‘इकतारा’ हिंदी में बाल साहित्य बचाए रखने का एक सार्थक प्रयास है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बाल साहित्य का परिसर कौतूहल रहस्य, जिज्ञासा, सहज सुषमा, आश्चर्य, अप्रत्याशित आदि मनोभावों से समृद्ध होता है. हम एक तरह की अबोधता के अंचल में दाखिल होते हैं जो हमें अपने कई अपरीक्षित, पर गहरे धंसे पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है.

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(फोटो साभार: इकतारा इंडिया/फेसबुक पेज)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बाल साहित्य का परिसर कौतूहल रहस्य, जिज्ञासा, सहज सुषमा, आश्चर्य, अप्रत्याशित आदि मनोभावों से समृद्ध होता है. हम एक तरह की अबोधता के अंचल में दाखिल होते हैं जो हमें अपने कई अपरीक्षित, पर गहरे धंसे पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है.

(फोटो साभार: इकतारा इंडिया/फेसबुक पेज)

मैंने सपने में भी यह नहीं सोचा था कि भोपाल में चौहत्तर बंगले के जिस एक बंगले में मैंने सपरिवार लगभग 20 बरस गुज़ारे, उससे कुछ दो सौ गज की दूरी पर मालवीय नगर में बाल साहित्य पर एकाग्र एक आत्मीय परिसर ‘इकतारा केंद्र’ बन जाएगा. उसका शुभारंभ 10 सितंबर 22 को कबीर गायन से हुआ: सौभाग्य से किसी वीआईपी को उद्घाटन के लिए जाने की तकलीफ़ नहीं दी गई और शुभारंभ कबीर गायन से हुआ; बिना दीप-प्रज्वलन और माल्यार्पण के.

बड़ी संख्या में चित्रांकनकर्ता और लेखक एकत्र हुए. जहां तक मैं जानता हूं, इतना सुनियोजित-सुकल्पित बाल साहित्य केंद्र हिन्दी में पहला ही है. संयोगवश, ‘इकतारा’ की पहल कई बरसों से बाल साहित्य के चित्रांकनकर्ताओं को ध्यान में लेती रही है और उनकी संभावनाओं और सीमाओं पर गहरा विचार-विनिमय, उनकी कार्यशालाएं आदि आयोजित करती रही है.

बाल साहित्य के कई प्रकाशक भी इस आयोजन में शामिल हुए और उनसे कम से कम इतना तो हम जैसों को पता चला कि बालरचना से चित्रांकन और फिर प्रकाशन की यात्रा ख़ासी लंबी और रोमांचक होती है. ऐसा कम होता है कि पहले चित्रांकन बन जाए और फिर उसे लेकर रचना हो. चित्रांकनकर्ताओं के कई चित्रांकनों की एक प्रदर्शनी भी इस अवसर पर विशेष आकर्षण थी.

‘इकतारा’ के अंतर्गत एक सृजनपीठ भी सक्रिय है जिसमें कई हिन्दी लेखकों ने बच्चों के लिए लिखा है. उनमें विनोद कुमार शुक्ल, अरुण कमल, राजेश जोशी, उदयन वाजपेयी, नरेश सक्सेना, प्रियंवद, तेजी ग्रोवर, असगर वज़ाहत, रुस्तम सिंह आदि शामिल हुए हैं. इनमें से कुछ ने अगले दिन लगभग चार घंटों तक अबाध चले आयोजन में अपनी रचनाएं भी सुनाईं.

उनके अलावा प्रभात, शिराज़ हुसैन, फ़रह अज़ीज, पद्मजा आदि की रचनाओं को सुनकर लगा कि इस क्षेत्र में युवा प्रतिभाएं भी बहुत सशक्त और सर्जनात्मक ऊर्जा के साथ सक्रिय हैं. बहुत-सी रचनाओं को सुनकर यह भी लगा कि वे जितना बच्चों के लिए हैं उतनी ही वयस्कों के लिए.

बाल साहित्य का परिसर कौतूहल रहस्य, जिज्ञासा, सहज सुषमा, आश्चर्य, अप्रत्याशित आदि मनोभावों से समृद्ध होता है. उसमें, सौभाग्य से, हमारी तर्कबुद्धि, सचाई की हमारी पिष्टपेषी अवधारणाएं, हमारी संभावनाओं की भोंथरी समझ आदि स्थगित हो जाती हैं. हम एक तरह की अबोधता के अंचल में दाखिल होते हैं जो हमें अपने कई अपरीक्षित पर गहरे धंसे पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है.

हमें यह चकित बोध होता है कि अभी भी कुछ रचा और बचाया जा सकता है. तक्षशिला फाउंडेशन का यह उपक्रम एक बहुत सार्थक हस्तक्षेप है जिससे हिन्दी का बाल साहित्य का क्षेत्र बेहतर होगा, बदलेगा और उसकी कई विपन्नताएं दूर होंगी.

शब्द और चित्र

‘इकतारा’ के संरक्षक संजीव कुमार और उसके प्रमुख सुशील शुक्ल के आग्रह पर मैंने शब्द और चित्र’ पर कुछ कहने की कोशिश की, विशेषतः इस बात को ध्यान में रखकर कि बड़ी संख्या में देश भर के चित्रांकनकर्ता मौजूद थे.

सूझता यह है कि लिपि, एक तरह से, अक्षर का चित्रांकन ही होती है. शब्द चित्र भी हैं, चित्र शब्द भी हैं. शब्द जो करता है वह चित्र नहीं कर सकता, न ही शब्द वह कर सकता है जो चित्र करता है. दोनों की अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता होती है और वे दो स्वतंत्र भाषाओं का हिस्सा होते हैं.

जब शब्द और चित्र साथ आएं तो दोनों के अर्थ और आशय में कुछ विस्तार, कुछ परिवर्तन होना चाहिए. हम अकसर शब्द में चित्रमयता और चित्र में मुखरता का उल्लेख करते ही हैं: कुछ समान प्रक्रियाएं भी देखी जा सकती हैं जैसे लयात्मकता, संगित, अर्थमयता, पदार्थमयता, अंतर्ध्वनियां आदि.

शब्द का आत्यन्तिक अर्थ होता है पर रंग और रेखा का ऐसा आत्यन्तिक अर्थ नहीं होता. शब्द को अर्थ के क्षेत्र में उतनी स्वच्छंता नहीं है जितनी चित्र को है. एक दूसरा पक्ष यह है कि हम अर्थ की बात शब्द-भाषा में ही कहते हैं, चित्रभाषा में नहीं. शब्द और चित्र एक-दूसरे का स्थानापन्न नहीं हो पाते, न ही वे एक-दूसरे को अपदस्थ कर जगह ले सकते हैं.

हमारे यहां शब्द और चित्र के साहचर्य की लंबी परंपरा है. अकेले तथाकथित मिनिएचर शैलियों में बिहारी की ‘सतसई’, केशव की ‘रसप्रिया’ आदि चित्रित हुई हैं, मुग़ल शैली तो एक तरह से पैदा ही हुई तब जब कश्मीर-ग्वालियर-राजस्थान के चित्रकारों ने अकबर के दरबार में एकत्र होकर, उनके द्वारा करवाए गए वाल्मीकि की ‘रामायण’ के फ़ारसी अनुवाद की पांडुलिपि के अलंकरण के लिए एक साझा शैली बनाई.

आधुनिक काल में रज़ा ने लगभग सौ कैनवासों पर संस्कृत-हिन्दी-उर्दू की काव्‍योक्तियां देवनागरी में अंकित की हैं. हुसैन, गुलाम मुहम्मद शेख, अतुल डोडिया, वी. रमेश आदि थे जब-तब कविता-पंक्तियों को इस्‍तेमाल किया है.

चित्रांकनकर्ताओं की स्थिति और उनसे अपेक्षाएं दूसरे क़िस्म की होती हैं. चित्रांकन स्वतंत्र चित्र-रचना नहीं, वह शब्द-रचना से सीमित-संयमित होता है. चित्रांकन शब्द-रचना का अर्थविस्तार करे, उसे अधिक ग्राह्य या रोचक बनाए, उसे पढ़ने का न्योता दे आदि अपेक्षाएं उससे होती हैं.

चित्रांकन रचना का सहचर-मित्र हो यह उम्मीद करना अनुचित न होगा. उसे रचना में ऐसा कुछ जोड़ना चाहिए जो रचना में नहीं है या प्रगट नहीं है. पर उसे रचना के बुनियादी रहस्य की रक्षा करना चाहिए. अगर उससे रचना को कोई फ़र्क न पड़े तो वह व्यर्थ होगा. वह पाठक के मन में रचना से उत्प्रेरित दृश्यावली के अलावा कई और दृश्यावलियां जगा सकता है.

रचनाएं कई तरह की होती हैं- कुछ मुकम्मल, कुछ खुली हुई, कुछ अधूरी. चित्रांकन मुकम्मल में मुकम्मत जोड़ सकता है, खुली जगहों को भर सकता है, अधूरेपन को कुछ कम कर सकता है. चित्रांकन रचना से पूरी तरह स्वतंत्र कभी नहीं हो सकता पर आदर्श यही होना चाहिए कि जब दो स्वतंत्र कला-वस्तुएं संयुक्त हों तो नए क़िस्म का आनन्द उपजे.

रचना को समझाने के प्रलोभन से चित्रांकन को सावधानी से बचना चाहिए- ख़ासकर बाल साहित्य में ज़ोर आनन्द, मजे़ पर होगा, सीख देने पर नहीं. हो सकता है कि रचनाकार के मन में रचना के सिलसिले में कोई चित्र हो, जगह का चित्र, घर या दृश्य का चित्र, किसी चरित्र का आकार, डीलडौल आदि. रचनाकार जिस हद तक ज़रूरी समझेगा, अपनी रचना में ले जाएगा.

उससे अधिक करना, उसे बढ़ाना या अधिक स्पष्ट करना चित्रांकनकार का काम नहीं. न तो रचना चित्रांकन पर हावी हो, न चित्रांकन रचना पर. दोनों के बीच दोस्ती और संग-साथ हो जो पाठकों को वैसा ही दिखाई दे.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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