राज्यों से महंगे कोयला आयात को कहना मोदी सरकार की घरेलू उत्पादन नीति की दुर्दशा दिखाता है

2016 में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने मोदी सरकार द्वारा कोयले का उत्पादन बढ़ाते हुए इसके आयात को ख़त्म करने की ठोस योजना पर काम करने की बात कही थी. लेकिन आज स्थिति यह है कि बिजली की बढ़ी मांग की पूर्ति के लिए सरकार ने राज्यों से महंगा कोयला आयात करने को कहा है. और तो और 2016 की 'योजना' को लेकर कोई जवाबदेही तय नहीं की गई है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

2016 में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने मोदी सरकार द्वारा कोयले का उत्पादन बढ़ाते हुए इसके आयात को ख़त्म करने की ठोस योजना पर काम करने की बात कही थी. लेकिन आज स्थिति यह है कि बिजली की बढ़ी मांग की पूर्ति के लिए सरकार ने राज्यों से महंगा कोयला आयात करने को कहा है. और तो और 2016 की ‘योजना’ को लेकर कोई जवाबदेही तय नहीं की गई है.

(प्रतीकात्मक फोटो: पीटीआई)

2016 में कोयला प्रभारी मंत्री के रूप में पीयूष गोयल ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि मोदी सरकार मुख्य रूप से कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) द्वारा उत्पादन में वृद्धि के जरिये कोयले के आयात को खत्म करने के लिए एक ठोस योजना पर काम कर रही है.

352 अरब टन के साथ भारत के पास दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कोयला भंडार है. अगर मोदी सरकार ने 2016 और 2020 के बीच कोयला उत्पादन बढ़ाने की योजना को गंभीरता से लागू किया होता, तो भारत आज बिजली की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए कोयले की कमी से परेशान नहीं हो रहा होता.

कोयले की कमी ने केंद्र को हाल ही में एक आपातकालीन प्रावधान लागू करने के लिए प्रेरित किया है जिससे निजी और राज्य बिजली उत्पादन कंपनियों को सीआईएल की घरेलू आपूर्ति के साथ 30% तक आयातित कोयले के उपयोग की अनुमति दी जा सके ताकि गर्मियों में बिजली की बढ़ी हुई मांग को पूरा किया जा सके.

कई राज्य सरकारों ने यह कहते हुए इसका विरोध किया है कि केंद्र आसानी से आयातित कोयले की लगभग तीन गुना अधिक लागत का बोझ  उन पर डाल रहा है. यहां तक कि उत्तर प्रदेश में भाजपा द्वारा संचालित सरकार ने भी कहा है कि वह इतना महंगा कोयला वहन नहीं कर सकती क्योंकि उसकी 90% बिजली आपूर्ति राज्य के भीतर की जाती है और इसके गरीब लोग उच्च ईंधन लागत के कारण होने वाली बड़ी टैरिफ वृद्धि को नहीं झेल सकते हैं. इस साल वैश्विक स्तर पर कोयले की कीमतें आसमान छू रही हैं और मोदी सरकार शायद सो ही रही है.

2016 के अंत तक नई कोयला नीति के निर्माता रहे पूर्व कोयला सचिव अनिल स्वरूप का कहना है कि अगर सरकार ने सीआईएल और निजी क्षेत्र- दोनों द्वारा 2020 तक 1 बिलियन टन कोयले के उत्पादन की सुस्पष्ट योजना का गंभीरता से पालन किया होता, तो आज कोयला संकट नहीं होता. स्वरूप ने कहा कि अकेले सीआईएल द्वारा सालाना लगभग 50 मिलियन टन का बढ़ा हुआ उत्पादन अधिक थर्मल पावर पैदा करने की मौजूदा जरूरत पूरा करने के लिए पर्याप्त होता.

सितंबर 2016 में जब पीयूष गोयल ने घोषणा की कि भारत तीन से चार वर्षों में कोयले के आयात को समाप्त कर देगा, तो सीआईएल 600 मिलियन टन से कम उत्पादन कर रहा था. स्वरूप का कहना है कि अगर उत्पादन अगले 3 वर्षों में सालाना 8% से 10% बढ़ गया होता, तो सीआईएल आसानी से 800 मिलियन टन का वार्षिक उत्पादन हासिल कर लेता.

अनिल स्वरूप कहते हैं कि दुखद है कि 2017 और 2020 के बीच सीआईएल का उत्पादन ज्यादातर स्थिर ही रहा. वित्त वर्ष 22 में सीआईएल ने केवल 622 मिलियन टन कोयले का उत्पादन किया.

वर्तमान में सीआईएल से कोयले की आपूर्ति की भारी कमी को देखते हुए और राज्यों को आयातित कोयले को तीन गुना कीमत पर खरीदने के लिए कहे जाते समय यह जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात की गंभीर जांच करें कि गोयल की 2020 तक कोयला आयात खत्म करने की सुस्पष्ट योजना में क्या गड़बड़ी हुई. आखिर, शासन में कुछ जवाबदेही तो होनी ही चाहिए.

अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि अनिल स्वरूप का कहना है कि सीआईएल के पास 2016 में 30,000 करोड़ रुपये से अधिक का नकद भंडार था. ऐसे में इसका इस्तेमाल सीआईएल के विशाल भंडार से उत्पादन बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा नहीं किया गया और इसके बजाय संभवतः 2017 और 2020 के बीच राजस्व में गिरावट के कारण बढ़ते राजकोषीय अंतर को कम करने के लिए सीआईएल के नकद भंडार को सरकार द्वारा लाभांश (डिविडेंड) के रूप में ले लिया गया.

तो जो पैसा देश की एनर्जी सिक्योरिटी को सुरक्षित करने के लिए निवेश किया जाना था, जिसकी रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद की स्थिति में काफी जरूरत  महसूस की गई, को अन्य उद्देश्यों के लिए खर्च कर दिया गया. गवर्नेंस में हुई इस गंभीर चूक के लिए किसी को तो जवाब देना होगा.

2016 की योजना के अनुसार, सीआईएल को लगभग 800 मिलियन टन कोयले का उत्पादन करना चाहिए था और अन्य 200 मिलियन टन निजी क्षेत्र से आ सकता था जिसे नीलामी के माध्यम से कोयला क्षेत्र आवंटित किए गए थे. यहां तक कि निजी क्षेत्र भी उत्पादन करने में विफल रहा क्योंकि हर कोई कोयले का आयात करके खुश था क्योंकि अपर्याप्त मांग के कारण कुछ सालों के लिए अंतरराष्ट्रीय कीमतें कम थीं. अब अचानक कीमतें 200% से अधिक बढ़ गई हैं और बिजली पैदा करने के लिए कोयले की आपूर्ति के लिए खींचतान हो रही है.

लेकिन सरकार पर्याप्त घरेलू बफर बनाने के बजाय राज्यों को अधिक महंगा कोयला आयात करने की सलाह दे रही है. यह बात 2016 में मोदी सरकार की कोयला आयात को पूरी तरह से खत्म करने की योजना के साथ कैसे मेल खाती है! ज़रा ज़मीनी स्तर पर नीतिगत मंशा और वास्तविक परिणाम के बीच के अंतर के बारे में सोचें. जहां किसी को भी इस बड़े लक्ष्य से चूकने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा रहा है, वहीं बेबस उपभोक्ता महंगे कोयले के आयात के लिए अपनी जेब से भुगतान करने को मजबूर हैं.

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