मध्य प्रदेश: भाजपा-संघ के राज में राज्य का संस्कृति विभाग नैतिक और कलात्मक पतन की राह पर है

विशेष: बीते दस सालों में मध्य प्रदेश के संस्कृति संचालनालय पर भ्रष्टाचार और मुट्ठीभर कंपनियों और कलाकारों के प्रति पक्षपाती होने के आरोप लगे हैं. द वायर की पड़ताल.

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मध्य प्रदेश की संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान.

विशेष: बीते दस सालों में मध्य प्रदेश के संस्कृति संचालनालय पर भ्रष्टाचार और मुट्ठीभर कंपनियों और कलाकारों के प्रति पक्षपाती होने के आरोप लगे हैं. द वायर की पड़ताल.

मध्य प्रदेश की संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान.

(यह रिपोर्ट मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग के कामकाज की पड़ताल पर केंद्रित दो लेखों की श्रृंखला का पहला भाग है.)

भोपाल: अप्रैल 2021 में स्वदेशी नाम के एक स्थानीय दैनिक अखबार के पाठकों को एक बेहद चौंकाने वाली खबर पढ़ने को मिली. ‘उस्ताद अलाउद्दीन खान संगीत एवं कला अकादमी का कारनामा’ हेडलाइन के साथ छपी इस खबर में बताया गया था कि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा 1979 में स्थापित इस अकादमी ने डिजिटलीकरण के लिए कई बेशकीमती रिकॉर्डिंग्स को बगैर किसी कागजी कार्रवाई या टेंडर प्रक्रिया के भोपाल की एक फर्म को सौंप दिया है. इनमें से कुछ साल 1962 तक पुरानी है जिनमें तानसेन और मैहर समारोह जैसी राज्य के बेहद मशहूर सांस्कृतिक समारोहों की प्रस्तुतियां भी शामिल हैं.

स्वदेश में प्रकाशित खबर.

यह तो केवल शुरुआत थी. पीपी वर्ल्ड (भोपाल में इसे झावक बंधु के नाम से भी जाना जाता है) नाम की इस फर्म ने साल 2012 से ही ये रिकॉर्डिंग्स लेनी शुरू कर दी थी और तब से लेकर 2021 तक (स्वदेश में यह खबर छपने तक) इसने एक भी रिकॉर्डिंग अकादमी को नहीं लौटाई है.

कागजी कार्रवाई के अभाव को मद्देनजर रखते हुए दैनिक भास्कर ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को जोड़ा कि अकादमी के पास उन रिकॉर्डिंग्स की पूरी फेहरिस्त भी नहीं है जो वो पीपी वर्ल्ड को सौंप चुकी है. दोनों ही अखबारों में कहा गया है कि पीपी वर्ल्ड को कोई भुगतान नहीं किया गया है और इसी बकाया के कारण वो रिकॉर्डिंग्स को अपने पास रखे हुए है.

अकादमी का यह व्यवहार अशोभनीय था. चूंकि इन रिकॉर्डिंग्स में पंडित जसराज, रविशंकर, शिवकुमार शर्मा, जितेंद्र अभिषेकी, गिरिजा देवी और किशोरी अमोणकर जैसे दिगज्जों की प्रस्तुतियां हैं इसलिए ये रिकॉर्डिंग्स हिंदुस्तानी संस्कृति और सभ्यता के इतिहास का हिस्सा भी है.

इस मामले में आक्रोश बढ़ने पर राज्य की संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर ने जांच के आदेश दे दिए. इस सबके लिए अकादमी में तैनात एक जूनियर स्तर के नौकरशाह राहुल रस्तोगी को जिम्मेदार ठहरा दिया गया जो यहां कार्यकारी निदेशक के तौर पर भी काम कर रहे थे. संस्कृति मंत्री ने उन पर दंडात्मक कार्रवाई करते हुए उनका तबादला चित्रकूट के क्षेत्रीय कार्यालय में कर दिया.

हालांकि राहुल रस्तोगी को कभी भी चित्रकूट नहीं जाना पड़ा. मध्य प्रदेश संस्कृति मंत्रालय के कई सूत्रों ने द वायर  को बताया कि दो वरिष्ठ आरएसएस पदाधिकारियों ने रस्तोगी की ओर से दखल दिया और मंत्री महोदया ने अपना आदेश वापस ले लिया. पहले आरएसएस पदाधिकारी हैं, शिवराज सिंह चौहान के ओएसडी के तौर पर तैनात होने के साथ ही मुख्यमंत्री कार्यालय और आरएसएस के बीच संयोजक का काम करने वाले मनीष पांडेय और दूसरे- हेमंत मुक्तिबोध। हेमंत मध्य प्रदेश में संघ के नव नियुक्त सह-क्षेत्र कार्यवाह होने के साथ ही सांस्कृतिक मामलों का विशेष कार्यभार संभालते हैं.

इसके बजाय रस्तोगी की शिकायत करने वाले एक अधिकारी का ट्रांसफर कर दिया गया.

द वायर  ने उषा ठाकुर, मनीष पांडेय और हेमंत मुक्तिबोध से उनकी प्रतिक्रिया लेनी चाही लेकिन उनमें से किसी ने भी इसका कोई जवाब नहीं दिया. और असली कहानी इसी में छिपी है.

कहानी पक्षपात की

पिछले नवंबर में द वायर  को मध्य प्रदेश के संस्कृति मंत्रालय पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाला एक ईमेल मिला. ईमेल भेजने वाला अपना नाम उजागर नहीं होना देना चाहता. प्रेषक का आरोप है कि एक ओर जहां सरकार तानसेन समारोह और खजुराहो नृत्य समारोह आदि में पहले के मुकाबले कहीं अधिक खर्च कर रही है, वहीं इस रकम का एक बड़ा हिस्सा विभाग के अधिकारियों का एक गुट डकार जाता है.

ईमेल में आरोप लगाया गया है कि इन आयोजनों के लिए अधिकांश टेंडर्स भोपाल स्थित एक प्रोपराइटरशिप फर्म फीनिक्स नेटवर्क्स को ही मिलते हैं. इसमें यह कहा गया है कि इन समारोहों में प्रस्तुतियां देने वाले अधिकांश स्लॉट एक के बाद एक कुछ मुट्ठीभर कलाकारों के पास ही जाते हैं. यहां तक कि राज्य के दूसरे संगीतकार जिंदा रहने भर के लिए संघर्ष करने को मजबूर हैं.

शास्त्रीय संगीत की दुनिया गुटबाजी और ईर्ष्या से भरी हुई है और पक्षपात व संरक्षण के दावों में कुछ भी नया नहीं हैं. फिर भी, द वायर  ने इन आरोपों को बहुत संजीदगी से लिया. नवंबर में पहले दौर के साक्षात्कारों के बाद भोपाल की रिपोर्टिंग यात्रा के साथ ही मार्च के महीने में दिल्ली में आगे की पूछताछ की गई. इसके बाद और ज्यादा टेलीफोन इंटरव्यूज़ और अतिरिक्त शोध का काम किया गया और इस सबके मेल भेजने वाले के आरोपों की सच्चाई को परखने की कोशिश की गई.

हमें इससे जुड़ी जानकारियां मिली हैं. वाकई कलाकारों का एक समूह अक्सर ही इन आयोजनों में प्रस्तुतियां देता रहता है. साल 2021 में फीनिक्स नेटवर्क्स को राज्य संस्कृति विभाग (संस्कृति संचालनालय) की ओर से जारी कई टेंडर्स हासिल मिले. जैसा कि स्थानीय मीडिया ने भी बताया है कि उन निविदाओं में नियमों (Clauses) का एक हिस्सा नौकरशाहों के लिए तमाम फर्मों में से कुछ को इस बोली प्रक्रिया में भाग लेने से रोकने और कुछ का पक्ष लेने को आसान बनाता है.

नीचे दी गई तस्वीरों में वे नाम है जिन्होंने बिल्कुल हाल फिलहाल के टेंडर हासिल किए हैं. कुल 11 में से 6 टेंडर फीनिक्स नेटवर्क्स के खाते में गए हैं.

एक स्तर पर देखें तो यह एक अजीबोगरीब दास्तान है. जब एक कंपनी को बार-बार सरकारी ठेका मिलता है तो लगता हैं कि कोई नेता या नौकरशाह अपने पद का दुरुपयोग कर रहा है. एक तरह से यह मान लिया जाता है कि फर्म ने विभाग को अपने अधीन कर लिया है. लेकिन मध्य प्रदेश में मामला कुछ और ही है.

निजी लाभ, सार्वजनिक नुकसान

टेंडर पर इस ‘एकाधिकार’ के चलते ऐसे क्षेत्रों को भी नुकसान पहुंचा है जो सीधे तौर पर इससे नहीं जुड़े थे. गायब हो चुकी रिकॉर्डिंग्स तो इस संबंध में एक उदाहरण भर है. जब इस संस्थान स्थापना की गई थी तो मध्य प्रदेश के संस्कृति संचालनालय का मतलब था, ‘कला का संरक्षक’ लेकिन आज की तारीख में यह अर्थ पूरी तरह बदल चुका है.

एक तरफ कला और संस्कृति संरक्षण के लिए राज्य द्वारा आवांटित राशि में 2011-12 के 10.5 करोड़ रुपये के मुकाबले 2022-23 में 191.47 करोड़ रुपये तक की बढ़ोतरी हुई है. विभाग आयोजनों पर पहले की तुलना में बहुत अधिक खर्च कर रहा है. भोपाल में काम करने वाले संस्कृति संचालनालय के एक कर्मचारी ने बताया, ‘तानसेन समारोह का बजट पहले 25 लाख रुपये हुआ करता था. जो अब बढ़कर 3.5 करोड़ रुपये हो गया है.’

हालांकि, वेतन और छात्रवृत्ति पर बमुश्किल ही कोई खर्च बढ़ाया गया है. मसलन, कथक को पुनर्जीवित करने के लिए 1981 में स्थापित चक्रधर नृत्य अकादमी का उदाहरण ही  लेते हैं. अकादमी से परिचित एक व्यक्ति ने अपना नाम न उजागर होने देने की शर्त पर बताया कि इसके गुरु (अकादमिक प्रमुख) का वेतन 35,000 रुपये प्रति माह है. ‘छात्रों की मासिक छात्रवृत्ति 3,000 रुपये है. रियाज़ के दौरान वाद्य यंत्र बजाने वाले संगीतकारों को हर महीने 6,000 रुपये मिलते हैं. इतनी रकम से कैसे कोई अपना परिवार चला सकता है?’

शिक्षण की सहायक सामग्री गायब है. उन्होंने आगे कहा ‘लाइब्रेरी भी खत्म हो चली है. अगर कोई शोधर्थी हमारे पास आता है, तो हम उसे कोई किताब भी नहीं बता सकते. सारे साज़ चले गए. हमारा इतना समृद्ध इतिहास था- एलबम, तस्वीरें- अब कुछ भी नहीं है. हमारे पास मल्लिकार्जुन मंसूर, डागर, बिरजू महाराज, राजा छत्रपति सिंह की तस्वीरें और रिकॉर्डिंग्स थीं. उनके जैसे लोग हमारे टेस्ट्स के लिए आते थे. वे सभी तस्वीरें और रिकॉर्डिंग्स कहां हैं?’

संगीत संबंधी मामलों की बदहाली इतने तक ही सीमित नहीं है. ख्याल केंद्र बंद है. सारंगी केंद्र का भी यही हाल है. ऐसे ही हालात संगीत विद्यालय के भी हैं. ध्रुपद केंद्र खुला तो है लेकिन इसमें कोई छात्र नहीं है. चक्रधर के पास छात्र हैं लेकिन पिछले दो सालों से उनकी मामूली-सी छात्रवृत्ति का भी भुगतान नहीं किया गया है.

इन समारोहों में कलाकारों की एक छोटी-सी संख्या को ही ज्यादातर स्लॉट्स मिलने के कारण स्थापित संगीतकारों तक को भी अपना गुजारा करने में मुश्किल का सामना करना पड़ रहा है. भोपाल के एक ध्रुपद गायक का कहना है कि ‘उनके करीबी लोगों को लाखों मिलते हैं. मेरे जैसे लोग चटनी-रोटी खाते हैं.’

यह दुर्गति 2011 के आसपास शुरू हुई जब भाजपा नेता लक्ष्मीकांत शर्मा संस्कृति मंत्री बने. लेकिन उनके विभाग छोड़ने के बाद भी यह सिलसिला जारी है.

आने वाले सालों में जब सुधारात्मक कार्रवाईयों की मांग की गई, जैसे कि रिकॉर्डिंग्स के मामले में- तो सुधारात्मक कार्रवाई को सरकार और संघ के वरिष्ठ अधिकारियों ने टाल दिया या निरर्थक बना दिया

शुरुआत

पहली नज़र में मध्य प्रदेश का संस्कृति परिषद एक चौंकाने वाले फ़्लोचार्ट के बीच में स्थित दिखलाई पड़ता है.

यह राज्य के संस्कृति संचालनालय को रिपोर्ट करता है और बदले में उस्ताद अलाउद्दीन खान अकादमी और आदिवासी लोक कला अकादमी जैसे 13 सांस्कृतिक निकाय जो संगीत, नृत्य और साहित्य का संचालन करते हैं, इसको रिपोर्ट करते हैं. इन्ही कारणों से ये अकादमियां इन केंद्रों का  अंतर्गत हैं. उदाहरण के लिए अलाउद्दीन खान अकादमी के तहत ध्रुपद केंद्र, ख्याल केंद्र और चक्रधर नृत्य अकादमी आते हैं.

दशकों से ये अकादमियां सांस्कृतिक कार्यक्रमों और समारोहों का आयोजन कर रही हैं. उस्ताद अलाउद्दीन खान अकादमी तानसेन समारोह और खजुराहो नृत्य महोत्सव का आयोजन करती है. लोक कला अकादमी भोपाल के आदिवासी संग्रहालय की देखरेख के अलावा लोकरंग और निमाड़ समारोह जैसे उत्सवों का आयोजन करती है.

संस्थानों और उत्सवों के इस मैट्रिक्स के पीछे के तर्क को समझने के लिए द वायर  ने एक दोपहर आईआईटी दिल्ली के पास स्थित अशोक वाजपेयी के कार्यालय में उनसे मुलाकात की. 1970 और 1980 के दशक में कांग्रेस नेता अर्जुन सिंह के अधीन काम करने वाले सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी वाजपेयी ने ही यह व्यवस्था बनाई थी.

वाजपेयी ने उस दोपहर हमसे कहा कि मध्य प्रदेश को मध्य प्रांतों के अवशेषों से बनाया गया था. तब विदर्भ आदि हिस्से महाराष्ट्र को दे दिए गए थे, ‘हमारे पास महाकौशल, छत्तीसगढ़, विंध्य प्रदेश, भोपाल और मध्य भारत के हिस्से थे. हर एक की अपनी सांस्कृतिक परंपराएं थीं. हमारे दो प्रमुख घराने थे- ग्वालियर और मैहर. हमारे पास एमएफ हुसैन, एसएच रज़ा, एमएस बेंद्रे जैसे प्रसिद्ध चित्रकार थे. इसके अलावा बस्तर से आदिवासी कला के अपवाद के बावजूद मध्य प्रदेश भारत के सांस्कृतिक मानचित्र में शामिल नहीं था.’

1972 में सिंह और वाजपेयी ने कोशिश कर इसे बदलने का फैसला किया. आज तक उनकी प्रेरणाओं पर राय बंटी हुई है. क्या यह नेहरूवादी आदर्शवाद था, जिसमें राज्य लोगों के सांस्कृतिक क्षितिज का विस्तार करना चाहता था? या इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि चूंकि यह महंगाई के खिलाफ हो रहे आंदोलनों, राष्ट्रव्यापी रेलवे हड़ताल, जेपी आंदोलन और आपातकाल की घोषणा के साथ उथल-पुथल का दौर था तो क्या ऐसे में ये कदम इन मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने का एक प्रयास थे? या फिर सिंह इन कदमों से अपने राजनीतिक करिअर को एक मुकम्मल दिशा देने की कोशिश कर रहे थे?

भोपाल के उस ध्रुपद गायक ने द वायर  को बताया कि ‘वह संस्कृति के संरक्षक के रूप में पहचाने जाना चाहते थे. उन्हें उम्मीद थी कि इससे उन्हें अपने प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा को पूरा करने में मदद मिलेगी.’

सन 1972 तक वाजपेयी कलेक्टर के रूप में अपना कार्यकाल समाप्त कर भोपाल जा चुके थे. सांस्कृतिक मामलों में उनकी रुचि का संज्ञान लेते हुए मध्य प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री सिंह ने उन्हें संस्कृति से जुड़ी एक बेहद खास जिम्मेदारी देते हुए उन्हे इस विभाग का उप सचिव बना दिया.

वाजपेयी ने बताया कि ‘ वे (सिंह) शास्त्रीय संगीत नहीं समझते थे, लेकिन फिर भी उन्होंने सोचा कि इसे पोषित करने की जरूरत है.’ अगले 18 वर्षों में दोनों ने जो संस्थागत डिजाइन तैयार किया वो हम आज भी देखते सकते हैं.

कला के संरक्षक

कला अकादमियों और केंद्रों की स्थापना कुछ विशिष्ट शासनादेशों के साथ की गई थी.

संस्कृत रंगमंच की भारतीय परंपरा समाप्त हो रही थी और इसीलिए मध्य प्रदेश सरकार ने रंगमंच की संस्कृत परंपराओं के शोध और नवीनीकरण के लिए कालिदास अकादमी की स्थापना की.

इसी तरह की एक उमंग ने चक्रधर नृत्य अकादमी की शक्ल ली. वाजपेयी ने कहा कि ‘कथक पर गुमनामी का खतरा छाया हुआ था इसलिए इस संस्थान को एक प्रशिक्षण केंद्र के तौर पर तैयार किया गया.’

इसी तरह राज्य की समृद्ध लोक और आदिवासी कला परंपराओं पर ध्यान देने के लिए आदिवासी कला परिषद की स्थापना की गई.

प्रत्येक केंद्र में शिक्षण पर जोर दिया गया था. ध्रुपद केंद्र में दो महान डागर भाइयों- ज़िया मोहिउद्दीन और ज़िया फरीदुद्दीन डागर – को गुरु का ओहदा दिया गया था. हर साल पांच छात्रों को चार साल तक की परंपरा में शामिल करते हुए प्रशिक्षित किया जाना था.

उत्सवों ने एक पूरक भूमिका निभाई. संगीत में विभाग ने ‘आरंभ’ और ‘तानसेन’ उत्सव की शुरुआत की. इनके अलावा संभागीय और जिला स्तरीय उत्सव भी शुरू किए गए. इनसे राज्य को प्रतिभाओं की पहचान करने में मदद मिली और कलाकारों को खुद को स्थापित करने का एक जरिया मिला.

प्रतिभाशाली युवाओं को ‘आरंभ’ में आमंत्रित किया जाता. वाजपेयी ने बताया, ‘जो वहां बेहतर प्रदर्शन करते उन्हें ‘तानसेन’ के लिए आमंत्रित किया जाता. जब कोई व्यक्ति ‘तानसेन’ में प्रस्तुति देने लायक तैयार नहीं हो पाता था तो उसे जिला और संभागीय उत्सवों में ले जाया जाता जहां उसे एक वरिष्ठ कलाकार के साथ प्रस्तुति देनी होती. नौजवान शायद 45 मिनट या एक घंटे तक गाता. वरिष्ठ कलाकार 1.5 से 2 घंटे गाते थे.’

इसी तरह की व्यवस्था कई और जगहों पर काम करती थी. उन्होंने आगे बताया, ‘हर साल हम एक वार्षिक कथक उत्सव और संगोष्ठी करते थे. अगर कोई बहुत अच्छा होता था, तो उसे खजुराहो में आमंत्रित किया जाता.’

इसी के साथ वाजपेयी ने अकादमियों को राजनीतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेप से अलग किया. निर्देशकों का चयन सरकार द्वारा नहीं बल्कि प्रख्यात कलाकारों द्वारा किया जाता था. वे संस्कृति संचालनालय के नौकरशाहों को नहीं बल्कि सीधे वाजपेयी को रिपोर्ट करते थे.

धीरे-धीरे ये संस्थान असाधारण की श्रेणी में आने लगे – इन्होंने प्रतिभा और भीड़ दोनों को आकर्षित करना शुरू कर दिया. भोपाल के ध्रुपद गायक ने बताया, ‘उन्होंने निर्मल वर्मा, अज्ञेय, जे. स्वामीनाथन, बीवी. कारंत, हबीब तनवीर, डागर, मल्लिकार्जुन मंसूर जैसी सांस्कृतिक हस्तियों की मेजबानी की. भारतीय कला और संस्कृति के सबसे कद्दावर लोग मध्य प्रदेश आए थे.’

प्रेस और अकादमिक समूहों ने इसका प्रमुखता से संज्ञान लिया. वाजपेयी ने बताया कि 1982 में जब चार्ल्स कोरिया द्वारा डिज़ाइन किया गया भारत भवन भोपाल में खुला तो इसे देखने के लिए कम से कम 1,00,000 लोग उमड़ पड़े जबकि उस समय भोपाल की आबादी 9 लाख से भी कम थी.

भारत के ज्यादातर राज्य-प्रायोजित कला उत्सव गुटबाजी और भ्रष्टाचार में डूबे हुए है और अक्सर दर्शकों पर कोई प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहते हैं. लेकिन मध्य प्रदेश करीब 18 साल तक इस बात का उदाहरण था कि इन मामलों में भी कोई राज्य किन ऊंचाइयों को हासिल कर सकता है.

मुसीबतों की शुरुआत

भारत में किसी संस्था की उपादेयता या महत्व क्या है?

मध्य प्रदेश के संस्कृति संचालनालय के मामले में 1990 तक चीजें कमोबेश सुचारू रूप से चलती थीं. अर्जुन सिंह 1980 में मुख्यमंत्री बने थे. फिर 1985 से 1988 के बीच मोतीलाल वोरा ने ये कुर्सी संभाली. 1989 में अर्जुन सिंह ने फिर से यह कुर्सी हासिल की. 1990 में वाजपेयी ने भी केंद्र सरकार में शामिल होने के लिए मध्य प्रदेश छोड़ दिया. उनके बाहर जाने के साथ ही विभाग ने अपनी स्वायत्तता और दृष्टि दोनों ही खो दी.

वाजपेयी के उत्तराधिकारी नौकरशाह संस्कृति के बारे में अपेक्षाकृत कम जानकारी रखते थे. उन्होने पूर्व में स्थापित मूल डिजाइन के साथ छेड़छाड़ की. संस्कृति परिषद का गठन किया गया जिसका प्रमुख में संस्कृति सचिव से भी जूनियर स्तर का एक नौकरशाह था और निदेशकों को उसे रिपोर्ट करने के लिए कहा गया.

केंद्रों ने अपने कार्यक्रम आयोजित करना जारी रखे. लेकिन कड़ी निगरानी के अभाव में भ्रष्टाचार ने पैठ जमा ली. हालांकि फंड्स के कम आवंटन के कारण यह छोटे पैमाने तक ही सीमित रहा.

मध्य प्रदेश और भारत में बड़े बदलाव हुए. 1990 में भाजपा राज्य में सत्ता में आई और तब तक रही जब तक कि दिसंबर 1992 में बाबरी के बाद की कार्रवाई में उसे बर्खास्त नहीं कर दिया गया. दिग्विजय सिंह 1993 में मुख्यमंत्री बने और अगले दो कार्यकाल तक सत्ता में रहे.

वाजपेयी ने बताया कि वे चाहते थे कि संस्कृति संचालनालय को पुनर्जीवित किया जाए लेकिन पर्याप्त संसाधन आवंटित नहीं किए गए.

2003 में उमा भारती सत्ता में आईं. उनके अधीन एक पूर्व नौकरशाह डीपी सिन्हा जो आरएसएस के संस्कार भारती का भी हिस्सा थे, भारत भवन के नए प्रमुख बने. वह 2000 में दीपा मेहता की फिल्म वाटर के फिल्मांकन को रोकने के लिए सुर्खियों में आए चुके थे. वह उन लोगों में भी थे जिन्होंने एमएफ हुसैन के हिंदू देवी-देवताओं के चित्रों के लिए उनके खिलाफ धावा बोला था.

उनकी देखरेख में भारत भवन में बाबरी विध्वंस के बाद हुई गोलीबारी में मारे गए दो हिंदू भाइयों के लिए भजन गाए गए; बारिश का पानी इमारत के स्टोर रूम में ‘घुस’ गया और एमएफ हुसैन, जे. स्वामीनाथन, मंजीत बावा और दूसरे कलाकारों की करीब 3000 पेंटिंग्स को नुकसान पहुंच. 2007 में संस्थान कुर्सी को लेकर हुई खींचतान का गवाह बना क्योंकि सिन्हा ने पद छोड़ने से इनकार कर दिया.

तब तक मुख्यमंत्री के रूप में बाबूलाल गौर ने उमा भारती की जगह ले ली थी और 2005 में शिवराज सिंह चौहान ने गौर की जगह ले ली. हालांकि बजट आवंटन कम ही रहा. 2006-07 में यह महज 2.42 करोड़ रुपये था. लेकिन आने वाले सालों में यह बढ़ने वाला था.

सरकारी टेंडर की प्रक्रिया में एक घातक बदलाव

आगे जो हुआ उसने विभाग को एक अलग ही तरीके से कमजोर बना दिया. गौर के अधीन लक्ष्मीकांत शर्मा संस्कृति मंत्री बने.

2008 में उच्च शिक्षा विभाग का कार्यभार संभालने से पहले तक वे इसी पद को संभालते रहें. बतौर शिक्षा मंत्री उनके कार्यकाल के दौरान राज्य में व्यापम घोटाला हुआ था.

संस्कृति संचालनालय में शर्मा के कार्यकाल के दौरान जूनियर नौकरशाहों का एक धड़ा काफी ताकतवर हो गया. कलाकारों, स्थानीय इवेंट मैनेजरों, कर्मचारियों और संस्कृति संचालनालय के पूर्व कर्मचारियों के साथ द वायर  की बातचीत में सबसे ज्यादा चार नाम सामने आते हैं- श्रीराम तिवारी, सुनील मिश्रा, राहुल रस्तोगी और अशोक मिश्रा.

भोपाल के एक साहित्यकार ने बताया कि श्रीराम तिवारी मध्य प्रदेश फिल्म विकास निगम के एक कर्मचारी थे जिन्हें शर्मा द्वारा नवगठित स्वराज भवन का ट्रस्टी नियुक्त किया गया था. राहुल रस्तोगी और अशोक मिश्रा आदिवासी लोक कला परिषद में क्लर्क थे. और सुनील मिश्रा संस्कृति संचालनालय में काम करते थे.

भोपाल स्थित एक इवेंट मैनेजमेंट फर्म के एक सीनियर एक्जिक्यूटिव ने इन नौकरशाहों के उदय के लिए मध्य प्रदेश में सरकारी टेंडर प्रक्रिया की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में हुए एक बड़े बदलाव को जिम्मेदार ठहराया. एक्जिक्यूटिव ने अनुरोध किया है कि उनका नाम न उजागर किया जाए.

जब भाजपा सत्ता में आई तो उसके मंत्री दिग्विजय सिंह सरकार के अपने पूर्ववर्तियों की ही तरह अपनी नई जिम्मेदारियों के बारे में ज्यादा नहीं जानते थे. इससे नौकरशाहों पर उनकी निर्भरता बढ़ गई. एक्जिक्यूटिव ने कहा कि ‘हर विभाग में (मंझले स्तर के) नौकरशाह होते हैं जो अपने बॉस, ठेकेदार और राजनीतिक व्यवस्था को खुश करना जानते हैं. मंत्रियों और वरिष्ठ नौकरशाहों द्वारा समस्या के समाधान के लिए इन जूनियर नौकरशाहों की ओर रुख करने से ऐसे कर्मचारी ताकतवर होते गए.’

टेंडर देते समय ऐसे नौकरशाहों ने छोटे-मोटे कमीशन प्राप्त किए. एक्जिक्यूटिव ने बताया, ‘धीरे-धीरे यह सब बदल गया. इन नौकरशाहों ने इस तरह सोचना शुरू कर दिया कि मुझे इस व्यवसायी से 3% मिलता है. क्यों न मैं उसे अपने बेरोजगार भतीजे को पार्टनर बनाने के लिए कहूं.’

उन्होंने आगे बताया, ”व्यवसायियों ने ये शर्ते मान लीं- और इस तरह की व्यवस्था की वजह से अधिकारी उनसे जुड़े रहे.’

एक्जिक्यूटिव ने बताया,  आगे इसी सिलसिले में नौकरशाह सोचने लगे कि ‘मुझे पता है कि व्यापार कैसे किया जाता है. मुझे लागत और प्रतिशत भी पता है ‘ तो उन्होंने ठेकेदारों के कर्मचारियों को अवैध तरीके से फांसना शुरू कर दिया और अपनी खुद की कंपनियां चलाना शुरू कर दीं.’

कुछ मामलों में उन्होंने मौजूदा विक्रेताओं के कर्मचारियों को फांस लिया. और दूसरों कुछ मामलों में उन्होंने व्यापार के उपकरण खरीदे और उन्हें बोली लगाने वालों को किराए पर देना शुरू कर दिया.

इस कार्यकारी ने बताया कि एक के बाद एक हर विभाग में यही होने लगा. संस्कृति संचालनालय में भी यही हुआ. इसकी गोपनीय प्रवृत्ति के कारण सीनियर नौकरशाह भी इसके बारे में अनजान थे. ऐसे में मंझले स्तर के नौकरशाह संकटमोचक के रूप में उभरे.

फीनिक्स नेटवर्क का उदय

बाद के सालों में विभाग ने कुछ बड़े बदलाव देखे. कार्यक्रमों के आयोजन की जिम्मेदारी अकादमियों से हटाकर विभाग के पास केंद्रीकृत कर दी गई.

विभाग में काम करने वाले आरएसएस के एक सदस्य ने कहा, ‘अकादमियां अब अपने स्वयं के कार्यक्रम आयोजित नहीं कर सकती हैं.’ यह फैसला हैरान करने वाला था.

मध्य प्रदेश में आयोजनों के लिए सरकारी टेंडर प्रक्रिया का संचालन जनसंपर्क विभाग के ही एक हिस्से ‘माध्यम’ द्वारा किया जाता है. हालांकि संस्कृति संचालनालय टेंडर प्रक्रिया का काम अपने पास रखने में कामयाब रहा.

द वायर  ने मध्य प्रदेश की संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर, राज्य संस्कृति सचिव शिव शेखर शुक्ला और संस्कृति परिषद के प्रमुख अदिति कुमार त्रिपाठी को पत्र लिखकर आयोजनों को अपने पास केंद्रीकृत करने वहीं माध्यम के पास इसके केंद्रीकरण के विरोध करने के फैसलों के पीछे के तर्क के बारे में पूछा है. उनका जवाब मिलने पर रिपोर्ट में जोड़ा जाएगा.

इसी सिलसिले में संस्कृति संचालनालय के एक पूर्व कर्मचारी ने बताया, ‘2012 के बाद से फीनिक्स नेटवर्क्स नामक एक कंपनी ने विभाग द्वारा मंगाई गई अधिकांश निविदाओं को हासिल करना शुरू कर दिया था. इसकी स्थापना 2011 में अनिमेष मिश्रा ने की थी.

मध्य प्रदेश के इवेंट मैनेजमेंट सर्कल में फीनिक्स नेटवर्क्स के उभार के बारे में बहुत सी अटकलें हैं.

कई सूत्रों ने द वायर  को बताया कि अनिमेष मिश्रा फीनिक्स को हेमंत शर्मा के साथ पार्टनरशिप में चलाते हैं. और शायद ऐसा ही है क्योंकि हेमंत के फेसबुक पेज पर संस्कृति संचालनालय के नौकरशाह उन्हें फीनिक्स द्वारा आयोजित कार्यक्रमों के लिए बधाई देते दिखाई देते हैं.

फीनिक्स द्वारा आयोजित कार्यक्रम के लिए हेमंत को फेसबुक पर मिले बधाई संदेश.

संस्कृति संचालनालय के एक पूर्व कर्मचारी ने द वायर को बताया कि अनिमेष मिश्रा पहले भोपाल में एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी ‘विज़न फोर्स’ में काम करते थे. यह तब हुआ जब वह पहली बार लक्ष्मीकांत शर्मा और विभाग के विभिन्न नौकरशाहों के संपर्क में आए. इसके तुरंत बाद फीनिक्स नेटवर्क शुरू किया गया.

द वायर  ने अनिमेष मिश्रा से संपर्क किया और उनसे फीनिक्स के उदय के बारे में पूछा और यह भी कि क्या हेमंत शर्मा उनके पार्टनर हैं. उन्होंने इसका कोई जवाब नहीं दिया.

द वायर को बताया गया कि जब 2013 में व्यापमं घोटाला सामने आया, तो जूनियर नौकरशाह श्रीराम तिवारी और लक्ष्मीकांत शर्मा के सितारे एक साथ गर्दिश में आ गए और उन्हें रिटायरमेंट के बाद कोई एक्स्टेंशन नहीं दिया गया. इसके साथ ही टेंडर के मामलों पर सुनील मिश्रा, अशोक मिश्रा और राहुल रस्तोगी का कब्जा हो गया.

द वायर  ने अशोक मिश्रा, राहुल रस्तोगी और श्रीराम तिवारी से इन बयानों पर प्रतिक्रिया मांगी है-  सुनील मिश्रा का कोविड के चलते निधन हो गया. पहले दो ने कोई जवाब नहीं दिया. तिवारी ने द वायर को भेजे ईमेल में इन सवालों को असंगत, तथ्यहीन और झूठा बताया। इस संबंध में भी विस्तारपूर्वक जवाब देने के लिए उन्हे एक और ईमेल भेजा गया लेकिन उन्होंने जवाब नहीं दिया.

हालांकि उनकी प्रतिक्रिया उन जानकारियों के उलट है जो तमाम कलाकारों, वर्तमान और पूर्व नौकरशाहों द्वारा द वायर  को मिली हैं.

सवाल पक्षपात का

विभाग के 2021 की निविदाओं को ही देखते हैं.

यह किसी आयोजन के लिए केवल एक टेंडर नहीं जारी करता बल्कि यह 10 टेंडर जारी करता है, यानी किसी आयोजन से जुड़ी हर व्यवस्था के लिए – तंबू, मंच, रोशनी और फोटोग्राफी आदि हर व्यवस्था के लिए अलग निविदा. और इसीलिए दिसंबर 2021 में इसने 11 टेंडर जारी किए.

जैसा कि ऊपर लगाए गए दस्तावेज़ में दिख रहा है, फीनिक्स ने इनमें से छह टेंडर हासिल किए. अन्य फर्मों के एक समूह ने बाकी के टेंडर ले लिए. लेकिन जरा गौर से देखने पर आप यह पायेंगे कि इनमें से कुछ फर्मों के मालिकाना पदों पर बैठे लोग एक ही हैं.

हेमंत शर्मा भी सुविधा एंटरप्राइजेज के मालिक हैं.

फीनिक्स के अलावा, शर्मा सुविधा एंटरप्राइजेज भी चलाते हैं.

जब उनसे फोन पर संपर्क किया गया तो शर्मा ने अपना ईमेल एड्रेस साझा करने से इनकार कर दिया. हालांकि उन्होंने पुष्टि की कि सौम्या हेरिटेज में स्थित सुविधा एंटरप्राइजेज उनकी कंपनी है.

बिजली भवन और सजावट टेंट हाउस दोनों सत्य प्रकाश अग्रवाल, उनके बेटे राजीव अग्रवाल और उनके ही परिवार के दूसरे सदस्यों द्वारा संचालित हैं. सजावट टेंट हाउस का जस्टडायल पेज पर दर्ज फोन नंबर जिसके आखिर में 41273 है, एसपी अग्रवाल का है.

संस्कृति संचालनालय के एक कर्मचारी ने बताया कि ‘वह अशोक मिश्रा और राहुल रस्तोगी के करीबी हैं.’

द वायर  ने रस्तोगी से उनका पक्ष मांगा था लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. संपर्क करने पर सत्य प्रकाश अग्रवाल ने इस रिपोर्टर को राजीव अग्रवाल से फर्म का ईमेल एड्रेस लेने को कहा. जब द वायर  ने राजीव अग्रवाल से फोन और मैसेज पर ईमेल एड्रेस के लिए पूछा, लेकिन उन्होंने इसे साझा नहीं किया.

इसी सिलसिले में इवेंट मैनेजमेंट के एक्जिक्यूटिव ने आरोप लगाया है कि संस्कृति संचालनालय ने अब एक ही बार में एक बड़ा टेंडर मंगाने के कदम का विरोध किया है. उन्होंने कहा, ‘2018-19 के आसपास एक सुझाव था कि विभाग इन सभी सेवाओं को एक ही टेंडर में मिला दे. लेकिन इससे मैदान में नये दावेदर नहीं खड़े होते. और इसलिए उन्होंने उस कदम को रद्द कर दिया.’

इस संबंध में द वायर  ने विभाग से जवाब मांगा है, जो प्रकाशन के समय तक नहीं मिला था. जवाब मिलने पर उसे रिपोर्ट में जोड़ा जाएगा.

कैसे कंपनियों का पक्ष लिया गया

विजेता कंपनियों के तौर पर कुछ ही कंपनियों का बोलबाला अपने आप में एक पहेली है. मध्य प्रदेश में इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों की कमी नहीं है. और फिर भी फीनिक्स जैसी कुछ फर्म साल-दर-साल बोली जीतती हैं.

इस पहेली को समझने के लिए द वायर  ने चार व्यक्तियों से बात की. यह वे लोग हैं जो संस्कृति संचालनालय की नीलामियों के लिए बोली लगा चुके हैं.

पहले दो फ्लेक्स प्रिंटिंग व्यवसाय चलाते हैं. तीसरे फोटोग्राफर है. चौथे मानव संसाधन उपलब्ध कराते हैं. नाम न छापने की शर्त पर चारों ने बताया कि विभाग अपने टेंडर्स में लोगों की भागीदारी को रोकने की कोशिश करता है.

फ्लेक्स प्रिंटिंग व्यवसाय के एक मालिक ने कहा, ‘एक तो बयाना राशि बहुत अधिक है. 10 लाख रुपये के टेंडर के लिए यह राशि 1 लाख रुपये है. जबकि इसके लिए तय मानदंड लगभग 2-5% है.’

उन्होंने कहा कि निविदा दस्तावेज की कीमत भी बहुत अधिक है. ‘यह 500 रुपये या 1,000 रुपये नहीं बल्कि 5,000 रुपये है.’ नीचे संलग्न दस्तावेज़ में टेंडर का मूल्य 75 लाख रुपये है. जबकि बयाना राशि 7.5 लाख रुपये है.

Flex Printing Tender by The Wire

इनके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि विभाग भुगतान में देरी करता है. उनके अनुसार, ‘मेरे 60,000 रुपये बकाया हैं लेकिन मुझे केवल 20,000 रुपये का भुगतान किया गया है.’

उन्होंने अस्पष्टता की भी शिकायत की, ‘हम सभी मापदंडों पर खरे उतरे थें लेकिन हमें तकनीकी बोली में खारिज कर दिया गया. और इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया.’

टेंडर्स में ऐसे नियम (क्लॉज) भी हैं जो पक्षपात को आसान बना देते हैं. द वायर  ने पिछले साल विभाग द्वारा जारी 11 में से 10 निविदाओं की पड़ताल की.

इनमें से छह एक विचित्र क्लॉज के साथ आए थे: ‘कार्य की आवश्यकता को देखते हुए एक ही कार्य को निविदा अंतर्गत पात्र पाई गई अन्य संस्थाओं से भी कराने का पूर्ण अधिकार संचालनालय को होगा. इसमें किसी भी संस्था/फर्म की आपत्ति एवं दावा स्वीकार नहीं होगा.’

फ्लेक्स प्रिंटर ने कहा, ‘वे चाहते थे कि हम इस शर्त पर सहमति जताते हुए एक हलफनामा दें. मैंने विरोध किया. L1 होने का क्या मतलब है? अगर मैं काम नहीं कर सकता तो काम L2 को दे दो. हालांकि कम से कम मुझे पहले इनकार करने का अधिकार तो होना ही चाहिए.’

इस संबंध में भी द वायर  ने विभाग से जवाब मांगा है. द वायर  ने यह भी पूछा कि यह क्लॉज केवल फ्लेक्स प्रिंटिंग, स्टेज डिजाइन, लाइटिंग, साउंड, टेंट और टैक्सियों में ही क्यों देखा जाता है, फोटोग्राफी, प्रिंटिंग, मैनपावर सप्लाई और फिल्म निर्माण में क्यों नहीं. इस संबंध में जब कोई प्रतिक्रिया आने पर रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.

अब विजेताओं की घोषणा करने वाले विभाग के पत्र को ही ले लें. यह कहते हुए कि दुनिया भर की कंपनियां इन टेंडर्स के लिए बोली लगा सकती हैं (इस तथ्य के बावजूद कि द वायर द्वारा देखे गए सभी दस्तावेज हिंदी में थे) समिति ने कहा कि इनको टेंडर्स ग्लोबल टेंडर्स के रूप में देखा जाना चाहिए.

और इसलिए अगर इन बोलियों में केवल एक ही फर्म भाग लेती है या चयनित होती है तो उसकी बोली को अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा.

विभाग चाहता है कि उसके टेंडर्स को ग्लोबल टेंडर माना जाए. हालांकि इसने कई सवालों का जवाब नहीं दिया जैसे कि क्या इसकी निविदाएं हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं में मंगाई गई है.

यह दावा जो कि हाल ही में एनडीए के इस फैसले को प्रतिध्वनित करता है कि एकल बोली टेंडर्स को भी सरसरी तौर पर खारिज नहीं किया जाना चाहिए, पहले खंड का पूरक है. हो सकता है कि संस्कृति संचालनालय के टेंडर प्राप्त करने वाली एक फर्म को काम न मिले. यदि वो टेंडर की प्रक्रिया में भाग लेना बंद कर देती है तो वैसे भी भाग लेने वाली कोई भी एकमात्र फर्म टेंडर प्राप्त कर सकती है.

द वायर ने विभाग से इन दो शर्तों को स्पष्ट करने को कहा है. इसने यह भी पूछा है कि क्या हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं में भी टेंडर्स मांगे जाते हैं.

और यही नहीं. जैसा कि भोपाल में एक ऑनलाइन पत्रकारिता पोर्टल द सूत्र द्वारा रिपोर्ट किया गया है, विभाग द्वारा बोली लगाने की दूसरी शर्तों जैसे वित्तीय योग्यता और योग्यता दस्तावेज को भी इस तरह परिभाषित किया गया है कि इससे कुछ फर्मों को ही लाभ होता है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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