मध्य प्रदेश: संस्कृति विभाग की शोशेबाज़ी और फ़िज़ूलख़र्ची ने कला का बंटाधार किया है

विशेष: मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग पर लगे वित्तीय अनियमितताओं के आरोप देश में होने वाले बड़े घोटालों की तुलना में छोटे लग सकते हैं, लेकिन इसका असली नुकसान कला और संस्कृति को भुगतना पड़ रहा है.

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मध्य प्रदेश की संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर. (फोटो साभार: फेसबुक/संस्कृति विभाग)

विशेष: मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग पर लगे वित्तीय अनियमितताओं के आरोप देश में होने वाले बड़े घोटालों की तुलना में छोटे लग सकते हैं, लेकिन इसका असली नुकसान कला और संस्कृति को भुगतना पड़ रहा है.

मध्य प्रदेश की संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर. (फोटो साभार: फेसबुक/संस्कृति विभाग)

(यह रिपोर्ट मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग के कामकाज की पड़ताल पर केंद्रित दो लेखों की श्रृंखला का दूसरा भाग है. पहला भाग यहां पढ़ सकते हैं.)

भोपाल: पिछले साल नवंबर में द वायर  को एक मेल प्राप्त हुआ, जिसमें मध्य प्रदेश के संस्कृति मंत्रालय में बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया था.

मेल भेजनेवाले के मुताबिक, जो अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहता था, राज्य सरकार तानसेन समारोह और खजुराहो महोत्सव जैसे आयोजनों पर जहां पहले से कहीं ज्यादा पैसे खर्च कर रही है, वहीं इस रकम का एक बड़ा हिस्सा मंत्रालय के अधिकारियों की जेब में जा रहा है. उनके द्वारा जारी किए गए ज्यादा टेंडर भोपाल के प्रोपराइटरशिप फर्म फीनिक्स नेटवर्क को जाते हैं और सिर्फ चुनिंदा फ़नकारों को ही इन कार्यक्रमों में अपनी प्रस्तुति देने का मौका या स्लॉट मिलता है.

इस रिपोर्ट के पहले हिस्से में बताया गया था कि कैसे सिर्फ कुछ चुनिंदा फर्मों- जैसे फीनिक्स नेटवर्क्स को टेंडर मिलने लगे. दूसरे और अंतिम  भाग में हम इससे आगे की कहानी जानेंगे.

तड़क-भड़क, भव्यता और बढ़े हुए बिल

काफी लंबे अरसे तक तानसेन समारोह काफी कम खर्च में आयोजित किया जाता रहा. यह एक अपेक्षाकृत सामान्य सा आयोजन हुआ करता था, जिसमें फ़नकार छोटे-से मंच पर बैठा करते थे और श्रोता नीचे बिछी दरियों पर बैठकर उनके फन का आनंद लिया करते थे.

राज्य संस्कृति मंत्रालय के एक वर्तमान कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया, ‘2010 तक इस साधारण से आयोजन में 25 लाख रुपये से ज्यादा का खर्च नहीं आता था. अब यह राशि बढ़कर 3.5 करोड़ रुपये हो गई है.’

द वायर  को दूसरे कर्मचारियों और विभाग के ठेकेदारों से भी बढ़े खर्च को लेकर समान अनुमान सुनने को मिले.

जैसा कि भोपाल के एक नृत्य प्रशिक्षक ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि इस बढ़ोतरी के पीछे एक वजह तड़क-भड़क और भव्यता का प्रदर्शन है. संस्कृति पर ‘इवेंट मैनेजेमेंट’के कब्जे का परिणाम इस बदले हुए माहौल में साफ़ दिखाई देता  है.

जैसा कि नीचे की तस्वीरों में देखा जा सकता है, अब होने वाले आयोजन पहले की तुलना में कहीं ज्यादा भव्य होते हैं- झिलमिलाती रोशनी और बड़े-बड़े सेट इसकी शोभा बढ़ाते हैं.

तानसेन समारोह की एक पुराणी तस्वीर (बाएं) और हाल के समय में हुआ एक सरकारी सांस्कृतिक आयोजन.

लेकिन, सिर्फ भव्यता ही खर्चे में बेतहाशा वृद्धि का एकमात्र कारण नहीं है. प्रतियोगी बोलीकर्ताओं और विभाग के वर्तमान और पूर्व कर्मचारियों से द वायर  की बातचीत में कुछ आरोप बार-बार सामने आए हैं.

पहले बढ़े हुए बिलों की बात करते हैं. तानसेन समारोह में काम करने वाले एक फोटोग्राफर ने बताया, ‘तानसेन समारोह के लिए वे 30-40 कलाकारों को बुलाते हैं. इन लोगों को करीब 800 रुपये प्रति रात के किराये वाले ओयो (OYO) कमरों में ठहराया जाता है- चार या पांच रातों के लिए- लेकिन बिल 20 लाख रुपये का बनाया जाता है.’`

दूसरी बात, विभाग द्वारा जिन फर्मों का चयन किया जाता है, वे काम को सबकॉन्ट्रैक्ट पर दे देते हैं, वेंडरों को नकद भुगतान करते हैं और विभाग को बढ़ा-चढ़ाकर बिल जमा करते हैं.

उक्त फोटोग्राफर ने आगे कहा, ‘2013 तक मुझे चेक में भुगतान मिला करता था. लेकिन उसके बाद से मुझे नकद में पैसा दिया जाने लगा.’ इस फोटोग्राफर ने बताया कि उन्हें हर समारोह में 70 हजार रुपये तक मिल जाते हैं, हालांकि विभाग के एक एकाउंटेंट ने उन्हें बताया कि इसके लिए आवंटन लगभग आठ लाख रुपये का था.

उनका कहना है, ‘सबकॉन्ट्रैक्टिंग माने ठेके को मिले काम को आगे ठेके पर देकर करवाने का बहुत चलन है. और फिर वो वे गुंबद वगैरह ग्वालियर से ही बनवा लेते हैं, लेकिन दिखाते हैं कि इसे भोपाल से ट्रक से मंगाया गया.’

एक दूसरे वेंडर ने सहमति जताई. उन्होंने कहा, ‘जबलपुर में होने वाले कार्यक्रम के लिए स्थानीय लोगों द्वारा काम करवाया जाता है, लेकिन बिल में सामान भोपाल से मंगाया हुआ दिखाया जाता है… काम यहां होता है और बिलिंग वहां की होती है.’

तीसरी बात, यहां तक कि पुरानी सामग्रियों का भी इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन बदले में नई सामग्रियों का बिल जमा किया जाता है. उदाहरण के लिए फीनिक्स नेटवर्क्स को ही ले लें. जैसे, मान लीजिए कंपनी डिपार्टमेंट को फ्रेम (फ्लेक्स पोस्टरों-) का बिल देती है. जैसा कि विभाग ने एक आरटीआई के जवाब में बताया, इन फ्रेम्स को विभाग अपने पास नहीं रखता, बल्कि फीनिक्स को लौटा देता है.

एक फ्लेक्स प्रिंटर ने बताया, ‘इन फ्रेम्स को स्टॉक का हिस्सा बन जाना चाहिए. इनका फिर से इस्तेमाल हो सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है. इसकी जगह हर आयोजन के लिए फीनिक्स द्वारा नए फ्रेम्स का बिल दिया जाता है.’

चौथी बात, अनुमानित खर्च/लागत में वृद्धि दिखाई जाती है, ताकि ज्यादा पैसा ऐंठा जा सके. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के एक सदस्य, जो पहले विभाग में काम किया करते थे, ने बताया, ‘हर साल संस्कृति विभाग एक बजट बनाता है. इस बजट में हर समारोह की अनुमानित लागत शामिल होती है, हर साल आयोजन के बाद अधिकारियों द्वारा अतिरिक्त खर्च होने को लेकर पत्र जमा करते हैं, ताकि उन्हें 50-75 लाख रुपये अतिरिक्त मिल सकें।’

इस आरएसएस सदस्य के मुताबिक, ‘अगर तानसेन, खजुराहो, लोकरंग जैसे समारोहों को बगैर तड़क-भड़क और फिजूलखर्ची के किया जाए, तो मध्य प्रदेश तीन-चार गुना ज्यादा समारोहों का आयोजन कर सकता है.’

द वायर  ने फीनिक्स और संस्कृति संचालनालय दोनों से इन आरोपों पर जवाब मांगा. विभाग को संबोधित पत्र संस्कृति मंत्रालय का जिम्मेदारी उठा रही मध्य प्रदेश की मंत्री ऊषा ठाकुर, राज्य संस्कृति सचिव शिव शेखर शुक्ला और संस्कृति परिषद के मुख्य अदिति कुमार त्रिपाठी को भेजा गया. इसके अलावा, अलाउद्दीन खान अकादमी के निदेशक जयंत भिसे, रस्तोगी और अशोक मिश्रा से  भी इन आरोपों पर जवाब देने के लिए कहा गया.

उनका जवाब आने पर उसे रिपोर्ट में जोड़ा जाएगा.

वित्त वर्ष 2011 से लेकर वित्त वर्ष 2023 तक संस्कृति को लेकर मध्य प्रदेश का कुल आवंटन 870 करोड़ रुपये रहा है. वेतनों और वजीफों पर होने वाले कम खर्चे को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस पैसे का ज्यादातर हिस्सा कार्यक्रमों/आयोजनों पर खर्च हुआ है.

एक स्तर पर देखें, तो बड़े-बड़े घोटालों की जमीन पर यह आंकड़ा छोटा दिखाई दे सकता है. लेकिन दूसरे स्तर पर यह किसी और चीज को नुकसान पहुंचा रहा है.

यह कला और संस्कृति को चोट पहुंचा रहा है.

कलाकारों का ‘सिंडिकेट’

इस तरह के कारनामों को अंजाम देने के लिए संगीतज्ञों की मदद की जरूरत होती है. आखिरकार, कलाकारों से ही इन समारोहों- और विभाग- को वैधता मिलती है.

इस मोर्चे पर जैसा कि लोगों का कहना है, विभाग मुट्ठीभर लोगों को ही तरजीह दे रहा है. नृत्य में मैत्रेयी पहाड़ी के एनजीओ लोक छंद को कई आयोजनों में आमंत्रित किया जाता है, जबकि स्थानीय नर्तकों/नृत्यांगनाओं की कोई कद्र नहीं की जाती.

चक्रधर डांस अकादमी के एक करीबी ने कहा, ‘हमारे छात्रों को मौका मिलने की जगह, मैत्रेयी पहाड़ी जैसे लोग बार-बार आते रहते हैं.’

द वायर ने इस बाबत विभाग- और मैत्रेयी पहाड़ी- से उनकी प्रतिक्रिया मांगी है. उनका जवाब आने के बाद उसे रिपोर्ट में शामिल किया जाएगा.

संगीत में इस संदर्भ में जो नाम सबसे ज्यादा बार आता है, वह है गुंदेचा बंधुओं का. ध्रुपद केंद्र में अपना अध्ययन समाप्त करने के बाद दो बड़े भाइयों- रमाकांत और उमाकांत- को विभाग द्वारा नियुक्त किया गया. यह पूर्व आईएएस अधिकारी अशोक वाजपेयी की पहल थी. उनके अनुसार, उन्हें यह लगा कि दोनों भाई संगीत आर्काइव और आयोजनों की देखरेख करने में मददगार होंगे.

उन्होंने कहा, ‘हम संगीत में बड़े कार्यक्रमों का आयोजन कर रहे थे. उन्होंने जल्दी ही देश के सबसे अच्छे संगीतज्ञों से संपर्क साधना शुरू कर दिया. इससे जो संपर्क बने, उसका वे इस्तेमाल करने लगे.’

हालांकि यह उम्मीद के मुताबिक साकार नहीं हो पाया. भोपाल के एक ध्रुपद गायक ने बताया, ‘जो नई व्यवस्था बनी है, उसे सहजीवी संबंध के तौर पर समझा जा सकता है. नौकरशाह कार्यक्रमों का आयोजन करने में उनकी मदद करने वाले गुंदेचा भाइयों के जरिये संगीतकारों से संपर्क करते हैं. जहां तक गुंदेचा भाइयों की बात है, आलोचकों का कहना है कि सत्ता से उनकी नजदीकी ने कला में उनकी स्थिति को मजबूत करने में उनकी मदद की है.

भोपाल में एक संगीत शिक्षक ने बताया, ‘वे ध्रुपद पर अपना वर्चस्व चाहते हैं… साथ ही वे भोपाल में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर भी अपना प्रभुत्व चाहते हैं.’

ध्रुपद केंद्र के एक पूर्व शिक्षक का कहना है कि सत्ता तक पहुंच ने एक ऐसी स्थिति बनाई है, जहां अधिकारियों के नजदीकी लोगों और उनके पसंदीदा कलाकारों को प्रस्तुति के ज्यादातर स्लॉट मिल जाते हैं. उन्होंने कहा, ‘कलाकारों को इस व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए बाध्य किया जाता है… अगर आप इस समूह का हिस्सा नहीं हैं, तो आपको यूथ कॉन्सर्ट या रेडियो पर परफॉर्म करने का मौका मिलने से रहा. कलाकारों का इस तरह से नियंत्रण और दोहन किया जा रहा है.’

द वायर  ने इन आरोपों पर विभाग और गुंदेचा भाइयों से जवाब मांगा. इस पर विभाग का तो कोई जवाब नहीं आया है, लेकिन अपने जवाब में गुंदेचा भाइयों ने इन आरोपों को ‘पूरी तरह से ‘बेबुनियाद’ और ‘झूठा’ बताया.

एक ईमेल में उन्होंने कहा, ‘ऐसा लगता है कि आपने जिन लोगों से बात की है और खासतौर पर वे लोग जिन्होंने इस विषय पर आपकी धारणा का बनाई है, वे या तो शास्त्रीय संगीत से या खासतौर पर दुनियाभर में हो रहे ध्रुपद से जुड़े हुए नहीं हैं. और अगर वे जुड़े हुए हैं, तो वे हमारे समकालीन ही होंगे (जो स्वाभाविक तौर पर हमसे प्रतिस्पर्द्धा की भावना विकसित कर लेंगे, जो अपने गलत इरादों या अज्ञात कारणों से) हमारे बारे में एक झूठी धारणा बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है.’

गुंदेचा भाइयों ने संस्कृति संचालनालय और मध्य प्रदेश सरकार से किसी प्रकार की नजदीकी’ होने और ‘उनके लिए बिचौलिये का काम करने’ से भी इनकार किया.

उन्होंने लिखा, ‘सभी समारोहों और कार्यक्रमों का आयोजन और खासतौर पर मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग के तहत किसी परफॉर्मिंग कलाकार का चयन संबंधित क्षेत्र के लब्ध-प्रतिष्ठित कलाकारों के एक पैनल और सरकारी अधिकारियों द्वारा मेरिट के आधार पर किया जाता है. इसलिए हम इस बात का खासतौर पर खंडन करते हैं कि जैसा आरोप लगाया गया है, हमारा, कोई सिंडिकेट है और हमारे करीबी लोगों को ही परफॉर्म करने का मौका दिया जाता है.’

लेकिन इस टिप्पणी को अन्य कलाकारों ने चुनौती दी है. एक वीणावादक ने द वायर  को बताया कि यहां तक कि ध्रुपद केंद्र के विद्यार्थियों को भी जगह नहीं मिल रही है. उनका कहना था, ‘कल्पना कीजिए कि आप चार सालों तक प्रशिक्षण लेते हैं. आप अपनी सारी परीक्षाएं पास कर लेते हैं. आप ध्रुपद केंद्र के बच्चे हो, लेकिन आप जब वहां जाते हैं, तो आपसे अपना बायोडेटा और सीवी छोड़कर जाने के लिए कहा जाता है.’

जहां तक सरकार से मिलने वाले समर्थन की बात है, तो रमाकांत गुंदेचा और अखिलेश गुंदेचा के खिलाफ सितंबर, 2020 में लगाए गए यौन शोषण के आरोपों को ही लीजिए. जहां दूसरे संगीत समारोहों ने #मीटू में आए नामों को हटा दिया, लेकिन इन आरोपों के बावजूद संस्कृति विभाग ने तानसेन समारोह- 2020 के लिए कलाकारों की सूची में अखिलेश गुंदेचा नाम बनाए रखा था. हालांकि फिर काफी विरोध के बाद इसे हटाया गया.

दांव पर क्या है

यह जरूरी नहीं है कि ज्यादा खर्च का नतीजा अच्छे समारोह के बतौर ही निकले.

समारोह के हर दिन ज्यादा से ज्यादा कलाकारों को शामिल करने की विभाग की कोशिश का नतीजा है कि हर कलाकार को दिया जाने वाला समय घट रहा है. भोपाल के एक नर्तक ने कहा, ‘एक प्रस्तुति सामान्य तौर पर सवा घंटे तक चलती है… तानसेन समारोह में यह घटकर कुल 45 मिनट की रह गई है.’

जब द वायर  ने यह बात कर्नाटक संगीत के गायक टीएम कृष्णा को बताई, तो वे हैरान रह गए. उन्होंने कहा, ‘चेन्नई के संगीत अकादमी में जूनियर और यहां तक कि सबसे जूनियर-अगर ऐसी कोई चीज है तो- के लिए स्लॉट डेढ़ घंटे का होता है. ज्यादा स्थापित कलाकारों को ढाई घंटे तक का समय मिलता है.’

इस बात को और समझाते हुए उन्होंने कहा, ‘हर कला-रूप को एक निश्चित समय की जरूरत होती है. यहां, केंद्र में राग होता है. हम पहले राग का परिचय देते हैं, फिर इसके संगीत की दुनिया में दाखिल होते हैं और श्रोताओं को भी इस तक लाते हैं. हम नए क्षितिजों तक पहुंचने और अपनी क्षमताओं के प्रदर्शन की कोशिश कर रहे हैं. यह एक न्यूनतम समय की मांग करता है. यह छोटे-छोटे गानों के सिलसिले वाली प्रस्तुति नहीं है. अगर आप खुद को एक महत्वपूर्ण मंच कहते हैं, तो आपको कला की सौंदर्यबोधीय जरूरतों का भी सम्मान करना चाहिए.’

समारोहों पर हद से ज्यादा केंद्रित होने का नतीजा न सिर्फ वेतन और वजीफों में बल्कि पेंशनों में भी लगातार कटौती के तौर पर सामने आ रहा है.  भोपाल के एक गायक ने बताया, ‘बिहार और उत्तर प्रदेश में वृद्ध कलाकारों को 8,000 रुपये पेंशन मिलती है. लेकिन मध्य प्रदेश में यह 1,500 है. इसे बढ़ाकर 5,000 रुपये करने के कमलनाथ सरकार के आदेश को अभी तक लागू नहीं किया गया है.’

इसके साथ ही नई प्रतिभाओं की खोज करने के विभाग के पुराने बुनियादी स्तंभ गायब हो गए हैं. एक नृत्य शिक्षक ने बताया, ‘पुराने दिनों में अगर आप आरंभ या इंदौर के अमीर खां समारोह में अच्छा करते थे, तो आपको तानसेन में बुलाया जाता था… किसी विलक्षण रूप से प्रतिभावान को ही तानसेन में मौका मिलता था. लेकिन अब हम इसकी जगह सीधा चयन देख रहे हैं.’

अन्य समारोहों- मसलन, कालिदास समारोह, अमीर खां समारोह, अलाउद्दीन खान संगीत समारोह- को तानसेन की ऊंचाई तक लेकर जाने की जगह राज्य ने पहले से चल रहे समारोहों को कमजोर करने का काम किया है.

मसलन तानसेन को ही लीजिए. कृष्णा कहते हैं,  ‘एक जमाने में तानसेन समारोह शास्त्रीय गायकों के लिए एक बहुत बड़ा सम्मान था. लेकिन आज यह हमारी कल्पना में भी कहीं नहीं आता. यह किसी भी अन्य साधारण समारोह की तरह हो गया है.’

इस क्षरण से मौकों को हुए नुकसान की कीमत तय नहीं की जा सकती है. उन उभरते हुए संगीतज्ञों के बारे में सोचिए, जिन्हें इन संस्थानों द्वारा सिखाया जा सकता था, लेकिन उन्हें इसका मौका नहीं मिला- इन कलाओं को उनके संभावित योगदान का सवाल तो अपनी जगह है ही.

वास्तव में कहें, तो 1970 के दशक में तामीर की गई इमारत अब खंडहर में बदल गई है. विभाग न सिर्फ अतीत की कामयाबियों की नींव पर नया रचने में नाकाम रहा, इसके बुनियादी लक्ष्य- संस्कृति को लोगों तक पहुंचाना और नई प्रतिभाओं की खोज करना भी खो गए हैं. अब आरंभ की परंपरा समाप्त हो गई है. न ही अब डिविजन/जिला स्तर पर कार्यक्रम होते हैं.

पतन की यह दास्तान आंखों के सामने है. मौका न पाने से निराश होकर कई संगीतज्ञों ने राज्य छोड़ दिया है. दर्शकों की संख्या भी घट रही है. आरएसएस के सदस्य ने कहा, ‘लोग बहिष्कार कर रहे हैं… लतीफ खान समारोह में जितने लोग दर्शक दीर्घा में थे, उससे ज्यादा मंच पर थे. हालात इतने खराब हैं कि कल्चर सेक्रेटरी को बैठक बुलानी पड़ी.’

द वायर ने ऊषा ठाकुर, शिवशंकर शुक्ला, अदिति कुमार त्रिपाठी, जयंत भिडे, राहुल रस्तोगी, अशोक मिश्रा, मनीष पांडे ओर हेमंत मुक्तिबोध से इस पर प्रतिक्रिया मांगी है. उनका जवाब आने पर उसे रिपोर्ट में शामिल किया जाएगा.

और अंत में…

भारतीय सरकारों की पहचान उनका निष्प्रभावी होना नहीं है.

यह जब भी चाहे, निर्णायक ढंग से काम कर सकती हैं. और इसलिए मध्य प्रदेश के संस्कृति विभाग का संकट एक अनिवार्य सवाल उठाता है. अपने बहुत बड़े सांस्कृतिक खर्चे के बावजूद आखिर यह इतने दिनों तक कैसे चल पाया है?

सवाल खासतौर पर आरएसएस से पूछा जाना चाहिए. संस्कृति मंत्री ऊषा ठाकुर का संबंध आरएसएस के हैं. यही बात अलाउद्दीन खान अकादमी के निदेशक जयंत भिसे पर लागू होती है. शिवराज सिंह चौहान के ओएसडी मनीष पांडेय भी आरएसएस के आदमी हैं. कहा जाता है कि आरएसएस के भीतर हेमंत मुक्तिबोध संस्कृति के मसलों को देखते हैं. जैसा कि इस श्रृंखला के पहले भाग में बताया भी गया था, ऐसा माना जाता है कि उन्होंने रस्तोगी के सजा के तौर पर चित्रकूट तबादले में हस्तक्षेप किया था.

2017 में ध्रुपद संस्थान में गुंदेचा बंधुओं के साथ संघ प्रमुख मोहन भागवत.

ठाकुर, भिसे, पांडेय और मुक्तिबोध को अपने ईमेल में द वायर  ने स्थानीय कलाकारों की चिंताओं की दोहराया कि समारोह पर संस्कृति विभाग का जोर देने- और कुछ फर्मों और कलाकारों को तरजीह मिलने- के कारण संस्कृति को जनता तक लेकर जाने के साथ ही साथ इसके संरक्षण का काम नहीं हो पा रहा है.

द वायर  ने पूछा कि क्या कई शिकायतों के बावजूद इन अनियमितताओं के आरोपों की कोई जांच हुई है. इस लेख के प्रकाशन तक न तो संस्कृति मंत्री और न ही नौकरशाहों ने कोई जवाब दिया. पांडेय की ओर से भी कोई जवाब नहीं मिला.

जहां तक मुक्तिबोध का सवाल है, उन्होंने यह बताने के लिए मैसेज किया : ‘यह अच्छा होता, अगर आप ये सवाल उचित सरकारी पदाधिकारियों, मसलन संस्कृति मंत्री, सचिव और निदेशक, संस्कृति से यह सवाल पूछते.’

इस पर द वायर  ने जवाब दिया कि उन्हें भी सवाल भेजे गए हैं और यह बताया कि मुक्तिबोध को भेजा गया सवाल उनके आरएसएस में उनके ‘पद/जिम्मेदारियों’ से ही संबंधित है. इसके बाद, उनका भी कोई जवाब नहीं आया.

द वायर  ने यह सवाल आरएसएस के उन दो व्यक्तियों से पूछे, जिनका इस रिपोर्ट के सिलसिले में इंटरव्यू किया गया था.

उनमें से एक का जवाब था, ‘वो (आरएसएस) रोक सकते हैं, लेकिन रोकना नहीं चाहते.. सत्ता के साथ उसमें गलत लोग जुड़ गए हैं.’

दूसरे ने और तीखी टिपण्णी की, ‘वे खुद तो जानते नहीं, दूसरों की मानते नहीं… आरएसएस की ट्रेनिंग में जनपक्ष/जनहित कभी सामने नहीं रहता, वे जो फैसला कर लेते हैं, उसके हिसाब से चीजें चलती हैं.’

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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