मैरिटल रेप पर हाईकोर्ट के खंडित आदेश के ख़िलाफ़ शीर्ष अदालत में याचिका दायर

दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मामले में खंडित फ़ैसला देने के बाद एक याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया है. 11 मई को हाईकोर्ट की पीठ के एक जज ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत दिए गए अपवाद के प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा था कि यह अपवाद असंवैधानिक नहीं है.

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(फोटो: पीटीआई)

दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मामले में खंडित फ़ैसला देने के बाद एक याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का रुख़ किया है. 11 मई को हाईकोर्ट की पीठ के एक जज ने आईपीसी की धारा 375 (बलात्कार) के तहत दिए गए अपवाद के प्रावधान को समाप्त करने का समर्थन किया, जबकि दूसरे न्यायाधीश ने कहा था कि यह अपवाद असंवैधानिक नहीं है.

(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: वैवाहिक बलात्कार (मैरिटल रेप) को अपराध घोषित करने के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए खंडित फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है.

दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं में कानून में मौजूद उस अपवाद को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत पत्नियों के साथ बिना सहमति के शारीरिक संबंध बनाने के लिए पतियों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.

याचिका दायर करने वालों में से एक खुशबू सैफी ने उच्चतम न्यायालय का रुख किया है. उच्च न्यायालय ने 11 मई को इस संबंध में एक खंडित फैसला सुनाया था.

पीठ की अगुवाई कर रहे जस्टिस राजीव शकधर ने वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को ‘असंवैधानिक’ बताते हुए इसे समाप्त करने का समर्थन किया था और कहा था कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) लागू होने के ‘162 साल बाद भी एक विवाहित महिला की न्याय की मांग नहीं सुना जाना बेहद दुखद होगा.’

वहीं, जस्टिस सी. हरिशंकर ने कहा था कि बलात्कार कानून के तहत प्रदत्त ‘यह अपवाद असंवैधानिक नहीं है और सरलता से समझ में आने वाला है.’

याचिकाकर्ताओं ने आईपीसी की धारा-375 (बलात्कार) के तहत वैवाहिक बलात्कार के अपवाद की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती गई थी कि यह उन विवाहित महिलाओं के साथ भेदभाव करता है, जिनका उनके पतियों द्वारा यौन उत्पीड़न किया जाता है.

इस अपवाद के अनुसार, यदि पत्नी नाबालिग नहीं है तो उसके पति का उसके साथ यौन संबंध बनाना या यौन कृत्य करना बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता.

उच्च न्यायालय की पीठ ने इस मामले में 393 पन्नों का खंडित फैसला सुनाया है. इनमें से 192 पन्ने जस्टिस शकधर और 200 पन्ने जस्टिस शंकर ने लिखे हैं.

जस्टिस शकधर ने अपने फसले में कहा था, ‘इन याचिकाओं में आईपीसी की धारा-375 और धारा-376(बी) तथा आपराधिक दंड संहिता (सीआरपीसी) की धारा-198 (बी) के प्रावधानों को दी गई चुनौती खारिज हो जाएगी.’

वहीं, जस्टिस शंकर ने कहा था, ‘हमेशा इस बात का मलाल रहेगा कि सुनवाई के निष्कर्षों को लेकर उनके बीच के मतभेद सुलझाने योग्य नजर नहीं आते हैं.’

वहीं, जस्टिस शकधर ने यह भी कहा था कि वे ‘याचिकाकर्ताओं और उनके जैसे लोगों से कहेंगे कि इस समय ऐसा लग सकता है कि वे अकेले ही मैदान में हैं, लेकिन यह बदलेगा, अगर अभी नहीं, तो किसी न किसी दिन. विरोधियों के लिए, उन्होंने कहा कि हर असहमति बहस में स्वाद और खरापन जोड़ती है, जो न्याय और सच्चाई के करीब निष्कर्ष पर पहुंचने में अगली अदालत की मदद करते हैं.

पीठ ने पक्षकारों को उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करने की छूट दी थी.

अदालत ने यह फैसला 2015 और 2017 में गैर-सरकारी संगठन ‘आरआईटी फाउंडेशन’ और अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ द्वारा दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान सुनाया था, जिसमें भारतीय बलात्कार कानून के तहत पतियों को दिए गए अपवाद को खत्म करने की मांग की गई थी.

(समाचार एजेंसी भाषा से इनपुट के साथ)

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