ताजमहल से नफ़रत ऐसे बर्बर युग में ले जाएगी जहां से हम बहुत पहले निकल चुके हैं

ताजमहल को कलंक बताने वालों को समझ नहीं आता कि इतिहास के 800 साल हटाने पर हिंदुस्तान में जो बचेगा, वह अखंड नहीं बल्कि खंडित भारत होगा.

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(फोटो साभार: रॉयटर्स)

ताजमहल को कलंक बताने वालों को समझ नहीं आता कि इतिहास के 800 साल और आज की आबादी से 20 करोड़ की जनसंख्या हटाने पर हिंदुस्तान में जो बचेगा, वह अखंड नहीं बल्कि खंडित भारत होगा.

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने गुरुवार को ताजमहल का दौरा किया. (फोटो: twitter/@CMOfficeUP)

यूपी के भाजपा विधायक संगीत सोम ने कहा है कि ताजमहल भारतीय संस्कृति पर कलंक है, इसे गद्दारों ने बनवाया. इसी दौरान केरल से केंद्र में केंद्रीय मंत्री बने अलफोंस कन्ननथानम ने कहा कि ताजमहल भारत का गौरव है.

कुछ और भाजपा नेताओं ने कहा कि ताजमहल ऐतिहासिक इमारत तो है लेकिन भारतीय संस्कृति की पहचान नहीं है. अब इनमें से कौन सही है? ये सभी कानून के निर्माता और रखवाले हैं. आधुनिक युग में मध्यकाल का हिसाब करके संस्कृति की व्याख्या करने चले इन लोगों को अवश्य ही संस्कृति का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए.

जामिया मिलिया के अध्यापक रह चुके दर्शनशास्त्री और पद्म भूषण एस आबिद हुसैन की पुस्तक ‘भारत की राष्ट्रीय संस्कृति’ की भूमिका (20 अप्रैल, 1955) पूर्व राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन ने लिखी है.

इस भूमिका में राधाकृष्णन आबिद हुसैन के तर्कों की चर्चा करते हुए लिखते हैं, ‘भारत का हज़ारों वर्षों का सांस्कृतिक इतिहास दर्शाता है कि एकता का सूक्ष्म किन्तु मजबूत धागा, जो उसके जीवन की अनंत विविधताओं में से होकर जाता है, सत्ता समूहों के ज़ोर देने या दबाव के कारण नहीं बुना गया, बल्कि भविष्य दृष्टाओं की दृष्टि, संतों की चेतना, दार्शनिकों के चिंतन और कवि कलाकारों की कल्पना का परिणाम है, और केवल ये ही ऐसे माध्यम हैं जिनका राष्ट्रीय एकता को व्यापक, मज़बूत तथा स्थायी बनाने में उपयोग किया जा सकता है.’

राधाकृष्णन लिखते हैं, ‘धर्म निरंतर परिवर्तित होते रहने वाला अनुभव है. यह कोई दैवी सिद्धांत नहीं है. यह एक आध्यात्मिक चेतना है. हम धर्म और विज्ञान के संबंध में मतभेद व्यक्त कर सकते हैं किंतु तथ्यों से इनकार नहीं कर सकते.’

राधाकृष्णन दो उदाहरण पेश करते हुए कहते हैं, ‘अशोक राक एडिक्ट (पाषाण शिलालेख)-xii में अंकित है, वह व्यक्ति जो अपने धर्म का सम्मान करता है, दूसरों के अपने धर्म के प्रति निष्ठावान रहने की निंदा करता है और दूसरे धर्मों की तुलना में अपने धर्म को श्रेष्ठ बताता है, वह निश्चित ही अपने स्वयं के धर्म का अहित करता है. वास्तव में दो धर्मों के बीच सामंजस्य ही श्रेष्ठ है.’

इसी तरह सदियों बाद अकबर ने व्यक्त किया, ‘विभिन्न धार्मिक समुदाय ईश्वर द्वारा हमें सौंपे गए दैवी खजाने हैं. हमें उसी रूप में उनसे प्रेम करना चाहिए. हमारा यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि प्रत्येक धर्म एक ईश्वरीय देन है. शाश्वत नियंता सभी मनुष्यों पर बिना किसी भेदभाव के प्रेम की वर्षा करता है.’

उन्होंने कहा, ‘यही सिद्धांत है जो हमारे संविधान में समाहित है जो सभी को अपने धार्मिक विश्वासों और अनुष्ठानों को व्यवहार में लाने और प्रचार करने की तब तक स्वतन्त्रता देता है, जब तक वह नीतिपरक भावों के विपरीत नहीं होता. हम उस समान आधार को मान्यता देते हैं जिस पर विभिन्न धार्मिक परंपराएं अवलंबित हैं. हम सब एक अनदेखी ईश्वरीय संस्था के सदस्य हैं, चाहे भले ही ऐतिहासिक कारणों से, इस या उस विशेष धार्मिक समुदाय के सदस्य बन गए हों.’

अगर हम मुग़ल अकबर को कलंक या गद्दार कहेंगे तो उनको कोट करने वाले एस राधाकृष्णन का क्या करेंगे?

यह देश अकबर के राजदंड और तानसेन की सुर लहरियों से बना है. यह देश मुग़ल शासन में आकार ले रहे रामचरित मानस से बना है. यह देश उसी दौर में धार्मिक कर्मकांड के अब तक सबसे मुखर आलोचक कबीर की धारदार लेखनी से बना है.

यह देश मंगल पांडेय की बगावत और बहादुर शाह ज़फर की क़ुरबानी से बना है. यह देश गांधी से साथ सीमांत गांधी अब्दुल गफ़्फ़ार खां, भगत सिंह के साथ अशफ़ाक़ उल्ला खां के संघर्ष और क़ुरबानी से बना है. संगीत सोम जैसे नेताओं से संस्कृति का पाठ पढ़ने की तो कतई ज़रूरत नहीं है जो चुनाव जीतने के लिए एक पूरे ज़िले को जहन्नुम में तब्दील कर देने में संकोच नहीं करते.

इतिहास की किताबों के तथ्य कहते हैं कि जिस दौर में भारत इस्लाम आया, उसी दौर में शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन पनपा, जो हिंदू ज्ञान मार्ग की व्याख्या है. उसी दौर में भक्ति मार्ग पनपा, रामानुज अलवर और अड्यार आदि चिंतकों ने जिसका प्रतिनिधित्व किया.

ताराचंद जैसे इतिहासकार मानते हैं कि इन सुधार आंदोलनों पर इस्लाम का प्रभाव था. उसी दौर में अरब में ख़लीफ़ा मंसूर के शासन काल में हिंदू विद्वान बगदाद गए और अपने साथ हिंदू ग्रंथ ले गए जिसका अल फाजरी ने पंडितों की मदद से अनुवाद कराया. बाद में बहुत से ग्रंथ संस्कृत से अरबी में अनुदित हुए. क्या संगीत सोम इस इतिहास को और इसकी सब निशानियां कलंक मानते हैं?

मुसलमान शासन के दौर में ही मुसलमान सूफियों और हिंदू संतों की भक्तिधारा पनपी. रामानंद, उनके शिष्य तुलसीदास, कबीर, गुरु नानक इसी युग की देन हैं.

जौनपुर के सुल्तान हुसैन शारकी को हिंदुस्तानी शास्त्री संगीत के ख्याल विधा का प्रवर्तक माना जाता है जो आज भी शास्त्रीय गायकों में सबसे लोकप्रिय विधा है.

बंगाल के राजा अलाउद्दीन हुसैन शाह और उनके पुत्र नुसरत शाह के संरक्षण में संस्कृत से गीता और महाभारत समेत तमाम ग्रंथों का बंगाली में अनुवाद हुआ, बंगाली भाषा को संरक्षण दिया गया, जिसने उन्हें खूब लोकप्रिय बनाया. क्या यह सब मिटाया जाएगा?

इतिहास में हमेशा तमाम अप्रिय चीजें होती हैं, जिनसे हम भविष्य के प्रति होशियार होते हैं. संघ परिवार मध्ययुगीन बर्बरता को आज की पीढ़ी पर थोप कर भारत को बहुसंख्यकवाद की आग में झोकना चाहता है. संगीत सोम उसी परियोजना के झंडाबरदार हैं. उन्हें खुद भी पता है कि इतिहास के शरीर से सिर या पैर काट दिया जाए तो इतिहास अपाहिज हो जाएगा.

आपको मुग़लों से दिक्कत है तो मुग़लों के सेनापति और सैनिक राजपूतों का क्या करेंगे? आपको मुग़ल बादशाहत से नफ़रत है तो लाल किला और ताजमहल का क्या करेंगे?

आपको अकबर से दिक्कत है तो जोधाबाई का क्या करेंगे? मध्ययुग के किसी शासक या उस युग की प्रवृत्ति से दिक्कत हो सकती है, लेकिन हिंदुस्तान की धरती और इस पर बचे तमाम निशानात हमें उस कालखंड की बुराइयों और बर्बरताओं के प्रति सचेत करते हैं.

लाल किला और ताजमहल से नफ़रत हमें एक ऐसे बर्बर युग में ले जाएगी, जहां से हम बहुत पहले निकल कर आधुनिक कल्याणकारी राष्ट्र राज्य में प्रवेश कर चुके हैं.

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भाजपा विधायक संगीत सोम (फाइल फोटो: पीटीआई)

आपको मध्य काल यानी मुगल काल से दिक्कत है? फिर हम अमीर खुसरो का क्या करेंगे? क्या हम तानसेन और अमीर खुसरो को हिंदू मुसलमान में बांटेंगे? या हम उनको हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दो युगों के रूप में देखेंगे?

हम हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का इतिहास पढ़ते हैं कि वह आदिदेव शंकर के डमरू से निकला था, जिसे नारद ने सुना. उन्होंने गंधर्वों को सिखाया और गंधर्वों से यह आम जनमानस में फैला.

तो क्या गंधर्व विद्या यानी भारतीय शास्त्रीय संगीत इसलिए त्याज्य है क्योंकि उससे अमीर खुसरो से लेकर 21वीं सदी तक दर्जनों मुस्लिम कलाकारों का नाम जुड़ा है?

मुग़लों और मुस्लमानों के कारण हम शंकर, नारद, गंधर्व, ऋषियों, मुनियों और आम जनमानस में से किसे खारिज कर देंगे?

ऐतिहासिक तथ्यों में मौजूद अमीर खुसरो को कैसे नजरअंदाज करें जहां से हिंद और हिंदवी के लिखित तथ्य मौजूद हैं? उनकी पहेलियां, मुकरियां, उनके दोहे, छंद, उनके राग, उनके द्वारा अविष्कृत साज़ों को कैसे नज़रअंदाज़ करें? हम कथित विकास की विभाजनकारी राजनीति की मानें या इतिहास के तथ्यों को?

कुछ समय पहले अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी के रामलीला में अभिनय करने का विरोध किया गया था. आपको नवाजुद्दीन सिद्दीकी से दिक्कत है? फिर दिलीप कुमार क्या करेंगे? आपको फवाद खान, सलमान खान से दिक्कत है तो राही मासूम रज़ा और जावेद अख्तर का क्या करेंगे?

आपको मुसलमान शब्द से परहेज है तो राही के लिखे ऐतिहासिक सीरियल रामायण और महाभारत का क्या करेंगे? लगभग सारे अच्छे भजन कंपोज़ करने वाले साहिर, नौशाद और मोहम्मद रफ़ी का क्या करेंगे?

यदि आपको गुलाम अली, नुसरत फतेह अली खान, मेहदी हसन, तसव्वुर खानम, फैज़ और फ़राज़ से भी दिक्कत है, तो बड़े गुलाम अली खां, गालिब, मीर, जौक, खुसरो, अल्ला रक्खां, बिस्मिल्ला खान, राशिद खान, शुजात खान, एआर रहमान का क्या करेंगे?

हिंदुस्तानी संगीत की विरासत को आगे बढ़ाने वालों में मुस्लिम उस्तादों की बहुतायत है, जो राम, कृष्ण और दुर्गा के भजन गाते हैं, साथ ही साथ उर्दू गजलें, कव्वालियां गाकर संगीत परंपरा को आगे बढ़ाते रहे हैं.

हालांकि, वे सिर्फ जन्मना मुसलमान हैं और एक से एक महान लोग हैं. वैसे भी, हिंदू हो या मुसलमान, घृणा से भरा मनुष्य कलाकार हो नहीं सकता. महान कलाकार होना धार्मिक हदबंदियों को तोड़कर उससे आगे निकलने का नाम है. जो इसे नहीं समझते, उन्हें संस्कृति का ठेका कतई नहीं दिया जा सकता.

भारत का साहित्य, संगीत, कला और पूरा समाज बहुधार्मिक समन्वय का वैश्विक उदाहरण है और दुनिया में बहुप्रशंसित है. तमाम धर्मों, बोलियों, भाषाओं और पहचान वाले इस विविध भारत से किसको दिक्कत है.

आबिद हुसैन ने अपनी पुस्तक की भूमिका में 1956 में लिखा है, ‘हमारे नए प्रजातंत्र को एकमात्र ख़तरा, जो देखने वाले को सामान्य लगता है, लेकिन बड़ा ख़तरा है, यह है कि भारतीय राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय संस्कृति, सूक्ष्मता से संतुलित बनाई गई विविधता में एकता की पद्धतियां हैं और यदि यह संतुलन सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान में ग़लत व्यवहार से टूटता है तो भयानक विघटन की स्थिति आ सकती है, जिससे न केवल प्रजातांत्रिक पद्धति का बल्कि समस्त शांति और व्यवस्था का अंत हो जाएगा. और कठिनाई से प्राप्त की गई हमारी आज़ादी आंतरिक या वाह्य तानाशाही शक्तियों के द्वारा समाप्त कर दी जाएगी.’

भारत की ताक़त तमाम समुदायों में समान सुरक्षा की भावना में निहित है. यह याद रखना चाहिए कि तमाम भारतीय भाषाओं और क्षेत्रीय संस्कृति की क़ीमत पर अगर राष्ट्र निर्माण की कोशिश की जाएगी तो विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों में विरोध पनपेगा, जो आज़ाद भारत की अखंडता और एकता को नष्ट कर देगा.

हाल ही में दक्षिणी राज्यों में हिंदी को ठूंसने की कोशिश हुई तो सोशल मीडिया पर द्रविड़नाडु की चर्चा चली.

हाल में मौजूदा सरकार पर तंज करते हुए सोशल मीडिया पर एक जुमला खूब चला कि विकास पगला गया है. विकास को यह नहीं समझ में आता कि इतिहास के 800 साल और आज की आबादी से 20 करोड़ जनसंख्या हटा देंगे तो हिंदुस्तान में जो कुछ बचेगा, वह अखंड भारत के नारे लगाने वालों का खंडित भारत होगा. क्या विकास वाकई पगला गया है?

कम से कम सोशल मीडिया पर पागल घोषित हो चुके ताजमहल विरोधी विकास की अपेक्षा सम्राट अकबर का मित्र अबुल फ़ज़ल ज़्यादा समझदार था जो मध्यकाल में आईने-अकबरी में लिख रहा था- ‘राजा को सभी धार्मिक मतभेदों से ऊपर रहना चाहिए और यह ध्यान देना चाहिए कि धार्मिक निर्णय कर्तव्य के मार्ग में बाधक न बनें, जिसके लिए वह प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समुदाय के प्रति ऋणी है. उसकी आत्मीयतापूर्ण सहायता से प्रत्येक को सुख और शांति प्राप्त होनी चाहिए जिससे ईश्वर की छाया द्वारा प्रदत्त लाभ सार्वलौकिक बने.’

पागल हो चुका विकास कभी उन्माद में आकर ताजमहल ढहा भी दे, जैसा कि आज़म खान ने फ़रमाया, तो वह घटना भी भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास पर बाबरी ध्वंस की तरह एक कलंक से ज़्यादा कुछ नहीं होगी.

मध्यकाल के राजाओं से हिसाब बराबर करने के लिए आज के नागरिकों, इमारतों, पहचानों, संस्कृतियों और समुदायों पर ज़ुल्म करने का कृत्य बर्बरता को भी शर्मसार करता दिखता है.

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