क्या फरक्का बैराज के मसले पर ​नीतीश कुमार वाकई गंभीर हैं?

फरक्का बैराज का निर्माण जिस तरह राजनीतिक कारणों से किया गया था. उसी तरह की राजनीति अब इसे हटाने को लेकर हो रही है.

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फरक्का बैराज का निर्माण जिस तरह राजनीतिक कारणों से किया गया था. उसी तरह की राजनीति अब इसे हटाने को लेकर हो रही है.

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(फोटो: india-wris.nrsc.gov.in)

महज तीन-चार महीने के बाद बिहार फिर बाढ़ की चपेट में होगा. हर साल आने वाली बाढ़ ने पिछले साल दशकों बाद राजधानी पटना को भी अपनी चपेट में ले लिया था. तब पहली बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इसके कारणों की तह में जाने की जरूरत महसूस हुई थी.

उन्होंने आज़ादी के तुरंत बाद पश्चिम बंगाल में बनाए गए फरक्का बैराज को बिहार की बदहाली के लिए ज़िम्मेदार बताते हुए उसे हटाने की मांग की थी. क्योंकि ‘किसी भी पक्ष को इसका लाभ नहीं मिल रहा है’. इस साल गर्मी शुरू होने से पहले फिर वे इस मांग को जोर-शोर से उठा रहे हैं. संवैधानिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति द्वारा पहली बार ऐसी मांग की जा रही है. इसीलिए इसका विशेष राजनीतिक महत्व भी है. अब तक ऐसी मांग करने वालों को विकास विरोधी, देशद्रोही और पाकिस्तानी एजेंट तक बताया जा चुका है.

बिहार सरकार अपना पक्ष मजबूती से रखने के लिए 25-26 फरवरी को पटना में एक सेमिनार करने जा रही है. ‘जलपुरुष’ का तमगा लगाए राजेंद्र सिंह भी मंच की शोभा बढ़ाने वालों में शामिल होंगे. राजेंद्र सिंह को पानी के मुद्दे पर दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘स्टॉकहोम वाटर प्राइज’ मिल चुका है. तो क्या यह मान लिया जाए कि नीतीश इस मुद्दे पर संजीदा हैं? बिहार की बाढ़ का कारण वह जान गए हैं और इसका समाधान निकालने के प्रयास शुरू हो गए हैं? सेमिनार में फरक्का बैराज की उपयोगिता पर गंभीर चर्चा होगी? और कोई समाधान निकाल लिया जाएगा?

नीतीश की संजीदगी पर संदेह

नीतीश कुमार के राजनीतिक विरोधी ही नहीं, उनके सहयोगी और नदी घाटी परियोजनाओं के विशेषज्ञ व शोधकर्ताओं को भी सीएम नीतीश की संजीदगी पर संदेह है. क्योंकि, करीब 40 साल से ज्यादा समय तक बिहार में राजनीति करते हुए उन्होंने कभी जल-प्रबंधन की सरकारी योजनाओं पर सवाल नहीं उठाया. नदी घाटी परियोजनाओं के विशेषज्ञ इंजीनियर दिनेश मिश्र कहते हैं, ‘सेमिनार में शामिल होने के लिए मुझसे भी संपर्क किया गया था पर मैंने मना कर दिया. यदि उनके मंच पर जाकर मैं उनके खिलाफ कोई बात कहूंगा तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. उनका एजेंडा देखने के बाद मुझे लगा कि वहां सिर्फ अपनी वाहवाही के अलावा कुछ नहीं होगा.’

मिश्र बताते हैं, ‘राजेंद्र जी मेरे मित्र हैं. उनका मेरे पास उनका फोन आया था. फरक्का के पूरे मामले को वे समझना चाहते थे. मैंने अपनी बात उन्हें बता दी है. चाहें तो सेमिनार में उसे रख सकते हैं.’ बिहार में नदियों के जल-प्रबंधन पर विशेष शोध करने वाले और 1991 में प्रकाशित पुस्तक ‘जब नदी बंधी’ के संपादक रणजीव तो नीतीश कुमार की प्रतिबद्धता पर ही सवाल खड़े करते हैं. ‘जब नदी बंधी’ को बिहार में जल-प्रबंधन के व्यापक कुप्रभावों को उजागर करने वाली पहली पुस्तक माना जा सकता है.

वे कहते हैं, ‘राजेंद्र सिंह ने मुझसे उन लोगों की सूची मांगी थी. मैंने करीब 20 लोगों के नाम दिए थे. उनमें गंगा मुक्ति आंदोलन के नेता अनिल प्रकाश और विचारक-लेखक जया मित्रा जैसे नाम भी थे. ये लोग दशकों से इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं. शायद ही उनमें किसी को इस सेमिनार में बुलाया गया है.’ अनिल प्रकाश वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने करीब 35 साल पहले फरक्का बैराज की उपयोगिता पर सवाल उठाया था. यह अलग बात है कि तब राजधानी बाढ़-प्रभावित नहीं थी. लेकिन तब भी बिहार के 12-14 जिले हर साल बाढ़ की विभीषिका झेल रहे थे.

रणजीव कहते हैं, ‘ऐसे लोगों को नहीं बुलाया जाएगा जो नीतीश कुमार की हां में हां मिलाने वाले नहीं हैं. नीतीशजी को ऐसे लोग पसंद नहीं हैं जो उनसे काउंटर सवाल कर सकते हों. इसमें भी शक है कि वे वाकई मुद्दे को समाधान तक ले जाना चाहते हैं.’

हालांकि, अनिल प्रकाश को नीतीश से कोई शिकायत नहीं है. वे कहते हैं, ‘इस मुद्दे को उठाने वाले हर व्यक्ति को हमारा समर्थन है. मुद्दे को एक व्यक्ति भी संजीदगी से उठा रहा है तो उसके साथ खड़ा होने वाला ‘जीरो’ भी मूल्य बढ़ाने वाला ही होगा.’ (हालांकि यह ‘जीरो’ पर भी निर्भर है कि वह 1 के बाद खड़ा होता है या पहले.)

नीतीश क्यों उठा रहे हैं यह मुद्दा

केंद्र सरकार के ‘नमामि गंगे’ प्रोजेक्ट के सलाहकार दिनेश मिश्र मानते हैं कि नीतीश कुमार सिर्फ ‘पॉलीटिकल माइलेज’ लेने के लिए इस तरह की बात कर रहे हैं. अब बाढ़ आएगी तो वे कहेंगे कि हमने तो अपना काम कर दिया. केंद्र उनकी बात नहीं सुन रहा है तो वे क्या कर सकते हैं और जनता की नाराजगी को वे केंद्र सरकार की तरफ शिफ्ट कर देंगे.

रणजीव का मानना है कि फरक्का बैराज को समाप्त करने (डी-कमीशनिंग) जैसी गंभीर मांग को नीतीश कुमार जिस तरीके से उठा रहे हैं, उसका राजनीतिक उद्देश्य हो सकता है. संभव है कि वे ‘सेंटर-स्टेट कॉन्फ्लिक्ट’ पैदा करके कोई लाभ लेना चाह रहे हों.

केंद्र सरकार वाराणसी से हल्दिया तक नेशनल वाटर-वे (एनडब्ल्यू-1) परियोजना पर काम कर रही है. इसके लिए बिहार और उत्तर प्रदेश में कई जलाशय (रिजरवॉयर) और बनाए जाने हैं. नीतीश कुमार फरक्का के साथ-साथ उन पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं.

जवाब में भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी भी नीतीश को घेर रहे हैं. कहते हैं, केंद्र पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि बक्सर (बिहार) और यूपी में एनडब्ल्यू-1 के लिए कोई बैराज नहीं बनेगा. वर्ल्ड बैंक के तकनीकी सलाहकारों ने भी इससे इनकार किया है. यहां तक कि एनडब्लू-1 परियोजना के लिए नीतीश की सरकार ने भी अपनी मंजूरी दे रखी है. फिर विरोध क्यों?

तो क्या फरक्का बैराज कोई मुद्दा नहीं है?

फरक्का बैराज अपने निर्माण के समय से ही विवादों में रहा है. नदी घाटी परियोजनाओं के विशेषज्ञ इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य ने सबसे पहले इसकी उपयोगिता पर सवाल उठाया था. तब उन पर पाकिस्तानी जासूस होने के आरोप लगे. अंततः उन्हें अपनी नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य किया गया.

‘विंचिता’ पत्रिका में मई 1963 में प्रकाशित अपने लेख में कपिल भट्टाचार्य लिखते हैं कि ‘पश्चिम बंगाल के कांग्रेसी नेताओं ने जनमत को भ्रमित कर फरक्का परियोजना के लिए केंद्र पर दबाव डाला. विरोधियों ने भी मेरे तर्क को मान लिया था, लेकिन जनमत के डर से वे भी परियोजना के समर्थन में सरकार पर दबाव डालने लगे. एक समाचार पत्र के संपादकीय में मुझे पाकिस्तानी गुप्तचर घोषित किया गया.’

दरअसल, कपिल भट्टाचार्य ने बैराज के निर्माण से पहले ही भांप लिया था कि यह परियोजना फेल होने वाली है. बाद के वर्षों में न सिर्फ बंगाल बल्कि बिहार का बड़ा हिस्सा गैर-जरूरी परियोजना के दुष्परिणामों का भोक्ता रहा. भट्टाचार्य की एक-एक भविष्यवाणी सच साबित होती गईं.

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इस बैराज के कारण गंगा की गहराई प्रभावित हुई. हिमालय से निकलने वाली नदियों का पानी गंगा में मिलता है. पानी के साथ-साथ बड़े पैमाने पर गाद (सिल्ट) भी इसमें जमा होता रहता है. जब गंगा की अविरलता बनी हुई थी तब इसका बहाव सिल्ट को साफ करता रहता था. बांधों के कारण इसकी अविरलता प्रभावित हुई और गंगा उथली होती गई.

बिहार में कुछ स्थानों पर तो गंगा की तलहटी इसकी सहायक नदियों से ऊपर हो गई है. इससे बारिश में पानी का बहाव उल्टी दिशा में होने लगता है. इसी कारण पूरा बिहार बाढ़ की चपेट में आ जाता है. फरक्का बैराज ने बिहार की नदियों का मूल स्वरूप और स्वभाव बदल दिया है.

क्या बैराज को तोड़ देना ही समाधान?

रणजीव मानते हैं कि समस्या का समाधान सिर्फ फरक्का बांध को हटाकर या तोड़कर नहीं निकाला जा सकता है. यह नदियों की अविरलता बनाए रखने की संस्कृति में भरोसे का भी सवाल है. यह मुद्दा जितना राजनीतिक है उतना ही सामाजिक और सांस्कृतिक भी. नदियों को बाधित करने वाली जितनी भी परियोजनाएं हैं सब पर सवाल है.

गंगा और उसकी सहायक नदियों पर छोटे-बड़े करीब पौने दो सौ बांध बनाए जा चुके हैं. इसका दुष्परिणाम हम झेल रहे हैं. फरक्का पर सवाल खड़ा करना टिहरी पर सवाल करने से शुरू होना चाहिए. क्या नीतीशजी इसके लिए तैयार हैं?

दिनेश मिश्र कहते हैं कि फरक्का बैराज एक अंतर्राष्ट्रीय मामला है. जैसे ही हम उसे हटाने की बात कहेंगे तो बांग्लादेश संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) में चला जाएगा. और वहां भी कोई फैसला नहीं होना है, क्योंकि सभी देश अपने-अपने हितों के मद्देनजर पक्ष लेंगे. क्योंकि, इससे उनकी अपनी परियोजनाओं पर भी असर पड़ सकता हैं.

वे कहते हैं, मुख्य समस्या फरक्का बैराज के कारण गंगा की तलहटी में गाद जमा होना है. उसका उपाय ढूंढ़ा जाना चाहिए. सरकार को तो अभी यही पता नहीं है कि किस नदी में कितना गाद जमा है.

अगर नीतीश कुमार ऐसा मानते हैं कि बैराज के कारण नदी उथली हो रही है तो सबसे पहले मॉडल प्रोजेक्ट के रूप में बिहार की छोटी नदियों पर बनाए गए बांधों को तोड़कर देख लें. इसका क्या परिणाम होता है, इसका अंदाजा लगा लें. इसके लिए उन्हें किसने रोका है?

बेवजह नहीं विशेषज्ञों की चिंता

विशेषज्ञ चिंतित हैं कि आने वाले पचास सालों में अगर ‘सिल्टरेशन’ (गाद जमा होने) की समस्या का कोई समाधान नहीं ढूंढ़ा गया तो नदी ऐसा स्वयं ऐसा कर लेगी. तब होने वाली तबाही का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है.

तब गंगा स्वयं रास्ता बदलेगी या फरक्का बैराज तोड़ेगी, कोई नहीं जानता. हम फरक्का बैराज नहीं तोड़ सकते पर, नदी तो ऐसा कर ही सकती है. वह इस बात से दुखी हैं कि इस मसले पर कोई गंभीरता से बात करने को भी तैयार नहीं है. इसका समाधान राजनीति को दूर रखकर ही निकाला जा सकता है.

लेकिन, जिस तरह फरक्का बैराज का निर्माण राजनीतिक कारणों से किया गया था. उसी तरह की राजनीति अब इसे हटाने या रोकने को लेकर हो रही है.

जनता पिछले साठ सालों में प्रकृति-विरोधी विकास योजनाओं पर होने वाली राजनीति का असर झेल चुकी है. यह देखना बाकी है कि वही जनता अब और कितने सालों तक अपने प्रतिनिधियों को ऐसा करने का मौका देती रहेगी.