केंद्र सरकार का दस लाख नौकरियों का वादा: झांसा या 2024 के लिए चुनावी पासा

अगर मोदी सरकार हर साल दो करोड़ नौकरियां देने के 2014 के लोकसभा चुनाव के अपने वादे पर ईमानदारी से अमल करती, तो इन आठ सालों में सोलह करोड़ युवाओं को नौकरियां मिल चुकी होतीं! अब एक ओर बेरोज़गारी बेलगाम होकर एक के बाद एक नए कीर्तिमान बना रही है, दूसरी ओर उसके प्रति सरकार की ‘गंभीरता’ का आलम यह है कि समझ में नहीं आता कि उसे लेकर सिर पीटा जाए या छाती.

//
(फोटो: रॉयटर्स)

अगर मोदी सरकार हर साल दो करोड़ नौकरियां देने के 2014 के लोकसभा चुनाव के अपने वादे पर ईमानदारी से अमल करती, तो इन आठ सालों में सोलह करोड़ युवाओं को नौकरियां मिल चुकी होतीं! अब एक ओर बेरोज़गारी बेलगाम होकर एक के बाद एक नए कीर्तिमान बना रही है, दूसरी ओर उसके प्रति सरकार की ‘गंभीरता’ का आलम यह है कि समझ में नहीं आता कि उसे लेकर सिर पीटा जाए या छाती.

(फोटो: रॉयटर्स)

अब, जब 2024 में नया जनादेश प्राप्त करने की मजबूरी सिर्फ दो साल दूर रह गई है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ ऐसा जता रहे हैं, जैसे सोते-सोते अचानक जाग उठे हों! लेकिन विडंबना यह कि उनका यह जाग उठना भी देश को रास नहीं आ रहा और वह आश्वस्त अनुभव करने के बजाय नए-नए उद्वेलनों के हवाले हुआ जा रहा है.

इसे यूं समझ सकते हैं कि बढ़ती बेरोजगारी को लेकर निरंतर आलोचनाओं की शिकार उनकी सरकार द्वारा अचानक अगले डेढ़ साल में दस लाख नई सरकारी भर्तियों का ऐलान भी सवालों के घेरे में आने से नहीं बच सका है.

लोगों में आम धारणा है कि यह ऐलान इस बात को लेकर कि यह सरकार हमेशा हिंदू-मुसलमान ही करती रहती है और जनता में सांप्रदायिक विभाजन की संभावनाओं पर इस कदर निर्भर करती है कि रोजी-रोजगार के सवालों को संबोधित करने की जरूरत ही महसूस नहीं करती, कठघरे में खड़ी किए जाने के बाद डैमेज कंट्रोल की कोशिशों का ऐसा हिस्सा है, जिसकी शिगूफे से ज्यादा अहमियत नहीं.

इस धारणा के कारण भी साफ हैं. यह सरकार हर साल दो करोड़ नौकरियां देने के अपने 2014 के लोकसभा चुनाव के वादे पर ईमानदारी से अमल करती, पकौड़े तलने को भी रोजगार बता डालने वाले इमोशनल अत्याचार की तर्ज पर नहीं, तो उसके अब तक के आठ सालों में सोलह करोड़ युवाओं को नौकरियां मिल चुकी होतीं और 2024 के लोकसभा चुनाव तक यह संख्या बढ़कर बीस करोड़ हो जाती.

युवाओं को इतनी बड़ी संख्या में नौकरियां मिल जातीं तो उनकी बेरोजगारी का ग्राफ इतना नीचे गिर जाता कि वह किसी बड़ी सामाजिक आर्थिक चिंता का सबब ही नहीं रह जाती.

लेकिन एक ओर बेरोजगारी बेलगाम होकर एक के बाद एक नए कीर्तिमान बना रही है, दूसरी ओर उसके प्रति सरकार की ‘गंभीरता’ का आलम यह है कि समझ में नहीं आता कि उसे लेकर सिर पीटा जाए या छाती.

वित्त वर्ष 2022-23 का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ‘मेक इन इंडिया’ के तहत पांच सालों में साठ लाख नई नौकरियों का वादा किया और ‘आत्मनिर्भर भारत’ के तहत दी जाने वाली नौकरियों को इनके अतिरिक्त समझा जा रहा था, जबकि मोदी मंत्रिमंडल की गत बैठक के बाद सूचना व प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने अगले डेढ़ साल में दस लाख नई भर्तियों की बात कही तो दावा किया कि प्रधानमंत्री ने इसके लिए सरकारी विभागों और मंत्रालयों से मिशन मोड में काम करने को कहा हैं.

सवाल है कि यह कैसा मिशन मोड है, जो दो करोड़ नौकरियां हर साल देने के चुनावी वादे की कौन कहे, पांच साल में साठ लाख नौकरियों के बजट के वादे की बराबरी भी नहीं कर पाता! उसकी बराबरी करने के लिए भी डेढ़ साल में दी जाने वाली इन नौकरियों को दस से बढ़कर अठारह लाख होना होगा.

तिस पर बात इतनी-सी ही नहीं है. डेढ़ साल में जिन दस लाख भर्तियों की घोषणा की गई है, अभी तक यह भी साफ नहीं है कि उनमें से कितनी भर्तियां पहले से रिक्त पदों पर होंगी, कितनी नए पद सृजित करके, कितनी स्थायी होंगी, कितनी अस्थायी और भर्ती होने वालों को किन शर्तों पर कितना वेतन मिलेगा?

अकारण नहीं कि प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस इसे नौकरियों के बजाय नौकरियों का झांसा बता रही और प्रधानमंत्री को ऐसे झांसों का एक्सपर्ट बता रही है. खुद प्रधानमंत्री की पार्टी के सांसद वरुण गांधी इस ऐलान के लिए उन्हें ‘धन्यवाद’ देते हुए याद दिला रहे हैं कि उनकी सरकार के अधीन कितनी बड़ी संख्या में स्वीकृत पद खाली हैं. यकीनन, उन पदों पर ही भर्तियां कर ली जाएं, तो बेरोजगार युवाओं का दर्द कम होने में बड़ी मदद मिल जाए.

लेकिन ऐसा हो कैसे, जब सरकार, कहे कुछ भी, रोजगार प्रदाता की अपनी भूमिका ही लगातार सीमित करती जा रही है. क्या वह कह सकती है कि हर साल निश्चित अनुपात में सरकारी पदों की संख्या में कटौती की नीति पर नहीं चल रही है? इस नीति के रहते भला यह कैसे हो सकता है कि वह नई नौकरियां देने के अपने वादे पर ईमानदारी से अमल कर सके और बेरोजगारों की नजर में विश्वसनीय बन सके?

दरअसल, बड़ी संख्या में रोजगार देने और लाभ अर्जित करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की एक के बाद एक बिक्री से इस सरकार के नौकरी व रोजगार संबंधी वादे इतने अविश्वसनीय हो चले हैं कि एक कार्टूनिस्ट ने अपने कार्टून के पात्र से यहां तक कहलवा दिया है कि ‘मालिक ये दस लाख नौकरियां उन कंपनियों में दीजिए, जो कल बेच देनी हैं.’

तिस पर यह अंदेशा भी हैं कि जब तक दस लाख नौकरियां देने की यह डेढ़ साल की अवधि खत्म होगी, 2024 के लोकसभा चुनाव सिर पर होंगे और सरकार अपने कृत्रिम आंकड़ों की बिना पर यह लक्ष्य पा लेने के भरपूर प्रायोजित प्रचार के साथ इमोशनल अत्याचार वाले दूसरे सांप्रदायिक व विभाजनकारी मुद्दों की ओर बढ़ जाएगी. फिर?

देश की सेनाओं की बात करें तो उनमें कोरोनाकाल के पूर्व से ही भर्तियां रुकी हुई हैं. लेकिन सरकार ने इन भर्तियों के लिए जी-जान लगा रहे युवाओं के अरमानों पर पानी फेरते हुए ‘अग्निपथ’ नामक प्रकल्प के तहत ‘अग्निवीरों’ की भर्तियों की अजीबोगरीब योजना उनके आगे कर दी है.

जानकार इसे सेना में भी ठेकेदारी प्रथा की शुरुआत बता रहे हैं. इसके तहत तीनों सेनाओं में 17.5 से 21 साल की उम्र के 46,000 युवक-युवतियों की सीधी भर्ती की जो घोषणा की गई है, उसके अनुसार छह महीने का प्रशिक्षण लेकर वे ‘अग्निवीर’ बन जाएंगे और चार साल तक सेना में रहेंगे.

इस दौरान उन्हें 30,000 से 40,000 रुपये महीना वेतन, कई तरह के भत्ते और मेडिकल व बीमा आदि की सुविधाएं मिलेंगी. लेकिन चार साल बाद इनमें से 25 प्रतिशत को ही सेना के सामान्य कैडर में शामिल किया जाएगा और शेष 75 प्रतिशत को सेना छोड़ देनी पड़ेगी. सेना छोड़ते समय उन्हें 11.71 लाख का टैक्स फ्री सेवा निधि पैकेज तो दिया जाएगा, पेंशन नहीं.

इसका कारण यह बताया जा रहा है कि अभी देश के कुल रक्षा बजट में से आधा वेतन व पेंशन पर ही खर्च हो जाता है. इसलिए अब सरकार चाहती है कि इस खर्च को घटाकर सेना के लिए हथियारों की खरीद और आधुनिकीकरण पर खर्च बढ़ाए. जाहिर है कि अब उसको दूसरे कर्मचारियों की तरह सैनिकों की पेंशन भी बोझ लगने लगी है.

जानकारों को उसके अग्निपथ प्रकल्प में इमोशनल अत्याचार के अलावा भी कई पेंच दिख रहे हैं. मसलन, अभी सेना में भर्ती के लिए जैसे सख्त प्रशिक्षण की व्यवस्था है, उसके साथ किसी भी प्रकार का समझौता उसकी दक्षता के साथ समझौता होगा.

सवाल स्वाभाविक है कि सरकार ऐसे समझौते की दिशा में क्यों बढ़ रही है? क्या इससे सैनिकों के अंदर विभाजन नहीं पैदा होगा? खासकर, जब उनमें से कुछ पूरे प्रशिक्षण वाले होंगे और कुछ आधे? जिन सैनिकों पर चार साल बाद सेना से अलग कर दिए जाने की तलवार लटक रही होगी, उनकी और जिन पर यह तलवार नहीं लटक रही होगी, अपने कर्तव्य के प्रति उनका समर्पण क्या एक जैसा हो पाएगा?

अगर नहीं तो क्या सेना को ऐसे अजब-गजब प्रकल्प से बख्श देना ज्यादा अच्छा नहीं होता, खासकर जब सरकार के पास इसे लेकर उद्वेलित  युवाओं के इस सवाल का भी तर्कसंगत जवाब नहीं है कि चार साल की छोटी-सी अवधि सेना में बिताकर निकाल दिए जाने के बाद वे क्या करेंगे?

यही कारण है कि निराश युवा कई दिनों से प्रदर्शनों में सड़क जाम, हिंसा, पथराव और तोड़फोड़ से लेकर ट्रेनें जलाने तक पर उतरे हुए हैं, लेकिन चूंकि सरकार ने उन्हें या देश को विश्वास में लिए बिना ही उन्हें अग्निपथ पर चलाने का फैसला किया है, इसलिए उसे हालात से निपटने की कोई राह नहीं सूझ रही.

पहले उसने कहा कि ये युवा अपने लिए बेहद हितकारी अग्निपथ प्रकल्प को समझ ही नहीं पा रहे. वैसे ही जैसे उसने कहा था कि किसान उसके तीनों कृषि कानूनों को और अल्पसंख्यक नागरिकता संशोधन कानून को नहीं समझ पाए हैं. नोटबंदी को लेकर तो उसने उससे असहमत अर्थशास्त्रियों तक पर न समझ पाने की तोहमत जड़ दी थी.

लेकिन इससे बात नहीं बननी थी और वह नहीं बनी, तो युवाओं को अग्निपथ के तहत पहली भर्ती के लिए आयु सीमा में छूट और चार साल बाद सेना से निकाले जाने पर रक्षा मंत्रालय व केंद्रीय पुलिसबलों में भर्ती में दस प्रतिशत आरक्षण देने के ऐलानों पर उतर आई है.

दूसरी ओर युवाओं की प्रदर्शनों में संलिप्तता के चलते अग्निपथ के तहत भर्ती में भी पुलिस वेरीफिकेशन में बाधा आने और मौका गंवाने का डर दिखाया जा रहा है. सरकार के इन आपात कदमों से और कुछ सिद्ध होता हो या नहीं, यह साफ होता है कि अग्निपथ के ऐलान से पहले उसने उसके सारे पहलुओं व संभावित स्थितियों का सम्यक आकलन नहीं किया.

काश, अभी भी वह समझ पाती कि अब हालात उस मोड़ पर जा पहुंचे हैं, जहां बड़ा सवाल यह नहीं कि आंदोलित युवा ‘अग्निपथ’ प्रकल्प को समझ पाए हैं या नहीं. इससे कहीं बड़ा सवाल अब यह है कि सरकार के पास इस बड़े देश को सामाजिक, आर्थिक, सांप्रदायिक व धार्मिक उद्वेलनों के पार ले जाने की कोई सुविचारित नीति है भी या नहीं? नहीं है तो उसे बनाने के बजाय वह हमेशा छलों, भुलावों और सब्जबागों के साथ ही सामने क्यों आती रहती है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25