भगत सिंह को राजनीतिक उपभोक्तावाद का शिकार बनाने की होड़ का नतीजा क्या होगा

भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों व छवियों के स्वार्थी अनुकूलन की क़वायदों को सम्यक चुनौती नहीं दी गई तो आने वाली पीढ़ियों की उनके सच्चे क्रांतिकारी व्यक्तित्व व कृतित्व से साक्षात्कार की राह में दुर्निवार बाधाएं और अलंघ्य दीवारें खड़ी हो जाएंगी.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों व छवियों के स्वार्थी अनुकूलन की क़वायदों को सम्यक चुनौती नहीं दी गई तो आने वाली पीढ़ियों की उनके सच्चे क्रांतिकारी व्यक्तित्व व कृतित्व से साक्षात्कार की राह में दुर्निवार बाधाएं और अलंघ्य दीवारें खड़ी हो जाएंगी.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

अभी कुछ साल पहले तक शहीद-ए-आजम भगत सिंह के शहादत दिवसों व जयंतियों पर चर्चा का सबसे मौजूं विषय यह होता था कि इंकलाब के उनके अधूरे अरमान को मंजिल कब व कैसे हासिल होगी, वह अभी भी देश पर उधार क्यों है और उसका जिम्मा लेने या सूद चुकाने को कोई तैयार क्यों नहीं दिखाई देता? साथ ही यह भी पूछा जाता था कि उनको अभीष्ट इंकलाब का रास्ता हमवार किए बिना उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि कैसे दी जा सकती है?

लेकिन आज, राजनीतिक उपभोक्तावाद की राह पर तेजी से बढ़े जा रहे देश, दिल्ली व पंजाब के सत्ताधीशों, उनकी पार्टियों व ‘परिवारों’ ने जिस तरह इस शहादत दिवस से ऐन पहले भगत सिंह को मनपसंद राजनीतिक उत्पाद में बदलने, साथ ही स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की छीनाझपटी की खुद अपने ही द्वारा प्रवर्तित स्वार्थी परंपरा का नया शिकार बनाने की कोशिशें तेज कर दी हैं और जिसके कारण अंदेशे गहरे हो रहे हैं कि वे मौका पाते ही कुटिलतापूर्वक उक्त इंकलाब के सपने का ही ध्वंस कर डालेंगे, उस पर बात करना कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है.

इस कारण और कि भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों व छवियों के स्वार्थी अनुकूलन की उनकी कवायदों को सम्यक चुनौती नहीं दी गई तो आने वाली पीढ़ियों की उनके सच्चे क्रांतिकारी व्यक्तित्व व कृतित्व से साक्षात्कार की राह में दुर्निवार बाधाएं और अलंघ्य दीवारें खड़ी हो जाएंगी.

इस बात को यूं समझा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थक कई स्तंभकार अचानक सक्रिय होकर अपनी इस ‘स्थापना’ को जोर-शोर से प्रचारित करने लगे हैं कि वामपंथियों ने भगत सिंह को लंबे समय तक मार्क्सवादी खांचे में बांधने का सुनियोजित प्रयास किया, जबकि भगत सिंह सनातन धर्म को लेकर आग्रही थे और हिंदुत्व के पुरोधा व स्वातंत्र्यवीर के नाम से विख्यात विनायक दामोदर सावरकर के साथ उनके संबंध इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं.

इन स्तंभकारों द्वारा भगत सिंह और सावरकर के बीच कथित गहरे भावनात्मक संबंधों की दुहाई देते हुए वामपंथियों पर यह तोहमत भी मढ़ी जा रही है कि उन्होंने भगत सिंह को केंद्र में रखकर बड़ी चालाकी से उनके व्यक्तित्व व विचारों को मार्क्सवादी जामा पहना दिया और उन्हें ‘भारत का भगत’ के बजाय ‘भारत का लेनिन’ कहने लगे.

यहां वामपंथियों के पक्ष या विपक्ष में कुछ कहने की जरूरत नहीं हैं, लेकिन ये स्तंभकार उनके दुर्दिन में भी उनसे जुड़ी अपनी ग्रंथियों से मुक्त नहीं हो पा रहे और भगत सिंह को ‘भारत का लेनिन’ कहने को लेकर भी असहज हुए जा रहे हैं, तो कहना होगा कि इससे उनकी वह दारुण बेचारगी ही बेपरदा होती है, जो प्रायः भगत सिंह को ‘अपनाने’ की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की उस ‘पुरानी इच्छा’ के आड़े आती रही है, जो उसके ‘महानायक’ नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद से और प्रबल हो गई है.

इस बेचारगी को इस परिवार के पुरखों की अंध अतीतमुखता और स्वतंत्रता संग्राम से दूरी से जोड़ दिया जाए तो समझना कठिन नहीं रह जाता कि वह भगत सिंह के मूल अनीश्वरवादी व दृढ़ प्रतिज्ञ क्रांतिकारी रूप को क्यों स्वीकार नहीं कर पाता और क्यों उसके समर्थक स्तंभकारों को, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ जैसा लेख लिखने और अहंकारी होने के आरोप झेलने के बावजूद अपने अंतिम दिनों में भी नास्तिक बने रहने वाले भगत सिंह के बारे में, प्रचारित करना पड़ता है कि वे सनातन धर्म को लेकर आग्रही थे और अंग्रेजों को बार-बार माफीनामा देने वाले, हिंदू राष्ट्र के सिद्धांतकार विनायक दामोदर सावरकर से भावनात्मक संबंध रखते थे.

ये स्तंभकार यह सिद्ध करने हेतु द्रविड़ प्राणायाम कर रहे हैं कि भगत सिंह को अभीष्ट इंकलाब का एक सिरा सावरकर के हिंदू राष्ट्र तक भी जाता है, तो निस्संदेह, यह भगत सिंह का वैसा ही अनुकूलन है, महात्मा गांधी, बाबा साहब डाॅ. भीमराव आंबेडकर, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, मातंगिनी हाजरा और सरदार वल्लभभाई पटेल वगैरह के संदर्भ में जिसे अंजाम देकर संघ परिवार और उसकी सरकारों ने उनको थोड़ा-थोड़ा अपने पाले में ले जाने में सफलता पा ली है.

इस सफलता का ही फल है कि वे कई बार उन्हें अपने नायकों पर तरजीह देने का भ्रम रचते और यह भी प्रचारित करते हैं कि नायक किसी एक जाति, धर्म या संप्रदाय के नहीं होते. लेकिन उनकी विडंबना व अंतर्विरोध देखिए कि अगले ही पल वे उन्हें धर्म विशेष के प्रति आग्रही और उसका शुभचिंतक बताने लग जाते हैं.

लेकिन भगत सिंह के संदर्भ में उनकी असुविधा यह है कि जैसे जवाहरलाल नेहरू, जिन्हें वे फूटी आंखों भी नहीं देखना चाहते, की तरह ही भगत सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व में भी ऐसा एक भी लोचा नहीं है, जिसकी बिना पर वे उनके अनुकूलन से अपना मंतव्य हासिल कर सकें.

अतीत के बेहद अभिमानपूर्वक गान और उसके ‘गौरव’ की पुनर्स्थापना के जिन प्रयत्नों में संघ परिवारी व उनकी सरकारें जी-जान लगाए रहती हैं, भगत सिंह अपने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ लेख की इन पंक्तियों में उन्हें ‘मानवता के विकास को जड़ बनाने का अपराधी’ ठहरा गए हैं: दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों और विचारों को भविष्य में अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं.

लेकिन यहां एक और तथ्य गौरतलब है. यह कि भगत सिंह के अनूकूलन की कोशिशें अब संघ परिवारियों व उनकी सरकारों तक ही सीमित नहीं रह गई हैं. आम आदमी पार्टी की पंजाब की नवनिर्वाचित भगवंत मान सरकार अपने शपथ ग्रहण के दिन से ही भगत सिंह के बलिदान को अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का उपकरण बनाने के सिलसिले में उनको मात देती लगती है.

गौर कीजिए- पहले तो उसने भगत सिंह के नाम की प्रतीकवादी राजनीति करते हुए उनके गांव में आयोजित अपने शपथ ग्रहण समारोह को इस तरह प्रचारित किया, जैसे वह वाकई कोई ऐतिहासिक पहल हो. यह तब था, जब वह समूचे शपथ ग्रहण समारोह में भगत सिंह को खास रंग की पगड़ियों और वेश विन्यास तक, दूसरे शब्दों में कहें तो सिखों पर इमोशनल अत्याचार के अपने उपकरण के रूप में ही सीमित व संकृचित करती दिखी.

फिर उसने मुख्यमंत्री भगवंत मान के कार्यालय में केवल भगत सिंह व बाबासाहब की तस्वीरें लगाने के अपने निश्चय के नाम पर महात्मा गांधी की तस्वीर को वहां से बाहर का रास्ता दिखा दिया. जैसे कि गांधी व भगत सिंह की उस बहुप्रचारित ‘दुश्मनी’ का बदला ले रही हो, जिसके पैरोकार कहते हैं कि महात्मा गांधी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने के समुचित प्रयास नहीं किए थे.

फिर जैसे इतना ही काफी न हो, उसने मुख्यमंत्री कार्यालय में भगत सिंह की ऐसी तस्वीर लगवा दी, जिसका ऐतिहासिक वास्तविकता या प्रामाणिकता से कोई वास्ता नहीं हैं. इस तस्वीर में भगत सिंह मुख्यमंत्री की मनपसंद पगड़ी धारण किए दिखाई देते हैं तो लगता है कि अपनी शहादत के इक्यानवे साल बाद वे मुख्यमंत्री के नक्श-ए-कदम के अनुयायी बनकर अवतरित हो गए हों और मुख्यमंत्री, उनकी सरकार और पार्टी झूठमूठ ही उनके रास्ते पर चलने का दावा कर रहे हों.

जानकारों के अनुसार फिलहाल, भगत सिंह की चार ही प्रामाणिक तस्वीरें उपलब्ध हैं. इनमें से एक में वे जेल में खुले बालों में बैठे हैं, दूसरी में वे टोपी पहने हुए हैं और अन्य दो तस्वीरों में सफेद पगड़ी. इस इतिहास को नकारकर मान सरकार द्वारा भगत सिंह को अपनी पगड़ी पहनाने का क्या एकमात्र यही अर्थ नहीं कि जैसे नरेंद्र मोदी सरकार अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए नया गांधी गढ़ने में लगी रहती है, वे, उनकी सरकार और पार्टी अपने लिए नया भगत सिंह गढ़ रहे हैं?

यह उनका भगत सिंह के सपने पूरे करने की दिशा में बढ़ना है या अपने राजनीतिक सपनों को उनका बताकर थोपना? आम आदमी पार्टी को दिल्ली में भगत सिंह की वैसी याद नहीं आती, जैसी पंजाब में, तो यह उनकी शहादत का सम्मान है कि अपमान?

सच पूछिए तो ये सारे के सारे ‘अनुकूलन’ भगत सिंह के संघर्षों और शहादत का इतना बड़ा अपमान हैं जिनके लिए न संघ परिवार को क्षमा किया जा सकता है, न आम आदमी पार्टी को. लेकिन क्या वे कभी इस बात को समझेंगे?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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