‘द कश्मीर फाइल्स’ के सरकारी प्रमोशन के क्या मायने हैं

कश्मीरी पंडितों का विस्थापन भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता के माथे पर बदनुमा दाग़ है और उसे मिटाने के लिए तथ्यों के धार्मिक सांप्रदायिक नज़रिये वाले फिल्मी सरलीकरण की नहीं बल्कि व्यापक और सर्वसमावेशी नज़रिये की ज़रूरत है. दुर्भाग्य से यह ज़रूरत अब तक नहीं पूरी हो पाई है और पंडितों को राजनीतिक लाभ के लिए ही भुनाया जाता रहा है.

कश्मीरी पंडितों का विस्थापन भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता के माथे पर बदनुमा दाग़ है और उसे मिटाने के लिए तथ्यों के धार्मिक सांप्रदायिक नज़रिये वाले फिल्मी सरलीकरण की नहीं बल्कि व्यापक और सर्वसमावेशी नज़रिये की ज़रूरत है. दुर्भाग्य से यह ज़रूरत अब तक नहीं पूरी हो पाई है और पंडितों को राजनीतिक लाभ के लिए ही भुनाया जाता रहा है.

मुंबई के एक सिनेमाघर में लगा फिल्म का पोस्टर. (फोटो: रॉयटर्स)

सच घटे या बड़े तो सच न रहे,
झूठ की कोई इंतेहा ही नहीं.

धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं.

जड़ दो चांदी में चाहे सोने में,
आईना झूठ बोलता ही नहीं.

लखनऊ बहुचर्चित शायर कृष्णबिहारी नूर ने अपनी लोकप्रिय गजल के ये शे’र रचे तो उन्हें कतई इल्म नहीं रहा होगा कि इक्कीसवीं सदी के बाइसवें साल में कुछ मतांध सत्ताधीशों व चेतनाओं के दूषण के शिकार दर्शकों की जीभ के स्वाद के लिए सच में बहुत कुछ जोड़ने व घटाने वाली ‘द कश्मीर फाइल्स’ नाम की एक फिल्म ऐन होली पर उनके शे’रों को इस कदर चरितार्थ करने लगेगी कि लोगों को आसानी से समझ में नहीं आएगा कि वे इसे होली के अवसर पर किया गया मजाक समझें या कुछ और!

फिर जैसे इतना ही काफी न हो, वर्तमान के सवालों से कन्नी काटने के लिए अतीत व इतिहास के विकृतीकरण के अभ्यस्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस फिल्म को अपनी सुविधा के तौर पर इस्तेमाल करते हुए उसके घटे-बढे़ सच पर मुहर लगाने के लिए यह कहने में भी संकोच नहीं करेंगे कि वह तो 1982 में आई ‘गांधी’ नामक फिल्म ने दुनिया को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की महानता के सच से परिचित करा दिया वरना वह उसे इस बाबत पता ही नहीं चल पाता! यानी फिल्म बड़ी और बापू की सेवाएं छोटी!

बहरहाल, हम जानते हैं कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ 1990 के दशक में जम्मू-कश्मीर में आंतकियों द्वारा की गई कश्मीरी पंडितों की बर्बर हत्याओं और जो बच गए, लगातार जुल्मों व ज्यादतियों के चलते अपने घरों व जमीनों से उनके विस्थापन की अंतहीन होकर रह गई त्रासदी पर आधारित और इस अर्थ में ‘लोकप्रिय’ है कि उम्मीद से ज्यादा कमाई कर रही है.

हम यह भी जानते हैं कि ऐसी कमाई और ‘लोकप्रियता’ हमेशा किसी फिल्म की गुणवत्ता या सार्थकता की कसौटियां नहीं हुआ करतीं क्योंकि कई बार वे ऐसी फिल्मों के हिस्से में भी आ जाती हैं, जिन्हें समीक्षक ‘चवन्नी छाप’ करार देते हैं. इसलिए इस फिल्म की बाबत ये पंक्तियां लिखने का कोई कारण नहीं होता, अगर प्रधानमंत्री अपनी टिप्पणी से सायास उसका भाव नहीं बढ़ा देते.

दरअसल, प्रधानमंत्री ने यह कहकर कि ‘ऐसी फिल्में बनती रहनी चाहिए’ और कई राज्यों की सरकारों ने टैक्स फ्री करके उसका जैसा प्रमोशन किया है, इस तथ्य के बावजूद कि कई जानकार उसे एकतरफा व सांप्रदायिक घृणा से बजबजाती हुई करार दे रहे हैं, उससे फिल्म से जुड़े उनके एजेंडा और उद्देश्यों का सवाल कहीं ज्यादा बड़ा हो गया है.

इस नाते और कि कई खुद को नामी-गिरामी कहने वाले प्रचारक यह भी कह रहे हैं कि जो भारतीय हैं उनको यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए. क्या अर्थ है इसका? क्या अब देशवासी अपनी राष्ट्रीयता और देशप्रेम साबित करने के लिए, और तो और, इस जैसी किसी फिल्म के भी मोहताज होने लग गए हैं?

क्या प्रधानमंत्री ने इस फिल्म के निर्माण व निर्देशन से जुड़ी टीम के सदस्यों से मिलने के बाद भाजपा संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए फिल्म के साथ ही ‘कश्मीरी पंडितों के पलायन का सच दबाए जाने’ की धारणा का जो प्रमोशन किया, उसके पीछे देश में दूषित चेतनाओं के बढ़ते प्रवाह और बढ़ाने का इरादा नहीं है?

इस सवाल को, जवाब मिलने की उम्मीद न होने के बावजूद, यूं भी पूछ सकते हैं कि क्या यह अनेक देशवासियों के दिल व दिमाग में गहराई तक जड़ें जमा चुकी उक्त धारणा के सत्ता के सहारे और पोषण की कोशिश नहीं है?

दूसरे पहलू पर जाएं, तो यह फिल्म देश का बहुत भला करती, अगर उसे देखने वाले दर्शक सचमुच कश्मीरी पंडितों के पलायन के सच से वाकिफ होकर सिनेमाघरों से बाहर निकलते. लेकिन अफसोस कि यह फिल्म बनाने वालों ने उक्त सच के यथातथ्य या वस्तुनिष्ठ फिल्मांकन से ज्यादा ध्यान उसके ऐसे अनुकूलन पर दिया है, जो हर समस्या को सांप्रदायिक व धार्मिक नजरिये से देखने के वर्तमान सत्ताधीशों के रवैये की ताईद करता और उन्हें रास आता हो.

भले ही इस चक्कर में वह सच कम, समस्या के हर पहलू को परखने और उसके राजनीतिक व सामाजिक कारणों की ओर से आंखें मूंदकर एकतरफा तौर पर सरलीकृत कथानक जैसा नजर आने लगे.

यूं, जो लोग इस फिल्म के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की मुस्लिमों व वामपंथियों के प्रति घृणा से भरी राजनीतिक विचारधारा और इस तथ्य से अवगत हैं कि ‘अर्बन नक्सल’ शब्द भी, जिसका नाम लेेकर भारतीय जनता पार्टी की केंद्र व प्रदेशों की सरकारें जनप्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं के दमन व उत्पीड़न में कुछ भी उठा नहीं रख रहीं, उनकी ही देन है, स्वाभाविक ही उन्हें उनकी इस फिल्म से न सच सामने लाने जैसी कोई अपेक्षा है, न ही उसके एकतरफा होने पर कोई आश्चर्य.

सच पूछिए तो उन्हें आश्चर्य तब होता, जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपनी निकटता को जोखिम में डालकर इस फिल्म में यह दबाया हुआ नहीं, बल्कि खुला ऐतिहासिक सच भी बताते कि तुर्क, अफगान और मुगल सब कश्मीर के ही रास्ते आए.

इसके बावजूद कश्मीरी पंडित न सिर्फ कश्मीर में बने रहे, बल्कि कश्मीर घाटी के सबसे अमीर समुदाय के तौर पर पहचाने जाते रहे. वहां ढेर सारी भूमि उनके पास रही, वे आला दर्जे की शिक्षा प्राप्त करते और पीएम, नौकरशाह व जज वगैरह बनते रहे.

इसके बाद उनके लिए इस सवाल को संबोधित करना आसान हो जाता कि तब 1990 में ऐसा क्या हुआ कि कश्मीरी पंडितों को अपने घर-बार छोड़ने पड़े? आज की तारीख में इस तथ्य को तो खैर ऐसी सैकड़ों फिल्में भी नहीं झुठला सकतीं कि तब राज्य की सरकार बर्खास्त थी और उसका शासन राज्यपाल जगमोहन चला रहे थे, जिन्हें न सिर्फ कश्मीरी पंडितों का ‘हमदर्द’ माना जाता था, बल्कि कई मायनों में उस विचारधारा के निकट भी, जिसका भाजपा कहें या संघ परिवार प्रतिनिधित्व करता है.

यहां यह भी गौरतलब है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली जिस केंद्र सरकार ने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त कर रखा था, वह भारतीय जनता पार्टी के समर्थन की मोहताज थी.

भारतीय जनता पार्टी ने बाद में अयोध्या में कारसेवा को लेकर रथयात्रा निकाल रहे लालकृष्ण आडवाणी की बिहार में गिरफ्तारी के बाद समर्थन वापस लेकर उसे गिरा भी दिया. लेकिन उसे इससे बहुत फर्क नहीं पड़ा कि वह सरकार दिसंबर 1989 में सत्ता में आई और उसके एक महीने बाद से ही कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हो गया.

उसने इसको लेकर न सरकार की समुचित भर्त्सना की, न ही आज तक इस सवाल का जवाब दे पाई कि जो कश्मीरी पंडित तुर्कों, अफगानों और मुगलों के साथ एडजस्ट कर फूलते-फलते रहे, जगमोहन के राज्यपाल काल में विस्थापन को मजबूर क्यों हुए?

क्या इस सवाल का जवाब तलाशे बिना उनकी समस्या को किसी समाधान तक पहुंचाया जा सकता है? अगर हां, तो नरेंद्र मोदी के आठ साल के सत्ताकाल में जम्मू कश्मीर के विभाजन और अनुच्छेद 370 के उन्मूलन के बावजूद ऐसा क्यों नहीं हो पाया है? पंडितों की कश्मीर घाटी में वापसी के तथाकथित प्रयत्न अभी भी मृगमरीचिका क्यों बने हुए हैं?

आज किसे बताने की जरूरत है कि कश्मीरी पंडितों का विस्थापन भारत की गंगा-जमुनी सभ्यता के माथे पर ऐसा बदनुमा दाग है और उसे मिटाने के लिए तथ्यों के धार्मिक सांप्रदायिक नजरिये वाले फिल्मी सरलीकरण की नहीं बल्कि व्यापक और सर्वसमावेशी नजरिये की जरूरत है.

दुर्भाग्य से यह जरूरत अब तक नहीं पूरी हो पाई है और पंडितों की समस्या को राजनीतिक फायदे के लिए ही भुनाया जाता रहा है.

इसीलिए तब से अब तक देश में कई सरकारें आने-जाने के बावजूद समस्या जस की तस बनी हुई है. उसे सांप्रदायिक रंग देने में दिलचस्पी रखने वाले निस्संदेह उसे और जटिल बना सकते हैं, लेकिन इस तथ्य को वे कैसे झुठलाएंगे कि 1990 से 2007 के बीच के 17 सालों में कश्मीर घाटी में आतंकवादी हमलों में मारे गए निर्दोषों में 399 कश्मीरी पंडित तो 15 हजार दूसरे धर्म के मानने वाले थे.

ऐसी किसी भी समस्या के समाधान की राह उसके किसी भी तरह के सरलीकरण से परहेज से होकर गुजरती है, लेकिन ‘द कश्मीर फाइल्स’ सरलीकरणों से ही काम चलाती और भोले-भाले या दूषित चेतनाओं के मारे दर्शकों के मनोजगत पर अत्याचार करती दिखती है.

फिल्म समझती नहीं कि इस ‘हिंदू-मुसलमान’ से पहले ही देश का बहुत नुकसान हो चुका है, और हम नहीं चेते तो आगे और हो सकता है. फिल्म नहीं समझती न सही, प्रधानमंत्री और उनकी या राज्यों की भाजपा सरकारें भी नहीं समझती. समझतीं तो उसका प्रमोशन करती क्यों फिरतीं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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