यूपी चुनाव: क्या चुनावी आंकड़े सपा की वापसी और भाजपा की विदाई का संकेत दे रहे हैं

उत्तर प्रदेश के पिछले तीन दशकों से अधिक के विधानसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करते हैं तो कुछ रोचक नतीजे निकलकर सामने आते हैं, जिनके अनुसार इस बार सपा अगर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब होती है तो यह यूपी की राजनीति के लिहाज़ से एक दुर्लभ घटना होगी.

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योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव. (फोटो: पीटीआई)

उत्तर प्रदेश के पिछले तीन दशकों से अधिक के विधानसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करते हैं तो कुछ रोचक नतीजे निकलकर सामने आते हैं, जिनके अनुसार इस बार सपा अगर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब होती है तो यह यूपी की राजनीति के लिहाज़ से एक दुर्लभ घटना होगी.

योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव. (फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: सात चरणों में हो रहा उत्तर प्रदेश (यूपी) का विधानसभा चुनाव अंतिम चरण में है. अब तक का चुनावी ट्रेंड बता रहा है कि मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) के बीच रहा है.

जातिगत राजनीति को साधने की कोशिश में दोनों ही दलों ने राज्य के कुछ छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन किया है, जिसके चलते यूपी विधानसभा की कुल 403 सीटों में से भाजपा 370 और सपा 348 सीटों पर चुनाव लड़ रही है.

द वायर  से बातचीत में राजनीति के विभिन्न जानकारों ने चुनावी परिणामों का आकलन लगाते हुए इस बार भी पूर्ण बहुमत की सरकार बनने की बात कही है और कहा है कि सरकार भाजपा बनाए या सपा, वह पूर्ण बहुमत की ही होगी.

लेकिन, उत्तर प्रदेश के पिछले तीन दशकों से अधिक के विधानसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करते हैं तो कुछ रोचक नतीजे निकलकर सामने आते हैं. इनके अनुसार, सपा अगर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब होती है तो यह यूपी की राजनीति के लिहाज से एक दुर्लभ घटना होगी.

पहली बात कि सपा 348 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. यूपी विधानसभा चुनावों में इतनी कम सीटों पर चुनाव लड़कर अब तक कोई पार्टी अपने बूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आई है.

1989 के बाद से जिस भी दल ने किसी बड़े गठबंधन में सीटें साझा न करके अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा है, वही सदन में सबसे बड़ी पार्टी बनने में कामयाब रहा है. इस लिहाज से समाजवादी पार्टी अगर स्वयं के बल पर पूर्ण बहुमत पाती है तो यह पहली बार होगा कि इतनी कम सीटों पर लड़कर कोई दल पूर्ण बहुमत पाए.

लेकिन, इससे भी बड़ी चुनौती सपा के सामने यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में उसके और भाजपा के मत प्रतिशत के बीच करीब दोगुने का अंतर रहा था.

2017 में सभी 403 सीटों पर पड़े कुल मतों का 39.67 फीसदी भाजपा को प्राप्त हुआ था, जबकि दूसरे नंबर पर रही सपा को 21.82 फीसदी मत प्राप्त हुए थे. इसी बड़े अंतर को पाटना सपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.

हालांकि, अगर सिर्फ उन सीट संख्या पर मत प्रतिशत निकालें जिन पर दोनों दलों ने अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किए थे तो भाजपा ने उस दौरान 384 सीटों पर चुनाव लड़ा था और इन सीटों पर पड़े कुल मतों में से 41.57 फीसदी मत प्राप्त किए थे, तो वहीं सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था और सिर्फ 311 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, इन 311 सीटों पर उसे 28.32 फीसदी मत प्राप्त हुए थे.

(अगर सपा ने इस दौरान सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ा होता तो एक आकलन के मुताबिक, उसका मत प्रतिशत 25 फीसदी के आसपास रहा होता.)

यहां गौर करने वाली बात यह है कि 1977 के बाद से जिस भी राजनीतिक दल ने यूपी विधानसभा चुनावों में 30 फीसदी से अधिक मत प्राप्त किए हैं, वह सदन में सबसे बड़ा दल बनकर उभरा है.

इस दौरान 10 बार विधानसभा चुनाव हुए हैं और किसी भी चुनाव में दो दलों को एक साथ 30 फीसदी से अधिक मत नहीं मिले हैं. एक चुनाव में कोई एक दल ही 30 फीसदी से अधिक मत प्राप्त कर पाया है. 10 में से 7 चुनावों में किसी एक दल को 30 फीसदी से अधिक मत मिले हैं और छह मौकों पर उसने सरकार बनाई है.

सिर्फ एक बार ऐसा हुआ है कि तीस फीसदी मत मिलने के बाद भी (1993 में भाजपा) किसी दल के सरकार न बनाने की स्थिति में विपक्षी गठबंधन की सरकार बन पाई है.

वहीं, आखिरी बार 1977 में ऐसा हुआ था कि मुख्य मुकाबले में शामिल दोनों दलों को 30 फीसदी से अधिक वोट मिले हों. तब जनता पार्टी को 47.8 फीसदी वोट मिले थे और कांग्रेस को 31.9 फीसदी.

यहां गौर करने वाली बात है कि 1977 के आपातकालीन दौर में हुए वे चुनाव दो ध्रुवीय थे और वोट बंटवारे के लिए बसपा या कांग्रेस जैसा कोई तीसरा दल मौजूद नहीं था.

लेकिन, यूपी की बाद की राजनीति में दो से अधिक दलों के प्रभावी होने के चलते किन्हीं दो दलों का एक चुनाव में तीस फीसदी मत पाना मुश्किल बना हुआ है.

अगर चार दशक से चला आ रहा यही ट्रेंड 2022 के वर्तमान चुनावों में भी जारी रहता है तो भाजपा को सत्ता से बेदखली के लिए जरूरी है कि उसका मत प्रतिशत 40 से गिरकर 30 फीसदी के नीचे आ जाए. यानी कि उसके मत प्रतिशत में कम से कम 10 फीसदी की कमी होना जरूरी है.

लेकिन, 1991 के बाद से हुए 6 चुनावों में सिर्फ एक बार ऐसा हुआ है जब सत्ता से बाहर जाने वाले दल के मत प्रतिशत में 10 फीसदी से अधिक की कमी दर्ज की गई हो. ऐसा 2002 में भाजपा के साथ ही हुआ था. (हालांकि भाजपा तब भी सत्ता से बाहर नहीं हुई थी, बसपा के साथ गठबंधन में सरकार बना ली थी.)

उस दौरान, 1996 में भाजपा को 32.05 फीसदी मत मिले थे लेकिन 2002 में उसे महज 20.08 फीसदी मत मिले. हालांकि, वह 1996 में 414 सीट पर चुनाव लड़ी थी, जबकि 2002 में महज 320 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. 320 सीटों पर अगर मत प्रतिशत निकालें तो उसे 25.31% मत मिले थे. अगर इस लिहाज से देखें तो उसके मत प्रतिशत में 1996 के मुकाबले 6.74 प्रतिशत की कमी देखी गई थी.

वहीं, 1991 के बाद से जिसकी भी सत्ता उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से गई है उसके मत प्रतिशत में अधिकतम कमी 4.5 फीसदी की देखी गई है, जो 2012 में बसपा के मत प्रतिशत में आई थी.

हालांकि, 2017 में सपा के मत प्रतिशत में 2012 के मुकाबले 7.4 प्रतिशत की कमी देखी गई थी. लेकिन उस दौरान सपा 2012 में 401 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जबकि 2017 में महज 311 सीटों पर. 311 सीटों पर उसे 28.32 फीसदी मत मिले थे.

यानी कि लड़ी हुई सीटों के लिहाज से देखें तो सत्ता जाने के बावजूद भी उसके मत प्रतिशत में करीब एक फीसदी की ही कमी दर्ज की गई थी.

इसलिए भाजपा की सत्ता से बेदखली के लिए उसके मत प्रतिशत में 10 फीसदी से अधिक की कमी होना (क्योंकि 30 फीसदी से अधिक मत पाने वाला दल अक्सर सत्ता हासिल करने में कामयाब रहता है), 1991 के विधानसभा चुनावों में जनता दल सरकार के साथ हुई घटना का दोहराव होगा.

लेकिन उस समय मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार के मत प्रतिशत मे इतनी भारी कमी की एकमात्र वजह ‘राम मंदिर आंदोलन’ था जिसने भाजपा के पक्ष में हवा बनाई और जनता दल की सरकार गिराई. वर्तमान में ऐसा कोई आंदोलन भाजपा की योगी सरकार के खिलाफ खड़ा नजर नहीं आता है.

हालांकि, ऐसा नहीं है कि ऐसे उतार-चढ़ाव यूपी की राजनीति में पहले न देखे गए हों. 1991 का उदाहरण तो मौजूद है ही जहां भाजपा ने 1989 के मुकाबले करीब 20 फीसदी अधिक वोट अर्जित किए थे तो वहीं जनता दल ने करीब 11 फीसदी वोट गंवाए थे, इसी तरह 2017 में भी भाजपा ने 2012 के मुकाबले करीब 25 फीसदी अधिक मत प्राप्त किए थे.

लेकिन, 1991 में जहां राम मंदिर आंदोलन इस उतार-चढ़ाव के पीछे था तो 2017 में भी कमोबेश कुछ-कुछ वैसे ही हालात थे, जब मोदी लहर पर सवार हिंदुत्ववादी राजनीति ने भाजपा के लिए सत्ता की राह बनाई थी.

लेकिन वर्तमान में सपा के पक्ष में ऐसा कोई बड़ा निर्णायक मुद्दा मौजूद नहीं है, बस जातीय समीकरण उसकी संभावनाओं को बल दे रहे हैं.

इसी लिए वरिष्ठ पत्रकार और विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में सहायक प्रोफेसर अभय कुमार दुबे का कहना है, ‘मुकाबला भाजपा और सपा के बीच नहीं, दोनों दलों के नेतृत्व में जो सामाजिक गठजोड़ है, उनके बीच है. हमेशा चुनाव में जीत-हार का फैसला इस आधार पर होता है कि किसका सामाजिक गठजोड़ ज्यादा बड़ा और प्रभावी है एवं उसमें कितनी एकता है. पार्टियां तो गठजोड़ के अंदर हैं जो किसी न किसी सामाजिक शक्ति की नुमाइंदगी करती हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘भाजपा तभी जीत सकती है जब वह अपना पुराना गठजोड़ कायम रखे जो सिकुड़ गया है, उसमें से वोट लीक हो गए हैं, जिसकी भरपाई वह लाभार्थियों के जरिये करना चाहती है.’

बता दें कि 2017 में भाजपा के प्रचंड बहुमत के पीछे जो सभी जातियों को जोड़ने की सोशल इंजीनियरिंग थी, सपा ने इस चुनाव में उसमें सेंध लगा दी है और स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, रामअचल राजभर जैसे नेताओं व सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) जैसे क्षेत्रीय दलों को भाजपा से तोड़कर उसका जनाधार कमजोर किया है, जिसकी क्षतिपूर्ति स्वरूप भाजपा उन मतदाताओं से उम्मीद लगा रही है जिन्होंने उसकी सरकार द्वारा बांटे गए मुफ्त राशन या प्रधानमंत्री आवास जैसी योजनाओं का लाभ उठाया है.

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