अग्निपथ एक मार्केटिंग झांसा है, जहां नौकरियां ख़त्म करने को रोज़गार सृजन बताया जा रहा है

किसी ग़रीब के लिए सैनिक बनना बुनियादी तौर पर दो वक़्त की रोटी से जुड़ा एक वास्तविक और कठोर सवाल है, जो देश की सेवा करने के मध्यवर्गीय रोमांटिक विचार से अलग है.

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17 जून 2022 को धनबाद में अग्निपथ योजना के विरोध में रेलवे ट्रैक पर बैठे युवा. (फाइल फोटो: पीटीआई)

किसी ग़रीब के लिए सैनिक बनना बुनियादी तौर पर दो वक़्त की रोटी से जुड़ा एक वास्तविक और कठोर सवाल है, जो देश की सेवा करने के मध्यवर्गीय रोमांटिक विचार से अलग है.

17 जून को धनबाद में रेलवे ट्रैक पर अग्निपथ योजना के विरोध में बैठे युवा. (फोटो: पीटीआई)

अग्निपथ योजना को यूं तो युवाओं को भारत माता की सेवा करने का मौका देने वाली देशभक्त रोजगार योजना के तौर पर पेश किया है, लेकिन वास्तव में यह नौकरी देने की नहीं, नौकरी से बाहर निकालने की योजना है, जो भारत के बेरोजगारों को चोट पहुंचाती है और राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौता करती है.

हर साल सेना में होने वाली करीब 40,000 सैनिकों की खुली भर्ती अब से अग्निपथ योजना के तहत की जाएगी. दोनों में बड़ा अंतर यह है कि चार साल के बाद भर्ती किए गए सिर्फ 10000 रंगरूटों को ही सेवा विस्तार दिया जाएगा और बचे हुए 30,000 जवानों को निर्ममता के साथ नौकरी से निकाल दिया जाएगा.

यह योजना राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ भी समझौता करती है, क्योंकि भारतीय सेना बीतते हुए वर्षों के साथ ऐसी सेना पर निर्भर होती जाएगी, जिसमें कम प्रशिक्षित, ठेके पर बहाल किए गए सैनिकों की प्रमुखता होगी. लेकिन इसके बावजूद नौकरी पर कैंची चलाने वाली इस योजना को रोजगार के एक शानदार मौके के तौर पर पेश किया जा रहा है.

और तो और आलम यह है कि विभिन्न सरकारी महकमों में लंबे समय से खाली 10 लाख पदों पर आंशिक भर्तियों को भी नए रोजगार सृजन के तौर पर दिखाया जा रहा है. और दोनों ही घोषणाएं साथ में की गई हैं- कुछ इस तरह से मानो प्रधानमंत्री ने बेरोजगारी के खिलाफ किसी जंग का ऐलान कर दिया है, जबकि दरहकीकत यह नौकरियों पर हमला है.

सच्चाई यह है कि अग्निपथ योजना के पीछे के व्यापक आर्थिक मकसदों और इसके सामाजिक नतीजों को आम जनता इसके पूरेपन में अभी तक समझ नहीं पाई है, लेकिन इस योजना का तात्कालिक और प्रत्यक्ष परिणाम, जो 21 साल से ज्यादा उम्र के उम्मीदवारों के लिए सेना के दरवाजे बंद करता है और सेना में भर्ती होने वाले 75 फीसदी जवानों को बगैर किसी पेंशन लाभ के बेरोजगार बना देता है, लोगों के गुस्से के फूटने के तौर पर निकला है, जो भर्ती के लिए बुलावे का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे.

सरकार ने सड़कों पर फूटे गुस्से की प्रतिक्रिया में इस साल अधिकतम आयु में दो साल की छूट देते हुए उसे 23 साल कर दिया है, लेकिन इससे उस आग को बुझाना मुमकिन नहीं है, जो इस योजना ने लगाई है, क्योंकि यह इस बुनियादी सवाल का कोई जवाब नहीं देती है कि नए भर्ती होने वाले जवानों का चार साल के बाद भविष्य क्या होगा?

अंतहीन अग्निपरीक्षा

बिहार, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों- जहां बेरोजगारी के दंगे भड़क उठे- में नौकरी का एक बड़ा स्रोत भारतीय सेना और रेलवे है. इसके अलावा यहां के युवा अनौपचारिक क्षेत्रों में नौकरी के लिए पश्चिमी और दक्षिणी राज्यों में प्रवास करते हैं. इस तरह, किसी गरीब के लिए एक सैनिक बनना बुनियादी तौर पर दो वक्त की रोटी से जुड़ा एक वास्तविक और कठोर सवाल है, जो देश की सेवा करने के मध्यवर्गीय रोमांटिक विचार से अलग है.

अग्निपथ का धक्का रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड द्वारा योग्यता मानदंड में बदलाव करने के महीनों बाद आया है, जिसने रेलवे के लाखों अभ्यर्थियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. ऐसे में जबकि इन क्षेत्रों में नौकरी हासिल न कर पाने वालों को सहारा देने वाले कृषि और अनौपचारिक क्षेत्र पर नोटबंदी, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) और उसके बाद कोविड-19 और मोदी द्वारा लगाए गए लॉकडाउन की भारी मार पड़ी है, उत्तर भारतीयों के लिए सेना ही नौकरी की आखिरी उम्मीद रह गई थी. लेकिन अग्निपथ योजना उनके सिर पर अप्रत्याशित आफत की तरह गिरी है.

भारत आज एक बहुत बड़े बेरोजगारी के संकट से गुजर रहा है और मोदी ने अपनी विनाशकारी आर्थिक नीतियों और अब नव-उदारवादी भर्ती नीतियों से इसे और गहराने का काम किया है. हालांकि, चुनाव के वक्त इस असंतोष को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और अंतिम समय में लाभार्थियों में रेवड़ियां बांटकर रफा-दफा कर दिया जाता है, लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा सरकार बुनियादी आर्थिक समस्याओं का समाधान करने में नाकाम रही है.

यही कारण है कि भाजपा की राज्य सरकारों द्वारा- वह भी युवाओं के असंतोष को भांपने के बाद- पुलिस नियुक्तियों में सेवानिवृत्त ‘अग्निवीरों’ को प्राथमिकता देने के वादों और सेना द्वारा उनकी सेवा समाप्ति के वक्त कौशल प्रमाणपत्र और यहां तक कि डिग्री देने का आश्वासन भी अभ्यर्थियों को आश्वस्त कर पाने में सफल नहीं हो पाया है.

रक्षा हितों के साथ समझौता

किसी भी नजरिये से देखें, यह पूरी योजना न्यूनतम जांच में भी उत्तीर्ण नहीं हो पाती, राष्ट्रीय सुरक्षा की तो बात ही अलग है. अगर इसका मकसद सेना को युवा बनाना है, तो अग्निपथ योजना इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाती है कि एक ऐसी सेना जिसके आधे जवान 2032 तक, जैसा कि लेफ्टिनेंट जनरल बीएस राजू ने कहा, ‘संक्षिप्त सेवा’ में होंगे, चुस्त-दुरुस्त और पेशेवर कैसे रह सकती है?

जैसा कि सेना के एक अन्य पूर्व अफसर ने कहा, भारतीय सेना एक ‘किंडरगार्डन’ बल बनकर रह जाएगी, जिसके ज्यादातर सैनिकों की सीखने या जोखिम का सामना करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं होगी.

दूसरी तरफ ये अग्निवीर- जिनके पास सिर्फ एक कौशल प्रमाणपत्र होगा, जिसका नागरिक जीवन में कोई उपयोग नहीं होगा- नौकरी से बाहर किए जाने के बाद अपना जीवनयापन कैसे करेंगे? सैन्य प्रशिक्षित, मगर हताशा से भरे बेरोजगार युवा समाज के लिए कैसे खतरे पैदा करेंगे और समाज को इनकी क्या कीमत चुकानी पड़ेगी? मोदी भारत को किस तरह की सामाजिक अराजकता में धकेल रहे हैं? ये सवाल वर्तमान निजाम के प्रति सहानुभूति रखने वाले सेना के सेवानिवृत्त अधिकारियों द्वारा भी उठाए गए हैं.

नव-उदारवादी चक्रव्यूह में नाउम्मीद अभिमन्यु

इस योजना से जो एकमात्र चीज होगी- और लगता है कि इस यह योजना उसी एकमात्र मकसद को पूरा करने के लिए बनाई गई है, वह बातों और वादों के बीच कहीं दबी हुई है.

जिस नव-उदारवादी राजकोषीय रूढ़िवाद से देश की आधिकारिक नीति संचालित हो रही है, उसी का अनुसरण करते हुए सरकार वेतन और पेंशन पर खर्च में कटौती करना चाहती है. करीब 5 लाख करोड़ के रक्षा बजट में 2.6 लाख करोड़ से ज्यादा वेतन और पेंशन पर खर्च होता है. राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (एफआरबीएम), 2003 जिसे वैश्विक निवेशकों के सामने भारत की ऋण पात्रता का प्रदर्शन करने के लिए बनाया गया था, केंद्र और राज्य सरकार पर राजकोषीय अनुशासन का पालन करने की जिम्मेदारी डालता है और राजस्व घाटे को घटाकर शून्य पर लाने और राजकोषीय घाटे को तीन फीसदी पर बनाए रखने के लिए कहता है.

व्यवहारिक तौर पर, इसका मतलब है कि सरकार को अपने राजस्व खर्चे को कम करना होगा और पूंजी पक्षधर सुधारों के लिए धन उपलब्ध कराने के लिए अपना राजस्व बढ़ाना होगा, वैश्विक पूंजी के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे पर पैसे खर्च करने होंगे.

हालांकि, विकासशील देशों में सरकारी खर्च वृद्धि, विकास और जीविकोपार्जन का एक प्रमुख स्रोत है,  लेकिन सरकार की भूमिका में तब्दीली लाकर इसकी भूमिका मददगार की बना दी गई और विकास का इंजन बनने और रोजगार सृजन का काम निजी पूंजी के हवाले कर दिया गया. हालांकि यह इस काम में नाकाम रही है, लेकिन नवउदारवादी रोजगार नीतियां- ठेकाकरण, निश्चित मियाद का रोजगार, सामाजिक लाभों से महरूम करना- सभी क्षेत्रों लागू की जा रही हैं.

सरकारी नौकरियां भी गुजरते वक्त के साथ ठेके वाली, अस्थायी और बिना पेंशन लाभों वाली हो गई हैं. अग्निपथ योजना के द्वारा इस नव-उदारवादी नीति को सेना में लागू कर दिया गया है, लेकिन सरकार इससे जुड़ी सामाजिक और राजनीतिक कीमत को समझने में नाकाम रही.

पूरी संभावना यही है कि भारत नोटबंदी, जीएसटी और 2020 में बिना किसी पूर्व सूचना के लगाए गए लॉकडाउन की तरह एक और मोदी निर्मित आपदा की दहलीज पर खड़ा है.

शिवसुंदर स्तंभकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. 

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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