आज़ादी के 75 सालों बाद भी देश की दलित-बहुजन आबादी की सभी उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं

भारत और यहां रहने वाले सभी जातियों, समुदायों के नागरिकों का भविष्य अब संविधान के इसके वर्तमान स्वरूप में बचे रहने पर निर्भर करता है.

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(फोटो: पीटीआई)

भारत और यहां रहने वाले सभी जातियों, समुदायों के नागरिकों का भविष्य अब संविधान के इसके वर्तमान स्वरूप में बचे रहने पर निर्भर करता है.

(फोटो: पीटीआई)

भारत अपने 75 साल के लोकतांत्रिक अस्तित्व का जश्न मना रहा है. केंद्र सरकार ने इसे ‘अमृत महोत्सव’ का नाम दिया है. आम तौर पर वैश्विक बोलचाल में यह भारत की स्वतंत्रता की ‘डायमंड जुबली’ यानी हीरक जयंती है.

1947 में जब भारत को आजादी मिली, तब कई गांवों में ऐसी अभावों भरी स्थिति थी कि दलित-बहुजन जनता (ओबीसी/एससी/एसटी ने दलित और शोषित जातियां, जैसा कि मैंने अपनी किताब व्हाय एम नॉट अ हिंदू , 1996 में बताया है) को यह भी नहीं पता था कि क्या स्वतंत्रता क्या थी और उपनिवेशवाद क्या था. जो जनता आज समानता, स्वाभिमान, गरिमा और राज्य और निजी औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार की आकांक्षा कर रही है, वह उस समय ज्यादातर गांवों और जंगल और अर्ध-वन क्षेत्रों के आसपास रहती थी और जानवरों, कारीगर और कृषि अर्थव्यवस्थाओं से जुड़े कामों में लगी थी. गरीबी, निरक्षरता और न्यूनतम मृत्यु दर इन सब से उनका जीवन घिरा हुआ था.

स्वतंत्रता-पूर्व भारत में सरकार उनके लिए संसाधन छीननेवाले की भूमिका में थी, जिससे उन्हें अपने भले के लिए कोई आशा नहीं थी. उनमें सरकार को लेकर किसी तरह की सकारात्मक समझ नहीं थी क्योंकि उनके लिए वह एक निर्दयी शोषक थी.

हालांकि स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने से पहले भारत के कई हिस्सों में ब्रिटिश शासकों के खिलाफ किसान और आदिवासी विद्रोह हुए, पर वे 1857 के में शुरू हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम से गंभीरता से नहीं जोड़ा गया और ऐसे क्रांतिकारी नेताओं की भूमिका को भी पहचाना नहीं गया था. अन्नदाताओं ने उनके किसी लिखित इतिहास के बिना अपने अस्तित्व के लिए ब्रिटिश और रियासतों के खिलाफ लड़ाई लड़ी. इन सबके बीच, भारत का दलित वर्ग एक निराशाजनक स्थिति में था.

आजादी की लड़ाई लड़ रहे अगुवा लोगों में डॉ. बीआर आंबेडकर के सिवाय शायद ही कोई अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी नेता था, जो उनके हितों की बात उठाता. उन्होंने उपनिवेशवाद, जातिवाद और ऐतिहासिक निरक्षरता की बाहरी और आंतरिक दमनकारी व्यवस्थाओं से मुक्ति के बारे में एक बौद्धिक दार्शनिक बहस शुरू की. उनकी 1936 की किताब द एनीहिलेशन ऑफ कास्ट, जो महात्मा फुले की गुलामगिरी (1873) का विस्तार थी, लेकिन उनके विचारों को समझने और उनका पालन करने के लिए शायद ही कोई शिक्षित दलित बहुजन मौजूद था.

स्वतंत्रता प्रतिमान प्रमुख रूप से महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू द्वारा तय किया गया था, जो व्यापक रूप से आंतरिक समाज सुधारों पर ज्यादा ध्यान दिए बिना ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के लिए एजेंडा तैयार कर रहे थे.

दक्षिण में, पेरियार रामासामी नायकर ने द्रविड़ राष्ट्रवाद की विचारधारा के साथ बड़े पैमाने पर निचली जातियों को लामबंद करने का काम किया, जिसने मान्यता भी मिली, लेकिन इसे उप-क्षेत्रीय और नकारात्मकवादी के बतौर देखा गया. कई अंग्रेजी शिक्षित उत्तर भारतीय बुद्धिजीवी, जो द्विज-ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ, खत्री पृष्ठभूमि से आते थे और जो उदार और दक्षिणपंथी दोनों धड़ों से ताल्लुक रखते थे,  इस विचार से सहज थे कि भारतीय राष्ट्र का निर्माण ‘आर्य’ और ‘ब्राह्मण’ पहचान की धारणाओं के आसपास किया जाना चाहिए. (राजा राममोहन रॉय, दयानंद सरस्वती, केपी जयसवाल से लेकर वीडी सावरकर तक ने आर्यन नस्ल को अखिल भारतीय विचार के रूप में इस्तेमाल किया है.)

उत्तर-औपनिवेशिक काल में भी द्विज बुद्धिजीवियों की विश्वविद्यालयों और बाहर होने वाली बहसों में लंबे समय तक दलित और द्रविड़ पहचान को संकीर्ण पहचानवादी के रूप में देखा जाता था, राष्ट्रवादी के बतौर नहीं. इतना ही नहीं, आंबेडकर के दलित और पेरियार के द्रविड़ बहस की सांप्रदायिक और संकीर्ण पहचानवादी कहकर निंदा की  जाती थी. कम्युनिस्ट द्विज बुद्धिजीवी भी मोटे तौर पर इसी विचार के साथ थे.

दलित, बहुजन और अल्पसंख्यकों का सवाल

इसके अलावा, स्वतंत्रता संग्राम ने दलित-बहुजनों को उतनी तवज्जो नहीं मिली जितनी कि मुहम्मद अली जिन्ना और अल्लामा इकबाल के द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और उपमहाद्वीप के बाद के विभाजन की पृष्ठभूमि में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को मिली थी. 1947 के विभाजन और सांप्रदायिक नरसंहार के बीच दलित-बहुजनों के लिए आरक्षण को संस्थागत बनाने के आंबेडकर और पेरियार के प्रयासों को चुनावी और वैचारिक क्षेत्र में कोई महत्व नहीं दिया गया.

1990 में मंडल आंदोलन शुरू होने तक सब कुछ कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और आरएसएस के मुस्लिम विरोधी हिंदुत्व एजेंडा के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा. नेहरूवादी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद और एमएस गोलवलकर के हिंदुत्व राष्ट्रवाद ने साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक क्षेत्रों में प्रमुख स्थान कब्जा रखा था. इन बहसों को समझने वाला शायद ही कोई ओबीसी बुद्धिजीवी उस समय मौजूद था.

वाम दल या लेफ्ट, शिक्षित, मध्यम वर्ग के द्विज बुद्धिजीवियों की अगुवाई में वर्गीय विचारधारा और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट मार्गदर्शन के इर्द-गिर्द बने रहे और उन्होंने जाति के सवाल साथ-साथ संवैधानिक लोकतंत्र का भी अंध विरोध किया. वे सर्वहारा दृष्टिकोण से आंबेडकरवादी संविधान का विरोध कर रहे थे, उसी तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मनुवादी दृष्टिकोण से विरोध कर रहा था.

मंडल के बाद के समय में वामपंथ ने के पास बहुत कुछ नहीं बचा क्योंकि इसने एक उपयुक्त स्वदेशी वैचारिक और राजनीतिक संगठनात्मक पैटर्न विकसित नहीं किया था. वे आंबेडकर को खत्म करना चाहते थे लेकिन आंबेडकर ने उन्हें खत्म कर दिया.

दूसरी ओर, हिंदुत्ववादी ताकतों ने मंडल के बाद के सालों में जाति पर अपने विचार पर नए सिरे से काम करते हुए सोशल इंजीनियरिंग के सिद्धांत के साथ अपनी राजनीति तैयार की. आरएसएस/भाजपा गठबंधन द्वारा गुजराती पूंजीपतियों के प्रतिनिधि, ओबीसी पहचान वाले नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय पटल पर लाया गया था. 2014 के आम चुनावों के बाद उन्होंने ओबीसी को वही जगह देना शुरू किया, जो कांग्रेस अपने सत्तात्मक ढांचे में द्विजों की जगह कम किए बिना मुसलमानों को दे रही थी. यह हिंदुत्ववादियों द्वारा संसद में बहुमत हासिल करने का एक नया और अप्रत्याशित तरीका है.

अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति आरक्षित जगहें हमेशा की तरह ही रहीं, सिवाय आरएसएस/भाजपा के दलित, आदिवासियों समेत जातिगत पहचान के बारे में खुलकर बात करने के. 2017 में एक दलित (रामनाथ कोविंद) और 2022 में एक आदिवासी महिला (द्रौपदी मुर्मू) को राष्ट्रपति भवन पहुंचाने के आरएसएस/भाजपा गठबंधन के जातिगत पहचान (Caste Identity) के आक्रामक अभियान ने कांग्रेस और उत्तर भारत के क्षेत्रीय दलों को चित कर दिया.

जातिगत पहचान के सवाल को इतने खुले तौर पर स्वीकाने के लिए कांग्रेस और वामपंथियों के पास किसी तरह की ऐसी कोई वैचारिक नीति नहीं है. चुनावी लामबंदी के लिए  वे अभी भी धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक विविधता और वर्ग के सवालों के इर्द-गिर्द घूमते हैं, लेकिन मंडल और हिंदुत्व की संयुक्त विचारधारा के सामने उस विचारधारा की सीमाएं हैं. ओबीसी  ने भी अल्पसंख्यकवाद के बारे में एक नकारात्मक दृष्टिकोण विकसित किया क्योंकि वे हर स्तर पर सत्ता में हिस्सा चाहते थे, जो कांग्रेस ने कभी नहीं दिया.

2014 के बाद के चुनावों में आरएसएस/भाजपा द्वारा उन्हें स्पष्ट तौर पर जगह देने के बाद दलित-बहुजन वैचारिक ढांचे में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह रहा कि ओबीसी/एससी/एसटी और अल्पसंख्यक एकता खो गई. एससी/एसटी/ओबीसी संगठनों ने लंबे समय तक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों को एकीकृत करने की विचारधारा के साथ काम किया. लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने महसूस किया कि पूरे मंडल चरण के दौरान मुसलमान उस खांचे में कभी नहीं आए. उन्हें दिल्ली की सत्ता में गैर-भाजपाई गठबंधन सरकारों में हिस्सा मिल रहा था. उस पूरी अवधि के दौरान शूद्र-ओबीसी (भारत में मुस्लिम ओबीसी हैं) को लगा कि कांग्रेस उनके खिलाफ है.

फुले-आंबेडकरवादी विचारधारा को मुसलमानों ने भी स्वीकार नहीं किया. शायद उनके लिए ऐसा करना उनके इस्लामी आध्यात्मिक वैचारिक रूढ़िवाद के अनुकूल नहीं था. कुल मिलाकर मुसलमान चुनावी उद्देश्यों और सामुदायिक भलाई के लिए कांग्रेस या कुछ क्षेत्रीय दलों के साथ बने रहे. 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से आरएसएस/भाजपा ने ओबीसी को वही जगह दी है जो कांग्रेस ने मुसलमानों को दी थी. यह एक प्रमुख वैचारिक बदलाव और नई पहचान और आकांक्षा एहसास है. इसने हिंदुत्व गुट को मजबूत किया और इसलिए यह विशेष रूप से अधिक से अधिक मुस्लिम विरोधी और सामान्य तौर पर अल्पसंख्यक विरोधी बन गया.

लेकिन हिंदुत्ववादी ताकतें हिंदू धर्म के भीतर जाति आधारित असमानताओं के बारे में पूरी तरह से खामोश हैं. उस क्षेत्र में मनुधर्म अपने पुराने तरीके से ही काम करता है.

कई बाधाओं के बावजूद आंबेडकर संवैधानिक ढांचे के भीतर द्विज नेताओं और बुद्धिजीवियों के भारी प्रतिरोध के बावजूद अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति आरक्षण के फार्मूले को संस्थागत बनाने में कामयाब रहे. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए शिक्षा, रोजगार और चुनावी प्रतिनिधित्व सभी में आरक्षण की इस संवैधानिक गारंटी से दलित बुद्धिजीवियों और नेताओं का उदय हुआ. पेरियार रामासामी और डीके/डीएमके आंदोलनों और राजनीति ने 1990 तक ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को जीवित रखा. इसके बाद मंडल आंदोलन और 1990 में वीपीसिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की रिपोर्ट के अमल के साथ ओबीसी का सवाल ने एक गंभीर मोड़ लिया, जिसे क्रिस्टोफर जेफ़रलॉ ने ‘मूक क्रांति’ कहा है.

लेकिन वह क्रांति अब हिंदुत्व को स्थापित करने और इसे बाकियों द्वारा अपनाये जाने के इर्द-गिर्द घूमती है.

नव-मध्यम वर्ग के ओबीसी ने हिंदुत्व की ताकतों के साथ राजनीति साझा करके उस क्रांतिकारी भावना को ख़त्म कर दिया. यह एक नई परिघटना है, लेकिन इसकी जिम्मेदारी काफी हद तक कांग्रेस और वाम-उदारवादी मूक ब्राह्मणवाद की है. बहुसंस्कृतिवाद के नाम पर दिल्ली की सत्ता में ओबीसी/एससी/एसटी हिस्सेदारी की कीमत पर अल्पसंख्यकवाद ने भारत को हिंदुत्ववादी ताकतों की गोद में ला खड़ा किया.

मंडल आंदोलन के बाद दलित-बहुजन विचारधारा ने एक बड़ा बदलाव हुआ और यह हिंदुत्ववादी ताकतों के साथ सत्ता साझा करने लगी, जो वर्तमान संविधान और लोकतंत्र के लिए खतरा है क्योंकि आरएसएस ने अपनी मनुधर्म वाली विचारधारा को छोड़ा नहीं है. आरएसएस की निजीकरण की विचारधारा के माध्यम से द्विज एकाधिकार क्रोनी पूंजीवाद बड़े पैमाने पर निजी लाभ और धन हासिल कर रहा है. रोजगार की शून्य वृद्धि हिंदुत्व की वृद्धि है.

एक निर्णायक बदलाव

मसला केवल निर्वाचित निकायों में आरक्षण और प्रतिनिधित्व का नहीं है. मंडल ने राष्ट्रीय, सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक ढांचे को काफी निर्णायक रूप से बदल दिया. इसने ओबीसी/दलित/आदिवासियों के जीवन में एक मूक क्रांति ला दी, क्योंकि इसने जाति असमानता को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक और बौद्धिक पड़ताल के दायरे में ला के खड़ा कर दिया. लेकिन मंदिर के एजेंडा ने उस क्रांति की भावना को खत्म कर दिया और खतरा यह है कि हिंदुत्व को नियंत्रित करने वाली ताकतों का कोई राष्ट्रीय विकल्प नहीं है क्योंकि कांग्रेस अपनी दिशा और संगठनात्मक क्षमता दोनों खो चुकी है.

कांग्रेस को किता भी मुस्लिम समर्थन प्राप्त हो जाए, लेकिन उसकी बराबरी भाजपा को मिले ओबीसी समर्थन आधार से नहीं की जा सकती.

वाम-उदारवादियों के ‘वर्ग-नहीं-जाति’ वाले बौद्धिक प्रतिमान पर जीवन के हर क्षेत्र में हमला किया गया. मंडल आंदोलन और ओबीसी पहचान समझ जागने के तुरंत बाद, कुछ समय के लिए वाम-उदारवादी और हिंदुत्व प्रतिरोध के बावजूद, जाति-विरोधी राजनीतिक लामबंदी ने कांग्रेस और वाम दलों की जड़ों को हिलाकर रख दिया है.

दलित-बहुजनों के लिए आजादी के 75 साल, संघर्षों की वो गाथा है, जिसे उन्होंने महात्मा फुले, पेरियार रामासामी और आंबेडकर द्वारा मिले हथियारों उनका सहारा बने. देश का असल भविष्य, कम से कम 2047 में स्वतंत्रता के शताब्दी समारोह तक, इस संविधान के अस्तित्व पर निर्भर करता है.

मैं उम्र के 70वें दशक में हूं और अब से 25 साल बाद संवैधानिक लोकतंत्र के 100 साल पूरे होने के महान दिन को देखने के लिए मौजूद नहीं रहूंगा. लेकिन मैं उम्मीद करता हूं कि देश की सभी जातियों, समुदायों और धर्मों में पैदा हुए और होने वाले बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए लोकतंत्र 2047 और उससे आगे आने वाली कई शताब्दियों तक जीवित रहना चाहिए.

(कांचा इलैया शेफर्ड राजनीतिक विश्लेषक, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)

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