अब हिंदी ध्रुवीकरण के लिए हिंदुत्व का नया हथियार है

अमित शाह जानते हैं कि सभी भारतीयों पर हिंदी थोपने का उनका इरादा व्यवहारिक नहीं है. लेकिन इससे उनका ध्रुवीकरण का एजेंडा तो सध ही रहा है.

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अमित शाह. (फोटो साभार: फेसबुक/@amitshahofficial)

अमित शाह जानते हैं कि सभी भारतीयों पर हिंदी थोपने का उनका इरादा व्यवहारिक नहीं है. लेकिन इससे उनका ध्रुवीकरण का एजेंडा तो सध ही रहा है.

अमित शाह. (फोटो साभार: फेसबुक/@amitshahofficial)

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की इस टिप्पणी – कि हर जगह भारतीयों को एक-दूसरे से अंग्रेजी के बजाय हिंदी में संवाद करना चाहिए, ने विपक्षी दलों और नागरिकों को सक्रिय कर दिया है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) क्यों कुछ उत्तर और मध्य भारतीय राज्यों में बोली जाने वाली भाषा को गर्व से तमिल, बांग्ला और मराठी बोलने वालों पर थोपना चाहती है? विविधतापूर्ण, बहुभाषा वाला देश अचानक ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ की ओर क्यों बढ़ रहा है?

अगर आपकी याददाश्त अच्छी है, तो याद कीजिए कि 2017 में भी इसी तरह का एक प्रयास किया गया था. आम चुनाव से दो साल पहले नरेंद्र मोदी सरकार हिंदी को आगे बढ़ाना चाहती थी. तब कार्यकर्ताओं और राजनीतिक दलों ने इसका कड़ा विरोध किया था. अंत में उससे कुछ हासिल नहीं हुआ.

शाह ने स्पष्ट किया है कि हिंदी स्थानीय भाषाओं की जगह नहीं लेगी, बल्कि केवल अंग्रेजी का स्थान लेगी, जो कहा जाता है कि ‘मैकाले की संतानों’ की भाषा है. मैकाले, जिन्होंने शिक्षा को लेकर 1836 के कुख्यात मिनट्स लिखे थे, जहां उन्होंने प्रस्ताव दिया था कि अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा से उपजे भारतीय ‘एक ऐसा वर्ग बनाएंगे जो हमारे और उन लाखों लोगों, जिन पर हम शासन करते हैं, के बीच दुभाषिये की तरह काम कर सकते हैं; ऐसे लोगों का एक वर्ग, जो खून और रंग में भारतीय, लेकिन पसंद, विचारों, नैतिकता और समझदारी में अंग्रेज होगा.’

दूसरे शब्दों में, ऐसे भारतीय, जो हिंदुत्व मानक के अनुसार ‘शुद्ध’ नहीं थे. संघ परिवार ने इस तरह के भ्रष्ट भारतीय के खिलाफ लंबे समय से आवाज उठाई है, जिसने, उसकी राय में, बहुत लंबे समय तक बहुत अधिक ताकत का प्रयोग किया.

आम तौर पर संघी और विशेष रूप से अमित शाह दोनों ही निराशाजनक रूप से पुराने हैं. अंग्रेजी भले ही किसी समय विशेषाधिकार प्राप्त और शक्तिशाली लोगों की भाषा रही हो, लेकिन अब यह सशक्तिकरण की भाषा बन गई है.

अंग्रेजी के प्रसार ने इसे लोकतांत्रिक बना दिया है और यह अब केवल कुलीन वर्ग की भाषा नहीं रह गई है. अंग्रेजी सीखने से नौकरियों के क्षेत्र में आर्थिक अवसर मिलते हैं – कॉल सेंटर से लेकर शिक्षण, सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट और कॉरपोरेट नौकरियों तक. एक बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था को योग्य, कुशल लोगों की जरूरत होती है और केवल एक भाषा जानने से मौके सीमित हो सकते हैं. पूरे देश में अंग्रेजी मीडियम स्कूल बरसाती घास की तरह उग आए हैं और अब भी मांग कई और अधिक की है. यह एक स्पष्ट संकेत है कि अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे यह भाषा सीखें क्योंकि उन्हें इसके कई फायदे नजर आते हैं.

शाह और उनके साथी इस तरह अतीत में ही जी रहे हैं. इसके अलावा, वो कौन-सी हिंदी थोपना चाहते हैं? खड़ी बोली या बृज भाषा? या हिंदी बेल्ट में बोली जाने वाली वो कई बोलियां, जो हर दो कोस पर बदलती हैं? या वो बंबईया भाषा, जिसके ख्याल भर से एक शुद्धतावादी कांप जाएगा, या मुंबई सिनेमा की हिंदुस्तानी, जिसने भी इस भाषा के प्रसार के लिए काफी कुछ किया है? या भगवान न करे, सरकारी हिंदी, जो कई सरकारों ने आदेशों से थोपने की कोशिश की और जिसे किसी ने गंभीरता से नहीं लिया?

और जब इस बारे में बात हो ही रही है, तो सवाल ये भी है कि हिंदी ही क्यों, तमिल क्यों नहीं? वो तो इससे कहीं ज्यादा पुरानी है. बात सिर्फ इतनी है कि हिंदी- वो भी तरह-तरह की, को ज्यादा राज्यों में बोले जाने के चलते ही इसे राष्ट्रीय भाषा से जोड़े जाने को न्यायोचित ठहराया जा सकता है.

अमित शाह को निश्चित रूप से मालूम रहा होगा कि उनका विचार अव्यवहारिक है और विभिन्न राज्यों में सक्रिय रूप से इसका विरोध किया जाएगा. उन्होंने 1960 के दशक में तमिलनाडु में हिंदी विरोधी दंगों के बारे में सुना होगा. फिर भी, उन्होंने यह शिगूफा छोड़ा.

इस प्रस्ताव को लागू करने का निश्चित रूप से एक कारण 2024 के आम चुनाव हो सकते हैं. ऐसे में भाजपा का काम है कि विवादास्पद मुद्दों को उछाला जाए और देखें कि वे कैसे काम करते हैं और फिर उन्हें छोड़ दें, जैसा कि 2019 में हुआ था, जब हिंदी के बारे में कुछ कहा-सुना नहीं गया था.

लेकिन अब चीजें वैसी नहीं हैं जैसी पांच साल पहले थीं. भाजपा और इसके तमाम बंधु संगठन इस बार और आक्रामक हैं. हिंदुत्व के सिपाही अलग-अलग राज्यों में शाकाहार, मांस खाने और बेचने वालों की खिलाफत जैसे नए मुद्दे लेकर निकल पड़े हैं- खासकर वहां, जहां उनकी सरकार सत्ता में है. मटन की दुकानों पर हमला किया गया, वेंडर्स की रोजी-रोटी छीन ली गई; आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी ने जेएनयू के एक हॉस्टल में मांसाहार परोसे जाने को लेकर छात्रों से मारपीट की.

सांप्रदायिक आग तेजी से भड़काई जा रही है. हिंदी को भी इसी तरह हथियार बनाया जाएगा.

यह मानने का हर कारण मौजूद है कि हिंदुत्व की भीड़ को हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के नाम पर किसी के भी पीछे जाने के लिए एक और अवसर मिल जाएगा. यह मानकर खुश होने की भी कोई वजह नहीं है कि शाह का बयान महज एक चुनावी जुमला है, जो ध्रुवीकरण का अपना मकसद पा लेने के बाद चुपचाप गायब हो जाएगा. इस बार बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक लामबंदी सुनिश्चित करने की घातक मंशा है. संघ परिवार के ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ के मंत्र के हिस्से के बतौर हिंदी भाजपा के वोट को मजबूत करने का अगला बहाना बन सकती है.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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