देखते हैं, जो किसी के लिए जंगलराज है वह दूसरे के लिए नहीं होता.’

जहां तक योगी सरकार में दलितों पर अत्याचार और दलित वोटों  की बात है तो रायबरेली के फिरोज गांधी कॉलेज के भूतपूर्व प्रिंसिपल डॉ. रामबहादुर वर्मा का मानना है कि योगीराज में दलितों पर अत्याचार होते हुए भी सपा को दलित वोट मिलता नहीं दिख रहा है.

वे कहते हैं, ‘यूपी में दलित आबादी करीब 21-22 फीसदी है, लेकिन भाजपा ने जो मुफ्त अनाज बांटा है, उसका फायदा इस वर्ग को ही ज्यादा मिला है क्योंकि यही गरीब तबका है. इसलिए दलित वोट भाजपा ले जा सकती है, पहले भी वह मायावती से छीनकर ले जा चुकी है.’

हालांकि, अभय दुबे ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं, ‘गैर-जाटव दलित भाजपा के साथ थे लेकिन इस बार नहीं हैं. उनके वोट में बहुत बंटवारा है, खासतौर पर जाटवों के बाद सबसे बड़ी दलित आबादी पासियों की है, उनमें सपा के प्रति रुझान देखा जा रहा है.’

हालांकि, जाटव वोट जो मायावती का सबसे बड़ा जनाधार रहा है, वह भाजपा के उभार के दौरान भी बसपा के साथ रहा. जानकारों का मानना है कि वह अभी भी बसपा के साथ ही रहने वाला है.

अभय दुबे की बात से रामदत्त त्रिपाठी भी इत्तेफाक रखते हुए कहते हैं, ‘दलित विभाजित हैं. जाटव उनके साथ जाएगा, लेकिन जो दलित भाजपा से नाराज हैं वे वापस मायावती की तरफ नहीं लौटेंगे क्योंकि वे मायावती से खुश नहीं हैं, उन्हें लगता है कि मायावती ने आंबेडकरवाद छोड़ दिया है. इसलिए कुछ दलित सपा के साथ भी जा सकते हैं. जैसे- पासी हैं, वाल्मिकि हैं, इनका वोट अलग-अलग जगह बंट गया है.’

मनोज कहते हैं, ‘जाटव के अतिरिक्त अन्य दलित जातियां जैसे पासी, वाल्मिकि, खटिक, कोरी, गोंड, इनके अलावा और भी बहुत जातियां हैं जो ठीक-ठाक संख्या रखती हैं, भाजपा ने उनमें सेंध लगा ली थी, लेकिन इस बार सपा ने भी इस पर काम किया है, जैसे बहुत से दलित उम्मीदवारों को उन्होंने सामान्य सीटों पर भी उतारा है. पासियों को बहुत टिकट दिया है इसलिए जाटव तो बसपा के साथ रहेंगे, लेकिन अन्य दलित जातियों में विभाजन होगा, वे बसपा की और नहीं लौटेंगी क्योंकि वह लड़ती नही दिख रही है.’

बता दें कि यूपी में कुल 86 सीट आरक्षित श्रेणी की हैं, जिनमें 84 अनुसूचित जातियों और दो अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं, लेकिन सपा ने इससे अधिक संख्या में कुल 89 सीटों पर दलित उम्मीदवार दिए हैं. खास बात यह है कि उसकी नजर मायावती से जाटव जनाधार छीनने पर भी है. इसलिए लगभग 45 फीसदी सीटों पर उसने जाटव उम्मीदवार उतारे हैं. इसके बाद नंबर पासियों का आता है जिनमें करीब 30 फीसदी टिकटों का बंटवारा सपा ने किया है.

वहीं, इन आरक्षित सीटों का ट्रेंड को समझें तो जो यहां बाजी मारता है, वह सरकार बनाता है. 2007 में कुल 89 आरक्षित सीटों में से 69 बसपा ने जीतीं, 2012 में 85 में से 58 सपा ने और 2017 में 86 में से 70 भाजपा ने. तो ऐसा भी नहीं है कि सपा दलितों में सेंध नहीं लगा सकती है.

लेकिन एक तथ्य यह भी है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में सपा ने बसपा के साथ गठबंधन करके ’85 बनाम 15′ का नारा दिया था और दलित-पिछड़ों पर निशाना साधते हुए उम्मीद की थी कि दलित वोट उसको मिलेगा, लेकिन इसके बावजूद भी बसपा का दलित सपा के साथ नहीं गया था.

संभव है कि इसके पीछे का एक कारण यह भी हो सकता है कि सपा के ऊपर उसी लठैत समुदाय की पार्टी होने का टैग चस्पा हुआ है जो समुदाय दलितों पर अत्याचार करने में अग्रणी रहा है. मनोज का भी यही कहना था कि अखिलेश सरकार के जंगलराज की बात दलित (और ब्राह्मण) ही अधिक करता है.

इसलिए जानकारों का कहना है कि जब सवर्ण भाजपा के साथ है और दलितों का कुछ तय नहीं है, इसीलिए अखिलेश का पूरा फोकस पिछड़ी जातियों पर है. यादव उसके साथ हैं ही, अब उसकी नजर उन गैर-यादव पिछड़ी जातियों पर है जो सपा से दूरी बनाए हुए थीं और पिछले चुनाव में भाजपा की ताकत बनीं थीं.

इसी कड़ी में वे भाजपा के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी में लाए, जिनके पीछे भाजपा के और भी मंत्री व विधायक सपा में चले आए जो कि ओबीसी समुदाय से ताल्लुक रखते थे. रामअचल राजभर को भी उन्होंने सपा का हिस्सा बनाया और साथ ही अनेक ओबीसी आधारित राजनीतिक दलों और संगठनों के साथ गठबंधन किया.

अभय दुबे कहते हैं, ‘अखिलेश ने सभी पिछड़ी (ओबीसी) जातियों को एकबद्ध करके उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों को एक मंच पर लाने की कोशिश की है, जिसमें कमोबेश वे कामयाब भी हुए हैं. नतीजतन जो गैर-यादव ओबीसी वोट पिछले चुनाव में एकतरफा भाजपा को गया था, इस बार ऐसा नहीं हुआ. यही गेमचेंजर है. सपा की यही मजबूती देखकर मुसलमान भी उसके पीछे लामबंद हो गए. इसलिए भाजपा और सपा के बीच कड़ी टक्कर नज़र आ रही है.’

रामबहादुर वर्मा इसमें आगे जोड़ते हुए कहते हैं कि यूपी की 47-48 फीसदी पिछड़ा वर्ग आबादी व मुसलमानों के साथ-साथ किसान भी सपा की मजबूती का कारण हैं, याद रहे कि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह भी इन्हीं जातियों के सहारे उभरे थे.

रामदत्त भी कहते हैं, ‘भाजपा को इसी से अधिक नुकसान होगा क्योंकि उसका जनाधार बढ़ा ही इसलिए था क्योंकि उन्होंने गैर-यादव पिछड़ी जातियों को अपने पक्ष में गोलबंद किया था, जिसका बड़ा हिस्सा अब उनसे छिटक चुका है. स्वामी प्रसाद मौर्य आदि के आने से भाजपा का नुकसान हुआ है क्योंकि जब पिछले चुनाव में ये लोग भाजपा में गए थे, तभी उसके पक्ष में एक हवा-सी बनना शुरू हुई थी.’

मनोज के मुताबिक, अखिलेश ने सपा के साथ ऐसे नेता जोड़े हैं जो अपनी-अपनी जातियों में अच्छी पकड़ रखते हैं. टिकट बंटवारे में भी उसने खुद पर से यादवों का पार्टी का टैग हटाने के लिए गैर-यादव पिछड़ी जातियों को टिकट बांटा है. लेकिन यदि कई छोटे दल सपा के साथ हैं तो निषाद पार्टी, अपना दल (एस) जैसे कई छोटे दल भाजपा के साथ भी हैं. इसलिए बंटवारा होना तय है.

हालांकि, यादवों को सपा ने अब भी अधिक तरजीह दी है. यूपी के ओबीसी वर्ग में 20-22 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले यादवों को सपा गठबंधन में ओबीसी वर्ग में बांटे गए करीब 170 टिकट में से 50 से अधिक (30 फीसदी) टिकट यादवों को दिए हैं. उसके बाद करीब 20 फीसदी टिकट कुर्मी और सेंथवार समुदाय को दिए हैं.

वहीं, मनोज की यह आशंका कि सपा-भाजपा दोनों के ही पास छोटे दल हैं इसलिए वोटों का बंटवारा होना तय है, इसी को लेकर कृष्ण प्रताप सपा की संभावनाओं पर संदेह दिखाते हैं.

2019 में लोकसभा चुनाव से पहले एक संयुक्त प्रेस वार्ता में बसपा प्रमुख मायावती के साथ अखिलेश यादव. (फाइल फोटो: पीटीआई)

वे कहते हैं, ‘छोटे दलों के चलते ही सपा के पक्ष में माहौल दिखता है. उन्होंने भाजपा के किले में वह दरार डाली है जो अखिलेश के लिए संभव नहीं थी. अखिलेश तो चार महीने पहले तक घर से बाहर ही नहीं निकल रहे थे, उनका सारा हासिल इन चार महीनों का है. इसलिए उनकी सफलता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करेगी कि जिन नेताओं और छोटे दलों को वे अपने साथ लाए हैं, वे अपना जनाधार भी साथ लेकर आए हैं या भाजपा में छोड़ आए हैं!’

वे आगे कहते हैं, ‘इसलिए देखना होगा कि मतदाता के मन में क्या है क्योंकि 2019 लोकसभा चुनावों में भी ऐसा ही लगा था कि सपा-बसपा गठबंधन भाजपा का सूपड़ा साफ कर देगा, लेकिन नहीं हुआ.’

जहां तक मुस्लिम वोटों का सवाल है तो इस चुनाव में एक ओर कभी मुस्लिम मतदाताओं की पसंद माने जाने वाली कांग्रेस प्रियंका गांधी के नेतृत्व में मजबूती से लड़ रही है, तो दूसरी ओर ऑल इंडिया मज़लिस-ए-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के असदुद्दीन ओवैसी भी मुस्लिम मतदाताओं पर नज़र गढ़ाए हुए हैं, लेकिन जानकारों का मानना है कि मुसलमान सपा के साथ ही गोलबंद है क्योंकि उसके लिए भाजपा को सत्ता से हटाना अधिक महत्वपूर्ण है, न कि कुछ विधायकों को जिताकर विधानसभा पहुंचाना.

चूंकि, सपा ही इस बार भाजपा के सामने मुख्य मुकाबले में नज़र आ रही है इसलिए मुस्लिम उसकी ओर झुका हुआ है. हालांकि, वह बात अलग है कि सपा ने मुसलमानों को सीट बंटवारे में कंजूसी बरती है और महज 60 के करीब मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, जबकि बसपा ने इससे कहीं ज्यादा अधिक मुसलमानों पर दांव खेला है.

पिछले विधानसभा चुनावों में जब मुजफ्फरनगर जैसे दंगों के कारण, जहां सपा ने भाजपा के खिलाफ कड़ा रुख नहीं अपनाया था, मुसलमान सपा नाराज था तो बसपा की ओर रुख किया था. जानकार मानते हैं कि वह इस बार योगी सरकार को अपदस्थ करने के लिए सपा की तरफ लौटता दिख रहा है.

इसका एक कारण यह भी है कि बसपा की छवि भाजपा के सहयोगी के तौर पर देखी जा रही है. इससे भाजपा के साथ-साथ बसपा को भी नुकसान होना तय है.

लेकिन, इस बीच सपा की संभावनाओं पर संदेह करने की एक वजह यह भी सामने आती है कि उसने मतदाताओं के बीच अपना जनाधार बढ़ाने के लिए पिछले पांच सालों में यह तीसरा प्रयोग किया है, जबकि उसके पुराने दोनों प्रयोग फेल साबित हुए हैं.

2017 के विधानसभा चुनावों में उसने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, जिसे यूपी में सवर्णों की पार्टी के तौर पर देखा जाता है. 2019 लोकसभा चुनावों में उसने दलित राजनीति करने वाली बसपा के साथ गठबंधन किया था. इन दोनों ही मौकों पर उसे विफलता हाथ लगी, अब सवर्ण और दलित प्रयोगों के बाद 2022 में उसने पिछड़ी जातियों के साथ प्रयोग किया है.

2017 के चुनाव प्रचार के समय राहुल गांधी के साथ अखिलेश यादव. (फाइल फोटो: पीटीआई)

कृष्णप्रताप कहते हैं, ‘इसलिए मैं अखिलेश के इस प्रयोग पर संदेह कर रहा हूं क्योंकि नेताओं के गठबंधन का आशय यह नहीं होता कि नीचे ज़मीन पर जातियों का गठबंधन हो गया है. दो बार वे इसी भ्रम में हार चुके हैं.’

हालांकि, रामबहादुर वर्मा का कहना है कि पुराने दोनों में किए गए गठजोड़ ही गलत थे, लेकिन इस बार अखिलेश ने उन मध्यमवर्गीय (पिछड़ी) जातियों के साथ गठजोड़ किया है, जो उनकी राजनीति को सूट करती हैं.

वे कहते हैं, ‘कांग्रेस और भाजपा में बस थोड़ा ही वैचारिक अंतर है, वरना दोनों ही सवर्णों की पार्टी रही हैं. इसलिए कांग्रेस के साथ जब गठबंधन किया तो कांग्रेस का सवर्ण कभी सपा को वोट नहीं देगा, वह भाजपा में चला जाएगा और ऐसा ही हुआ. कांग्रेस से सपा-बसपा का गठजोड़ कभी सफल नहीं हो सकता. इसी तरह बसपा का दलित मतदाता भी सपा से झिझकता है. नतीजतन, दोनों गठजोड़ विफल हुए. सवर्ण और दलितों को सपा सूट नहीं करते, जबकि सपा का जुड़ाव तो पिछड़ी जातियों से है ही, इसलिए इस बार हालात जुदा हैं.”

कुछ ऐसा ही रामदत्त भी सोचते हैं. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस और सपा के जनाधार में अंतर था, इसलिए कांग्रेस का वोट सपा को ट्रांसफर नहीं हुआ था, लेकिन बसपा के साथ 1993 में सपा का गठबंधन भाजपा पर भारी पड़ा था. 2019 में भी वे 15 सीट जीते ही थे मिलकर, लेकिन बसपा ने शायद भाजपा के दबाव में गठबंधन तोड़ दिया. लेकिन, इस बार अखिलेश अपने मूल जनाधार ओबीसी पर लौटे हैं. साथ ही, कुछ दलित नेताओं को भी वे पार्टी में लेकर आए हैं. ऊपर से मुसलमान, मोदी-योगी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और किसान, युवा, छोटे व्यापारियों की उनकी सरकार से नाराजगी जैसे कारक भी सपा के पक्ष में काम कर रहे हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘वहीं, ऐसे लोग जो मोदी-योगी की हिंदू राष्ट्र वाली राजनीति को पसंद नहीं करते हैं, जो किसी भी जाति, वर्ग या समूह के हो सकते हैं, वे भी सपा के पक्ष में गोलबंद हैं.’

बता दें कि वर्तमान गठबंधन में सपा 348 सीट पर लड़ रही है, 33 सीट रालोद को दी हैं और बाकी अन्य सहयोगी दलों में बांट दी हैं.

कृष्ण प्रताप कहते हैं, ‘योगी का तो यूपी में वैसे भी कोई जनाधार नहीं था, वह मोदी की कमाई थी जिसके चलते कुछ पिछड़ी और दलित जातियां भाजपा की ओर आईं और वह ताकतवर बन गई. अब सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि जो जातियां भाजपा की ओर आईं थीं, वह उसके साथ बनी रहेंगी या चली जाएंगी! वहीं, एक बात और है कि सपा का बूथ प्रबंधन भाजपा के मुकाबले काफी कमजोर है.’

अंत में, अभय दुबे कहते हैं, ‘यह नही कह सकते कि समीकरण पूरी तरह सपा के पक्ष में हैं, लेकिन जैसा कुछ समय पहले माना जा रहा था कि भाजपा के मुकाबले में कोई नहीं है, अब वैसा नहीं है. मुकाबला टक्कर का है, भाजपा के लिए एकतरफा नहीं है.’