श्रीकांत वर्मा: तुम जाओ अपने बहिश्त में, मैं जाता हूं अपने जहन्नुम में

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: श्रीकांत वर्मा ने कहा था कि ‘कैंसर से मरती हैं हस्तियां/हैजे से बस्तियां/वकील रक्तचाप से/कोई नहीं मरता/अपने पाप से.' क्या हम आज ऐसे ही नीति-शून्य लोकतंत्र में नहीं रह रहे हैं? कवि आपको किसी नरक या पाप से मुक्ति नहीं दिला सकता: वह उसकी शिनाख़्त करने का साहस भर दे सकता है.

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श्रीकांत वर्मा. (जन्म: 18 सितंबर 1931– अवसान: 25 मई 1986) (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: श्रीकांत वर्मा ने कहा था कि ‘कैंसर से मरती हैं हस्तियां/हैजे से बस्तियां/वकील रक्तचाप से/कोई नहीं मरता/अपने पाप से.’ क्या हम आज ऐसे ही नीति-शून्य लोकतंत्र में नहीं रह रहे हैं? कवि आपको किसी नरक या पाप से मुक्ति नहीं दिला सकता: वह उसकी शिनाख़्त करने का साहस भर दे सकता है.

श्रीकांत वर्मा. (जन्म: 18 सितंबर 1931– अवसान: 25 मई 1986) (फोटो साभार: राजकमल प्रकाशन)

लोकरुचि से अपने को दूर करना एक ग़ैर-लोकतांत्रिक और अभिजात कर्म माना जाता है. ऐसा माने जाने का ख़तरा उठाते हुए मैं और मेरा परिवार पिछले लगभग दस वर्षों से टेलीविजन नहीं देखते. एक पुराना, संभवतः बेकार पड़ गया सेट है ज़रूर, पर उसे एक दशक से निष्क्रिय होने के कारण शायद कुछ दिखाने का अपना काम भी याद न रहा होगा.

यह किसी साहस का मामला नहीं है, जैसा कि एक अन्‍य और व्यापक प्रसंग में एक पोलिश कवि ने कहा था, यह रुचि का मामला है. मेरी रुचि झूठों के लगातार बढ़ते अंबार, परस्पर घृणा के विस्तार, चैनलों द्वारा अथक सत्ता के महिमामंडन, झगड़ालू और लांछनभरी भाषा आदि में नहीं है, सो नहीं देखता हूं.

अधिकांश चैनल और उनके कई ‘प्राइम टाइम’ कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हैं और ज़ाहिर है कि उन्हें करोड़ों लोग बहुत रुचि लेकर देखते हैं. इन्हीं में से कुछ करोड़ लोक आक्रामक-हिंसक-घृणा फैलाऊ हिंदुत्व को अपना समर्थन भी देते हैं. यह सब मुझे पता है, पर मैं इस लोकरुचि अपने को अलग रखता हूं.

उससे कुछ ख़ास नहीं होता. मुझे इतना भर लगता है कि मैं हर शाम झूठ और घृणा से बच जाता हूं और मेरी भाषा मलिन होने से. इतना काफ़ी है और अभी लोकतंत्र में इतना कर पाने की स्वतंत्रता बची है.

करोड़ों लोगों के मन में लोकनायक वही हैं जिन्हें आजकल मीडिया बहुत उत्साह और अपार साधनों से लोकनायक बना रहा है: राजनेता, अभिनेता, खिलाड़ी और अपराधी. अव्वल तो लोकतांत्रिक समाज को किसी नायक की ज़रूरत नहीं होना चाहिए. दूजे, अगर मुझे नायक चुनना ही हो तो वे लेखक-कलाकार-बुद्धिजीवी और अनेक सामाजिक क्षेत्रों में नई पहल करनेवाले साधारण लोग होंगे.

कई बार लगता है कि सत्ता स्वतंत्रता में तो कटौती कर सकती है पर सर्जनात्मकता और विचार को रोक या दबा नहीं सकती. कम से कम इतनी सचाई और संभावना अभी बनी हुई है.

यह ख़याल भी आता है कि क्या सचाई और संभावना लगातार ख़तरे में नहीं पड़ रही है? सत्ता-भक्ति मीडिया भर में नहीं कलाओं में भी बढ़ रही है. ख़ासकर शास्त्रीय कलाओं में जहां ऐसा होने का एक तर्क यह है कि इन कलाओं को किसी समर्थन चाहिए और वह सत्ता से ही मिल सकता है.

अगर कलाएं भी सत्ता-परस्त हो जाएं तो लोकतंत्र की सचाई और संभावना दोनों ही सीमित हो जाएंगी. जैसा कि लोककलाओं के क्षेत्र में सदियों से होता आया है, वे सत्ता पर नहीं अपने समाज और समुदाय के समर्थन पर जीवित और सक्रिय रही आई हैं. क्या हमारा पढ़ा-लिखा समाज शास्त्रीय और अन्य कलाओं के लिए ऐसा वैकल्पिक समर्थन दे सकता है?

अगर वह चाहता है कि हमारा लोकतंत्र सशक्त और समृद्ध हो तो उसे इस बारे में सोचना चाहिए. पर अपनी कलाओं की चिंता करने वाला समाज हम कितना कम रह गए हैं.

नरक में झांकने वाला कवि

लगभग साठ बरस पहले श्रीकांत वर्मा के एक कविता संग्रह की ‘धर्मयुग’ में लंबी समीक्षा करते हुए मैंने उन्हें ऐसा कवि बताया था जिसने हमारे समकालीन नरक का भूगोल अपनी कविता में दिखाया-खोजा है. फिर जब उनका एक और विचारोत्तेजक संग्रह ‘मगध’ नाम से नवें दशक में आया तो मैंने उन्हें ‘सत्ता की अंततः विफलता का कवि’ बताया.

सितंबर महीने में उनकी जन्मतिथि पड़ती है और मुझे लगता है कि ‘समकालीन नरक’ और ‘सत्ता की अंततः विफलता’ दोनों ही अवधारणाएं ऐसी है, जो इस समय हमारे लड़खड़ाते लोकतंत्र के लिए प्रासंगिक हैं.

सत्तर के दशक में अपने कवितासंग्रह ‘मायादर्पण’ में श्रीकांत वर्मा ने पूरी बेबाकी से कहा था: ‘तुम जाओ अपने बहिश्त में/मैं जाता हूं/अपने जहन्नुम में.’ आज कोई भी सजग कवि बल्कि नागरिक भी क्या ऐसे ही बहिश्त और जहन्नुम के बीच नहीं फंसा है?

जहन्नुम का ख़ाका खींचते हुए कवि ने यह भी कहा था: ‘मैं यह अच्छी तरह जानता हूं /किसी के न होने से/कुछ भी नहीं होता,/मेरे न होने से कुछ भी नहीं हिलेगा./ मेरे पास कुर्सी भी नहीं जो ख़ाली हो./मनुष्य वकील हो, नेता हो, संत हो मवाली हो/– किसी के न होने से कुछ नहीं होता.’

आगे उन्होंने यह भी कहा कि ‘कैंसर से मरती हैं हस्तियां,/ हैजे से बस्तियां,/वकील रक्तचाप से,/कोई नहीं मरता/अपने पाप से.’

क्या हम आज ऐसे ही नीति-शून्य लोकतंत्र में नहीं रह रहे हैं? कवि आपको किसी नरक या पाप से मुक्ति नहीं दिला सकता: वह आपको अपने नरक और अपने पाप की शिनाख़्त करने का साहस भर दे सकता है.

आजकल हम बेहद सत्ताक्रांत हैं. श्रीकांत वर्मा जीवन के उत्तरकाल में सत्ता के बहुत निकट थे. किसी हद तक उन्होंने व्यक्ति के रूप में सत्ता का उपभोग भी किया था. पर कवि के रूप में उन्होंने सत्ता के चरित्र की जो चीरफाड़ अपने कवितासंग्रह ‘मगध’ में की वह हिन्दी में अनोखी है.

वे यह देख पाए कि ‘कोसल’ अधिक दिन टिक नहीं सकता क्योंकि ‘कोसल में विचारों की कमी है.’ उन्होंने एक तीसरे रास्ते की संभावना पर भी विचार किया और कहा कि तीसरा रास्ता भी है पर वह सत्ता-केंद्रों अवन्ती आदि से होकर नहीं जाता है.

आज हम क़िकर्तव्यविमूढ़ हो रहे हैं. ध्रुवांतों के बीच कोई रास्ता खोज पाना लगभग असंभव लगता है. यहीं एक कवि का विवेक हमारी मदद कर सकता है. क्या हम इस मुक़ाम पर, जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही बहुसंख्यकतावाद की स्थापना का माध्यम बन गई है, सत्ताकामी राजनीति से अलग हम कोई अधिक मानवीय, अधिक विकेंद्रित राजनीति की संभावना तलाश सकते हैं?

आज श्रीकांत वर्मा के पास जाने का मतलब अपने एक ऐसे पुरखे की परछी में जाना है जिसने गहरे पैशन और गहरी अंतर्दृष्टि के साथ सचाई को दर्ज किया था और जो आज भी हमें अपनी बढ़ती व्यर्थता के बीच कुछ मानवीय और संभव सोच पाने की शक्ति दे सकता है. इस निहत्थे करते जाते समय में ऐसी कविता हमें साहस का कवच दे सकती है.

सब पुस्तकों की पुस्तक

बाइबिल व्यापक रूप से पश्चिमी सभ्यता का संस्थापक ग्रंथ मानी जाती है. हमारे यहां शायद हमारी सभ्यता के संस्थापक ग्रंथ ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ कहे जाएंगे. दो बजाय एक होने के अलावा, एक और अंतर यह है कि ये महाकाव्य हैं, बाइबिल की तरह धर्मग्रंथ नहीं.

यह और बात है कि कम से कम उत्तर भारत में हिन्दी अंचल में तुलसीदास की रामायण ‘रामचरितमानस’ ने लगभग धर्मग्रंथ का दर्ज़ा हासिल कर लिया है.

राबर्तो क्लासो एक इतालवी साहित्यकार थे जिनकी पिछले वर्ष मृत्यु हुई. उन्होंने अपने सुदीर्घ जीवन और सृजन में भारत के वैदिक मिथकों को लेकर बहुत सार्थक उपन्यास और विचार-ग्रंथ लिखे. वे जयपुर साहित्य समारोह में भी आए थे.  उसके पहले एक आयोजन में निर्मल वर्मा के साथ उनसे मुलाक़ात हुई थी. तब उनका उपन्यास ‘क’ बहुत चर्चा में था.

उनकी नई पुस्तकअंग्रेज़ी अनुवाद में, ‘द बुक ऑफ ऑल द बुक्स’ एलेन लेन ने प्रकाशित की है. यह बाइबिल में समाहित अनेक कथाओं की ऐसी पुनर्रचना है कि उनसे बाइबिल पर बहुत अप्रत्याशित और बेचैन करनेवाली रोशनी पड़ती है.

बाइबिल के प्रदेश में चहलक़दमी करती यह पुस्तक उसमें वर्णित अनेक प्रसंगों को उनकी संभावना और अलगाव, संशय और आस्था, प्रश्नवाचकता और विवाद, आश्वस्ति और संदेह में उनका बेहद दिलचस्प पुनर्पाठ करती है. यह गल्प की पुस्तक है और शुरू होती है एक प्रसंग से जिसमें एक व्यक्ति उसके पिता द्वारा कुछ गधों की तलाश करने भेजा जाता है और जो रास्ते में अपने लोगों द्वारा अपना राजा बना दिया जाता है.

धर्मग्रंथों में बहुत कुछ ऐसा होता है जो उबाऊ होता है. क्लासो ने एक धर्मग्रंथ को ऐसे पढ़ा है कि उसमें ‘अप्रत्याशित का रमणीय’ प्रगट होता है और हम कथा-रस में डूबते-उतराते हैं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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