मोदी सरकार में प्रेस की आज़ादी पर चौतरफा हमले किए जा रहे हैं

भारत का लोकतंत्र दिनदहाड़े दम तोड़ रहा है. प्रेस को घेरा जा रहा है, लेकिन उसे अडिग होकर खड़े होने के तरीके तलाशने होंगे.

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2019 में मुंबई में हुए एक प्रदर्शन के दौरान पत्रकार. (फोटो: रॉयटर्स)

भारत का लोकतंत्र दिनदहाड़े दम तोड़ रहा है. प्रेस को घेरा जा रहा है, लेकिन उसे अडिग होकर खड़े होने के तरीके तलाशने होंगे.

2019 में मुंबई में हुए एक प्रदर्शन के दौरान पत्रकार. (फोटो: रॉयटर्स)

तीन मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस था, लेकिन भारत में 3 मई, 2022 उत्तर प्रदेश की जेल में पत्रकार सिद्दीक कप्पन की कैद का 575वां दिन था, जो वहां हाथरस में एक दलित महिला के सामूहिक बलात्कार और हत्या संबंधी उस रिपोर्ट के लिए हैं, जो वो लिख ही नहीं सके. यह श्रीनगर में कश्मीरवाला के संपादक फहद शाह की कैद का तीसरा महीना है और जम्मू कश्मीर के अधिकारियों द्वारा स्वतंत्र पत्रकार सज्जाद गुल को जेल में बंद किए जाने का चौथा.

कप्पन और फहद शाह पर कठोर ‘आतंकवाद विरोधी’ गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत आरोप लगाए गए हैं. जहां कप्पन को अपनी गिरफ्तारी के डेढ़ साल बाद भी जमानत पाने में कामयाबी नहीं मिली है, वहीं फहद शाह को जमानत देने के कुछ घंटों बाद दूसरे ‘अपराध’ के लिए तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया.

यह सुनिश्चित करने के लिए कि फहद जेल में ही रहें, जम्मू कश्मीर सरकार- जो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के प्रति जवाबदेह है- ने अब उन पर जनसुरक्षा अधिनियम (पीएसए) भी लगा दिया है, जिसके तहत ‘हिरासत में लिए गए व्यक्ति’ को बिना किसी आरोप या सुनवाई के एक साल तक सलाखों के पीछे रखा जा सकता है.

यही रास्ता पुलिस ने सज्जाद गुल के लिए भी अख्तियार किया है- मोटे तौर पर यह इस बात का संकेत है कि उनके खिलाफ दर्ज हुआ वास्तविक मामला न्यायिक जांच में टिक नहीं पाएगा. पीएसए इसे दोबारा लगाए जाने की भी अनुमति देता है: यानी जैसे ही एक साल खत्म होता है, व्यक्ति पर फिर से यह कानून लगाया जा सकता है.

सिद्दीक कप्पन, सज्जाद गुल और फहद शाह को याद रखना ज़रूरी है क्योंकि वे आज भारत में प्रेस की स्वतंत्रता पर सरकार के स्पष्ट हमले के सामने दिखाई दे रहे प्रतीक हैं. आज से पांच साल पहले मीडिया को जिस सबसे बड़े व्यावसायिक खतरे से जूझना पड़ता था, वह था उत्पीड़न और डराने-धमकाने के साधन के रूप में मानहानि का दुरुपयोग, लेकिन आज खतरों का दायरा कहीं अधिक घातक है.

मोदी सरकार में मीडिया की आजादी पर हो रहे हमले कई रूपों में सामने आते हैं:

  • पत्रकारों की गिरफ्तारी और क़ैद
  • दर्जनों पत्रकारों (द वायर और उसके पत्रकारों समेत) के खिलाफ फर्जी आपराधिक मामले दर्ज करना
  • पत्रकारों (द वायर  में काम करने वालों सहित) के खिलाफ पेगासस जैसे निगरानी करने वाले स्पायवेयर का इस्तेमाल
  • जमीन पर जा रहे पत्रकारों पर शारीरिक हमले, कभी-कभी अधिकारियों द्वारा, और कभी ‘गैर-सरकारी’ लोगों द्वारा भी, जिन्हें सत्ताधारी पार्टी से नजदीकी के चलते सात खून माफ़ होते हैं
  • सरकार (और सत्तारूढ़ दल) द्वारा अस्वीकार सामग्री को हटाने के लिए सोशल मीडिया मंचों की धमकी
  •  टेलीविजन स्टेशनों पर अज्ञात- और संभवत: काल्पनिक- राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर प्रतिबंध लगाना
  • ‘आर्थिक अपराधों’ के नाम पर मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को परेशान करने के लिए सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल
  • अभूतपूर्व तरीके से इंटरनेट पर रोक लगाना
  • सरकारी विज्ञापन के आवंटन में पक्षपात और प्रतिशोधी रवैया, जो आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी द्वारा इस्तेमाल किया गया एक जांचा-परखा तरीका है
  • डिजिटल मीडिया में आधिकारिक मान्यता [accreditation] और विदेशी निवेश (एफडीआई) के लिए अनुमोदन प्रक्रिया में कामचलाऊ और मनमाना रवैया
  • अंतरराष्ट्रीय मीडिया द्वारा समाचार कार्यक्रम से संबंधित कश्मीर की यात्राओं पर प्रतिबंध और सामान्य तौर पर पत्रकार वीजा के लिए नियमों को कड़ा करना
  • पदासीन अध्यक्ष के सेवानिवृत्त होने के छह महीने बाद तक एक अध्यक्ष की नियुक्ति करने में विफल रहने पर भारतीय प्रेस परिषद को अप्रभावी बनाना, प्रशासनिक तौर पर यह 1976 में इंदिरा गांधी के परिषद को औपचारिक रूप से समाप्त करने के फैसले के समकक्ष
  • सत्ताधारी पार्टी के संरक्षण में बड़े पैमाने पर सुनियोजित तरीके से फर्जी ख़बरें गढ़ना, पत्रकारों की ट्रोलिंग और उत्पीड़न – विशेष रूप से महिलाओं का.
  •  सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 के जरिये डिजिटल समाचार सामग्री को सेंसर करने के लिए नए कानूनों की शुरुआत.

फिर इसके बाद छोटे पाप आते हैं, जैसे कि सरकारी संचार में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी, प्रधानमंत्री से लेकर नीचे के स्तर तक यही हाल देखने को मिलता है.

नरेंद्र मोदी भारत में प्रेस कॉन्फ्रेंस करने से दृढ़ता से इनकार करते हैं और जब विदेशों में उनके मेजबान इस तरह के आयोजन करते हैं तो सवालों को अनुमति नहीं देते. सूचना के अधिकार कानून के तहत किए सवालों का सही उत्तर नहीं दिया जाता या छोटे-मोटे बहाने देकर ठुकरा दिया जाता है.

सरकार का पत्रकारों के खिलाफ खड़े होना दो बातों पर निर्भर करता है: देश के बड़े मीडिया के एक वर्ग की न केवल आधिकारिक लाइन पर बने रहने की इच्छा बल्कि असल में सरकार का गुणगान करना, और दूसरा अदालतों की प्रेस की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी को बनाए रखने की अनिच्छा.

हालांकि की कुछ स्वागतयोग्य अपवाद भी हैं, निचली अदालतें लगातार ही कार्यकारी ताकतों के सुर में सुर मिलाती हैं और ऊपरी अदालतों को ही कोई उपाय निकालना होता है.

अफसोस की बात है कि प्रेस की स्वतंत्रता पर हमलों के लिए उच्च न्यायालयों और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिक्रिया एक समान नहीं रही है. कुछ ऐतिहासिक आदेश दिए गए हैं – पेगासस मामले में सरकार के ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के बहाने को शीर्ष अदालत द्वारा ख़ारिज कर देना एक उदाहरण है, इसी तरह बॉम्बे, मद्रास और केरल उच्च न्यायालयों द्वारा आईटी नियमों के सबसे आपत्तिजनक खंडों पर रोक लगाने का निर्णय भी है- लेकिन पत्रकारों को सिर पर लटकती जेल की तलवार के बिना उनके काम करने की आजादी से जुड़े मामलों को उस दृढ़ता और तात्कालिकता के साथ नहीं निपटाया गया जिसकी जरूरत है.

एक हालिया साक्षात्कार में सूचना प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री ने सरकार की सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 में संशोधन करने की योजनाओं के बारे में बताया ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सके जो ‘अनुच्छेद 19(2)’ से परे है. इसका सीधा मतलब है कि ऐसे प्रतिबंध जो संविधान द्वारा सरकार को कानून के माध्यम से उन्हें लागू करने के लिए मिली सीमा से आगे हैं.

इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए राष्ट्रीय आपातकाल- जो 21 महीने तक चला- में सेंसरशिप, भारतीय प्रेस परिषद को निरस्त करना और पत्रकारों की गिरफ्तारी देखी गई. नरेंद्र मोदी ने पत्रकारिता को उस पैमाने तक अपराधीकृत कर दिया है जैसा 1977 के बाद से नहीं देखा गया.

प्रशासनिक साधनों का उपयोग करते हुए प्रेस परिषद (जो अब बड़े पैमाने पर शक्तिहीन) को अप्रासंगिक बना दिया गया है. नए आईटी नियमों के रूप में आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन की रोकथाम अधिनियम, 1976 को दोबारा अस्तित्व में ले आया गया है, जिसके जरिये सरकार ने उसे आपत्तिजनक लगने वाली डिजिटल समाचार सामग्री को हटाने का अधिकार हथिया लिया है.

मोदी का अघोषित आपातकाल अपने आठवें साल में है और लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता के खिलाफ हमले बढ़ाने का हर संकेत दे रहा है. बातों का समय अब बीत चुका है: भारत का लोकतंत्र दिनदहाड़े दम तोड़ रहा है. फिर भी, इसका ख़त्म हो जाना अपरिहार्य नहीं है. प्रेस को घेरा जा रहा है, लेकिन उसे अडिग होकर खड़े होने के तरीके खोजने चाहिए. जो कुछ भी घटित हो रहा है उसे  दर्ज करें और हर उस पत्रकार और मीडिया संस्थान के साथ एकजुटता से अपनी आवाज उठाएं, जिसको निशाना बनाया जा रहा है.

(अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

(नोट: (5 नवंबर 2022) इस ख़बर को टेक फॉग ऐप संबंधी संदर्भ हटाने के लिए संपादित किया गया है. टेक फॉग संबंधी रिपोर्ट्स को वायर द्वारा की जा रही आंतरिक समीक्षा के चलते सार्वजनिक पटल से हटाया गया है.)