उत्तराखंड: कॉमन सिविल कोड से पहाड़ की जनता को क्या मिलेगा

अगर पुष्कर सिंह धामी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार कोई क़ानून लाना चाहती है तो उसके बारे में आम जनता को पहले से तफ़्सील से क्यों नहीं बताया जाता कि उत्तराखंड के लिए इसके क्या फ़ायदे होंगे.

औली शहर से दिखता नंदा देवी पहाड़. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

अगर पुष्कर सिंह धामी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार कोई क़ानून लाना चाहती है तो उसके बारे में आम जनता को पहले से तफ़्सील से क्यों नहीं बताया जाता कि उत्तराखंड के लिए इसके क्या फ़ायदे होंगे.

औली शहर से दिखता नंदा देवी पहाड़. (फाइल फोटो: रॉयटर्स)

उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में नई सरकार बनने के बाद पहली कैबिनेट बैठक के पहले प्रस्ताव ने आम लोगों को सकते में डाल दिया. कॉमन सिविल कोड यानी सामान आचार संहिता के मुद्दे को लेकर ज़्यादातर लोगों के सिर से पानी गुज़र गया कि आखिर इसके उतराखंड में लागू होने से लोगों की तकदीर कैसे बदल सकेगी.

विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान भी भाजपा ने यह शिगूफा हवा में उछाला था. ज़ाहिर है चुनावों के वक्त भाजपा के पास 5 साल में तीन मुख्यमंत्री बदलने और सरकार विरोधी जनभावनाओं को भ्रमित करने के लिए यह इस तरह के कई जुमले उछाले. आखिरकार भाजपा अपने हरेक दांव में सफल रही और 5 साल तक जनता से कटी रही और आपसी गुटबाजी से कांग्रेस को लगातार दूसरी बार हार का मुंह देखना पड़ा.

यह सवाल हर कोई पूछ रहा है कि अगर कोई क़ानून सरकार लाना चाहती है तो उसके बारे में आम जनता को पहले से तफ़्सील से क्यों नहीं बताया जाता कि उत्तराखंड के लिए इसके क्या फ़ायदे होंगे. और भाजपा सरकार को अचानक ऐसी याद क्यों आई?

उत्तराखंड में भाजपा का दावा है कि कॉमन सिविल कोड गोवा में पहले से लागू है,  इसलिए उत्तराखंड दूसरा राज्य बन जाएगा, जो इस क़ानून को लागू करेगा.

आम धारणा यही है कि जो उत्तराखंड राज्य अपने गठन के 22 बरस बाद भी विभिन्न तरह की उलझनों में फंसा हो, उस राज्य की प्रचंड बहुमत वाली सरकार पर ऐसी क्या आफत आ पड़ी कि बाकी प्राथमिकताएं छोड़ सबसे सामान आचार संहिता का मसौदा तैयार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया.

ज़ाहिर है कि यह ऐसा जटिल विषय है जिसे लेकर काफी मंथन और कानूनी बहस की जरूरत है.

विशेषज्ञ मानते हैं कि अव्वल तो देश में समान विषय पर क़ानून का मसौदा या चर्चा की शुरुआत संसद से होनी चाहिए. चूंकि इस क़ानून का ताल्लुक समूचे देश के नागरिकों से है, इसलिए किसी ख़ास प्रदेश में लागू करना सिर्फ़ प्रचार पाने, धर्म की आड़ में ध्रुवीकरण कराने और चुनाव के मौकों पर इसे सांप्रदायिकता फैलाने का औजार बनाने से ज़्यादा कुछ नहीं दिखता.

ध्यान रहे कि गोवा में पुर्तगाली राज से यह क़ानून चला आ रहा है. 9 दिसंबर 1961 को गोवा पर पुर्तगाल ने अपना अधिकार छोड़ा था और वह भारत का हिस्सा बना. जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में 1962 में भारतीय संसद ने गोवा को भारतीय गणराज्य में विलय के प्रस्ताव को पारित किया था.

उत्तराखंड समेत बाकी प्रदेशों में इस कानून के बारे में आम जनता को सचाई बताने के बजाय इसे धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दा बताकर प्रचार कर रही है. जबकि गोवा में वहां के मूल निवासी कैथोलिक ईसाई, मुसलमान और हिंदू आबादी इस क़ानून को बनाए रखने के पक्ष में हैं.

गोवा मूल के वरिष्ठ पत्रकार धर्मानंद कामथ बताते हैं कि करीब 3-4 दशक पूर्व से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सदस्य व पदाधिकारी व कुछ उलेमा गोवा में मुसलमानों के बीच या प्रचार करने गए कि उनका कॉमन सिविल कोड इस्लाम के खिलाफ है. उन्होंने गोवा के मुस्लिम समाज को यह समझाने की कोशिश की कि यह क़ानून उनकी धार्मिक स्वतंत्रता में दखल देता है तो वहां के मुसलमान बुद्धिजीवी और विद्वानों ने उनका खुला विरोध किया. वस्तुतः गोवा में समान आचार संहिता के दो मूल आधार हैं. पहला है शादी और दूसरा है संपत्ति में महिला व पुरुष का सामान अधिकार.

भारतीय नागरिकों के लिए समान आचार संहिता का मुद्दा कश्मीर में धारा 370 ख़त्म करने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का संकल्प सर्वोच्च प्राथमिकताओं में अरसे से रहे हैं. दरअसल यह विषय इतना पेचीदा व संवेदनशील है कि देश में अपना विस्तार कर रही भाजपा के इए इसे छेड़छाड़ करना आसान नहीं होगा.

माना जा रहा है कि इससे देश में समानता और धार्मिक स्वतंत्रता में बेवजह का टकराव होगा. सरकार बखूबी अवगत है कि चार साल पहले केंद्रीय विधि आयोग ने मौजूदा परिस्थितियों में इस तरह के क़ानून का कोई औचित्य नहीं है.

इस मामले में संविधान लिखे जाने के दौर में डॉ. भीमराव आंबेडकर भी साफ़ तौर पर मानते थे कि देश में एक समान नागरिक संहिता भले ही समग्र तौर पर आवश्यक प्रतीत होती है लेकिन फिलहाल इसे धर्म के मानने वालों की इच्छा पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए.

बकौल उनके, जब इस मुद्दे पर देश एकमत हो जाए तो समान नागरिक संहिता अस्तित्व में आ सकती है. यही वजह है कि इस क़ानून को देशवासियों पर जबरन थोपने से परहेज किया गया. साथ ही टकराव या वैमनस्यता की स्थिति तक पहुंचाने से परहेज किया गया. विभिन्न धर्मावलंबियों के भारत में इस तरह ज़्यादातर निजी कानूनों को मानने और लागू करने का काम धर्म के आधार पर तय कर दिए जाने चाहिए.

उत्तराखंड में भाजपा चुनावों के वक्त धार्मिक मुद्दों को सियासी पिच पर लाने में अभ्यस्त हो चुकी है. हालांकि ज़्यादातर मुस्लिम आबादी हरिद्वार, उधमसिंह नगर, देहरादून व नैनीताल में केंद्रित है, लेकिन गढ़वाल और कुमाऊं के कुछ कस्बों में भी मुस्लिम आबादी का विस्थापन हुआ है.

हिंदू आबादी अभी भी 82.97 प्रतिशत है. 13.95 प्रतिशत ही राज्य की मुस्लिम जनसंख्या है. सिख आबादी 2.34 प्रतिशत है. ईसाई, जैन व बौद्ध आबादी 1 प्रतिशत से भी कहीं नीचे है.

उत्तराखंड में आधी से ज़्यादा विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम आबादी नगण्य है, यानी उसकी तादाद इन सीटों पर हार जीत तय करने की स्थिति में नहीं है. इसके बावजूद उत्तराखंड में विगत कुछ वर्षों से भाजपा वहां मुस्लिम आबादी के बढ़ने को राजनीतिक मुद्दा बनाती आ रही है.

प्रेक्षकों की नज़र में उसका यह रवैया साफ़ तौर पर वहां की बहुसंख्यक हिंदू आबादी को मुस्लिमों का डर दिखाकर वोटों का ध्रुवीकरण करना है ताकि चुनावों के वक्त आम जनता के बाकी मुद्दों और सरकार की नाकामी से ध्यान भटकाना आसान हो जाए.

उत्तराखंड कई तरह की मुश्किलें झेल रहा है- पलायन, बेरोज़गारी, स्वास्थ्य और शिक्षा ये सभी ऐसे मुद्दे हैं जो आपस में जुड़े हुए हैं. ज़िंदा रहने की बुनियादी सहूलियतों के लिए लोग आज भी सुदूर पर्वतीय गांवों में बुरी तरह से तरस रहे हैं.

इससे भी बड़ा सवाल है उत्तराखंड से सटे समूचे हिमालय में जलवायु परिवर्तन के कारण भारी मौसमी उथलपुथल. विडंबना यह है कि इस सवालों पर चिंता करने के लिए न सियासतदानों को फुर्सत है और न ही आम जनता को इससे कुछ लेना-देना है.

सबसे ज्वलंत प्रश्न यह है कि भाजपा की पिछली त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने इस पर्वतीय राज्य के भू कानूनों को बदल दिया. 2008 में पूर्व भाजपा सरकार में मेजर जनरल बीसी खंडूडी के मुख्यमंत्रीत्व काल में जो पाबंदियां लगाई गई थीं, उन्हें भाजपा ने ही 2018 में नया भू क़ानून लकर ख़त्म कर दिया. इस कदम पर भले ही प्रतिरोध की आवाजें भाजपा के भीतर बाहर उठीं लेकिन चुनाव में कहीं भी विरोध की आवाजें मुद्दों में नहीं बदलीं.

नए भू क़ानून की आड़ लेकर देहरादून में सत्ताधारी दल के नेताओं, नौकरशाहों और भूमाफिया के गठजोड़ प्राचीन चाय बागान की 350 बीघा ज़मीन को गुपचुप तरीके से बेच दिया गया है. उसी क्षेत्र में भाजपा में 2011 में एक बड़ा भूभाग मात्र 3 करोड़ रुपये में अवैधानिक ढंग से खरीदकर उस पर अपना प्रदेश कार्यालय स्थापित कर लिया.

इतना ही नहीं नए भू क़ानून के बाद सभी पर्वतीय जिलों और ऊंचे पहाड़ों में खेतों के पट्टे और ज़मीनों को बड़े उद्योगपतियों और बेनामी कंपनियों को बेचने का गोरखधंधा चरम पर है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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