दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है, इसलिए प्रशासन पर केंद्र का नियंत्रण ज़रूरी: केंद्र सरकार

राष्ट्रीय राजधानी की प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण को लेकर सुप्रीम कोर्ट केंद्र के ख़िलाफ़ दिल्ली सरकार की याचिका सुन रहा है. बहस के दौरान केंद्र सरकार ने कहा कि दिल्ली की शासन प्रणाली में विधानसभा और मंत्रिपरिषद होने के बावजूद उसकी केंद्रीय भूमिका होनी चाहिए.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

राष्ट्रीय राजधानी की प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण को लेकर सुप्रीम कोर्ट केंद्र के ख़िलाफ़ दिल्ली सरकार की याचिका सुन रहा है. बहस के दौरान केंद्र सरकार ने कहा कि दिल्ली की शासन प्रणाली में विधानसभा और मंत्रिपरिषद होने के बावजूद उसकी केंद्रीय भूमिका होनी चाहिए.

(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने बुधवार को उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) को बताया कि उसे दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण करने की जरूरत इसलिए है क्योंकि वह राष्ट्रीय राजधानी और देश का चेहरा है.

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह भी कहा कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की शासन प्रणाली में विधानसभा और मंत्रिपरिषद होने के बावजूद, आवश्यक रूप से केंद्र सरकार की केंद्रीय भूमिका होनी चाहिए. मेहता ने कहा कि यह किसी विशेष राजनीतिक दल के बारे में नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है, इसलिए यह आवश्यक है कि लोक सेवकों की नियुक्ति और स्थानांतरण की शक्ति केंद्र के पास हो. दिल्ली देश का चेहरा है. दुनिया भारत को दिल्ली के जरिये देखती है.’

मेहता ने कहा, ‘चूंकि यह राष्ट्रीय राजधानी है, इसलिए यह आवश्यक है कि केंद्र का इसके प्रशासन पर विशेष अधिकार हो तथा महत्वपूर्ण मुद्दों पर नियंत्रण हो.’

सरकार ने शीर्ष अदालत को बताया कि दिल्ली में प्रशासनिक सेवाओं पर किसका नियंत्रण होना चाहिए, इस मुद्दे की व्यापक व्याख्या के लिए इसे संवैधानिक पीठ को सौंपा जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट दिल्ली की प्रशासनिक सेवाओं पर नियंत्रण को लेकर केंद्र सरकार के खिलाफ दिल्ली सरकार की याचिका पर सुनवाई कर रहा है.

एनडीटीवी के मुताबिक, केंद्र ने बालाकृष्णन समिति की रिपोर्ट का भी उल्लेख किया, जिसमें निष्कर्ष निकाला गया था कि दिल्ली पर केंद्र सरकार का नियंत्रण होना, राष्ट्रीय हित में महत्वपूर्ण है.

केंद्र ने कहा कि मामले को पांच जजों की संवैधानिक पीठ को भेजा जाना चाहिए. इस सुझाव का दिल्ली सरकार ने मजबूती से विरोध किया.

दिल्ली सरकार के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि मामले को बड़ी पीठ के समक्ष भेजने की जरूरत नहीं है.

सिंघवी ने कहा, ‘पिछली दो-तीन सुनवाई के दौरान, केंद्र सरकार इस मामले को संवैधानिक पीठ को भेजने के लिए बहस कर रही है. बालाकृष्णन समिति की रिपोर्ट पर चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इसे खारिज कर दिया गया था.’

दिल्ली सरकार की प्रतिक्रिया चीफ जस्टिस रमना द्वारा यह पूछे जाने के बाद आई कि पुरानी पीठों ने विधानसभा की शक्तियों पर क्या कहा था और केंद्र के सुझाव पर दिल्ली सरकार का क्या मत है.

बता दें कि दिल्ली की आम आदमी पार्टी (आप) सरकार लंबे समय से केंद्र सरकार पर आरोप लगाती रही है कि वह उपराज्यपाल का इस्तेमाल दिल्ली को नियंत्रित करने और निर्वाचित सरकार के फैसलों में बाधा डालने के लिए करती है.

वहीं, पीटीआई के मुताबिक, केंद्र सरकार ने आरोप लगाया कि पिछले कुछ सालों में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के कामकाज में व्यवधान आया है क्योंकि उपराज्यपाल को प्रशासनिक फैसलों को लेकर अक्सर अंधेरे में रखा जाता है.

बहरहाल, केंद्र ने इससे पहले सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि दिल्ली सरकार को जमीन, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था के अलावा अन्य विषयों पर कानून पारित करने से रोका जा सकता है.

केंद्र ने आप सरकार की विधायी शक्तियों की सीमाओं को संवैधानिक पीठ द्वारा नए सिरे से निर्धारित करने की भी मांग की थी.

सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक पीठ ने 2018 में फैसला सुनाया था कि पुलिस, जमीन और सार्वजनिक व्यवस्था केंद्र के नियंत्रण में है और बाकी दिल्ली सरकार के अधीन है.

लेकिन केंद्र ने तर्क दिया कि 2018 के फैसले का मतलब यह नहीं था कि दिल्ली सरकार को जमीन, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था के अलावा सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है.

जिस पर दिल्ली सरकार का कहना रहा कि केंद्र की दलीलें संविधान के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचा रही हैं और उन्होंने दिल्ली विधानसभा को अर्थहीन बना दिया है.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)