क्या हिंदी माध्यम के छात्रों को श्रेष्ठ ज्ञान का अधिकार नहीं है?

हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में पाखंड के अभ्यास के कारण ही हम मध्य प्रदेश की अधकचरी भाषा वाली मेडिकल किताबों का स्वागत करने को तैयार हैं क्योंकि हमें मालूम है कि इसका कोई असर हम पर नहीं पड़ेगा. जिन पर पड़ेगा उनसे हमारी कोई सहानुभूति है नहीं.

/
Bhopal: Union Home Minister Amit Shah and Madhya Pradesh Chief Minister Shivraj Singh Chouhan during the release of the Hindi books for the first year of medical courses as part of a project of the Madhya Pradesh government to impart medical education in the Hindi language, at Lal Parade Ground in Bhopal, Sunday, Oct. 16, 2022. (PTI Photo)(PTI10_16_2022_000120B)

हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में पाखंड के अभ्यास के कारण ही हम मध्य प्रदेश की अधकचरी भाषा वाली मेडिकल किताबों का स्वागत करने को तैयार हैं क्योंकि हमें मालूम है कि इसका कोई असर हम पर नहीं पड़ेगा. जिन पर पड़ेगा उनसे हमारी कोई सहानुभूति है नहीं.

मध्य प्रदेश सरकार द्वारा जारी की गई मेडिकल की हिंदी किताबों पर अंग्रेज़ी नाम देवनागरी में लिखे नज़र आ रहे हैं. (फोटो साभार: फेसबुक/@ChouhanShivraj)

हिंदी में चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने हिंदी किताबें जारी की हैं. किताबों के जो पृष्ठ सार्वजनिक हुए हैं, उनसे मालूम होता है कि इन किताबों को हिंदी की जगह देवनागरी की किताबें कहना अधिक मुनासिब होगा. लोग मज़ाक़ उड़ा रहे हैं कि क्या सरकार भाषा और लिपि का अंतर भूल गई है. लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि शब्द भले ही अंग्रेज़ी के हों, अगर वाक्य हिंदी का है; यानी, अगर उसमें विभक्तियां, क्रियाएं हिंदी की हैं, तो भी पढ़ने वाले को आसानी होगी.

किताबों को इतने लस्टम-पस्टम तरीक़े से छापने की आलोचना के जवाब में कहा जा रहा है कि हमारी आदत सिर्फ़ खुड़च (नुक़्स) निकालने की रह गई है. कम से कम अच्छे इरादे से एक काम शुरू हुआ है. धीरे-धीरे यह बेहतर होता जाएगा. हमें इस इरादे का तो साथ देना चाहिए!

क्या सचमुच? प्रश्न इस सरकार का नहीं. हमारा स्वभाव हो गया है बिना तैयारी के, जैसे-तैसे, फूहड़ तरीक़े से कोई भी बड़ा काम शुरू कर देना. एक बार जब वह शुरू हो जाता है, फिर उसे बेहतर करने की फ़िक्र भी हम छोड़ देते हैं क्योंकि वह काम चल पड़ा होता है.

फिर सवाल यह है कि ये किताबें किसने लिखी हैं. क्या वे अपने क्षेत्र के माहिर विद्वान हैं? क्या हिंदी माध्यम के छात्रों का अधिकार श्रेष्ठ ज्ञान का नहीं है? क्या इन किताबों का पुनरीक्षण किया गया है? ये प्रश्न अगर नहीं किए जा रहे हैं तो उसका कारण यह है कि प्रक्रियाओं के प्रति हमारा आग्रह नहीं के बराबर है. जब बड़े विश्वविद्यालय सेमेस्टर का पाठ्यक्रम सालाना पाठ्यक्रम को दो टुकड़ों में बांटकर बना लेते हैं, फिर भी बड़े बने रहते हैं तो शेष का क्या कहना!

इस कदम के पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं. क्या घर-पड़ोस की भाषा में उच्च शिक्षा नहीं होनी चाहिए? क्या यह सच नहीं कि भाषा बड़ी बाधा है किसी विषय को समझने के रास्ते में? क्या अंग्रेज़ी में दक्षता की कमी बहुत सारे मेधावी विद्यार्थियों को पीछे नहीं धकेल देती?

शिक्षाशास्त्रीय तर्क तो भाषाओं के पक्ष में हैं. जो भाषा विद्यार्थी की आबोहवा में है, उसे ही शिक्षा का माध्यम होना चाहिए. वही ज्ञानार्जन को सुगम कर सकती है. यह मामला जितना सीधा लगता है उतना है नहीं. फ्रांस में फ्रेंच, जापान में जापानी और चीन में चीनी में सारी पढ़ाई होती है फिर भारत में हिंदी में क्यों नहीं?

इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ़ इतना ही है कि भारत का अर्थ एक हिंदी भाषी राज्य नहीं है. तमिल, तेलुगू, मलयालम, मुंडारी, मिज़ो आदि भारत के अलग-अलग प्रदेशों के लोगों की भाषाएं हैं. क्या हम इन सबके लिए हिंदी में किताबें छापना चाहते हैं?

किसी मिजो के लिए हिंदी सीखना अंग्रेज़ी सीखने जैसा ही हो सकता है, कुछ अवसरों पर उससे भी कठिन. अंग्रेज़ी और हिंदी में चुनाव करना हो तो ज़्यादातर लोग अंग्रेज़ी ही चुनेंगे. कारण दिमाग़ी ग़ुलामी नहीं, इस भाषा के साथ जुड़े अवसर हैं.

यह कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश हिंदी भाषी है. वह अगर चिकित्सा की पढ़ाई हिंदी में करे तो किसी दूसरे राज्य को क्यों ऐतराज़ होना चाहिए? बात सही है लेकिन भारत जैसे देश में एक राज्य में शिक्षा लेने के बाद दूसरे राज्य में काम करना पड़ सकता है. क़तई मुमकिन है कि वहां हिंदी काम न आए.

इसके अलावा हम भूल जाते हैं कि वहां दूसरे राज्यों के विद्यार्थी भी दाख़िला लेंगे. इसके अलावा काम के पहले अगर उच्च स्तर की विशेषज्ञता हासिल करने को आगे पढ़ाई करनी हो तो वह भी हो सकता है, हिंदी में पढ़े छात्र को कहीं और करनी पड़े. उसे कैसे साधा जाएगा? हिंदी तो वहां रुकावट बन जाएगी. और क्या मध्य प्रदेश में सिर्फ़ वहीं छात्र पढ़ेंगे? क्या वेल्लोर और पुदुचेरी में पर सिर्फ़ वहीं के विद्यार्थी दाख़िला लेते हैं?

भारत के चिकित्सक पूरी दुनिया में काम करते हैं. वहां यह हिंदी रास्ता कैसे हमवार करेगी? इन प्रश्नों को यह कहकर टाला नहीं जा सकता कि यह जब होगा तब देखा जाएगा. यह कहना कि सारे पारिभाषिक पद तो अंग्रेज़ी में ही हैं, सिर्फ़ लिपि देवनागरी है, इसलिए आगे नागरी की जगह रोमन होने से फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, लचर तर्क है.

हम यह न भूलें कि पढ़ाई का मतलब बीमारियों का इलाज करना भर नहीं, बल्कि इस क्षेत्र में शोध करना भी है. शोध की दुनिया भारत तक सीमित नहीं है. उसमें काम करने के लिए क्या अंग्रेज़ी नहीं सीखनी पड़ेगी?

इस मसले पर मधुर गुप्ता, महेश देशमुख और सुरेश चारी ने एक सर्वेक्षण और अध्ययन किया. हिंदी या दूसरी भाषाओं से स्कूल या स्नातक तक की पढ़ाई किए हुए चिकित्सा शास्त्र के छात्रों और शिक्षकों के  बीच सर्वेक्षण के आधार पर उन्होंने बतलाया कि 89% छात्रों का कहना है कि अंग्रेज़ी को माध्यम के रूप में जारी रहना चाहिए. तक़रीबन सभी अंग्रेज़ी की अंतरराष्ट्रीय उपयोगिता के कारण उसके पक्ष में थे. यह सबने कहा कि स्थानीय भाषाओं की जानकारी आवश्यक है. लेकिन अध्ययन, अध्यापन, शोध की भाषा तो अंग्रेज़ी हो, यह उनका मत है.

क्या यह कदम उच्च शिक्षा से अंग्रेज़ी को हटाकर हिंदी को वह जगह देने की शुरुआत है? फिर इसका विरोध सिर्फ़ तमिलनाडु से नहीं होगा. हिंदी वालों को भी इसका विरोध करना चाहिए. इस प्रश्न को छोड़ भी दें और इस सुझाव पर विचार करें कि पूरी तैयारी के साथ अंग्रेज़ी की जगह भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में जगह देनी चाहिए. यह प्रस्ताव तार्किक लगता है लेकिन यह तुरंत ठुकरा दिया जाएगा.

इसका कारण राजनीतिक और सामाजिक या ऐतिहासिक है. जो लोग शिक्षाशास्त्र के तर्क से हिंदी माध्यम की वकालत करते हैं, वे अपने बच्चों के लिए हिंदी को उच्च शिक्षा में कभी माध्यम नहीं बनाते. इस तरह उनके पास जो सांस्कृतिक पूंजी जमा होती जाती है, वह उन्हें हमेशा समाज का बौद्धिक नेता बनाए रखती है. यह वर्ग विभाजन ही एक तर्क है कि जिनके पास यह सांस्कृतिक पूंजी नहीं है, वे हमेशा अंग्रेज़ी के पक्ष में रहेंगे.

शिक्षाशास्त्र में समानता के सिद्धांत पर कम विचार किया गया है.अंग्रेज़ी  के सहारे समाज में असमानता बनाए रखी जाती है. अगर ऊपर चढ़ने की एक सीढ़ी अंग्रेज़ी है तो उस पर क्यों न चढ़ें ?

मुझे बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ के महासचिव केदारनाथ पांडेय जी से हुई बातचीत की याद है. बिहार में सरकारी स्कूलों पर जनता का विश्वास क्यों ख़त्म हुआ? इसका एक कारण उनके अनुसार कर्पूरी ठाकुर का अंग्रेज़ी की अनिवार्यता समाप्त करने का निर्णय था. बिना अंग्रेज़ी के मैट्रिक का प्रमाण पत्र का जनता की निगाह में कोई मूल्य न रहा, उसका लाभ भले उसने लिया हो.

भारत में औपनिवेशिक हस्तक्षेप के कारण शिक्षा और अंग्रेज़ी के बीच एक अनिवार्य संबंध बन गया है. चूंकि अभिजन ने अपने लिए अंग्रेज़ी का उम्दा इंतज़ाम कर लिया है, वे साधारण जनता को घर की भाषा में शिक्षा की नसीहत दे सकते हैं. जनता इसे संदेह के साथ ही सुनती और नामंज़ूर कर देती है क्योंकि उन्होंने अंग्रेज़ी का माध्यम छोड़ा नहीं है. जब तक यह विभाजित व्यवस्था रहेगी, जनता के अंग्रेज़ी शिक्षा के विषय ही नहीं, माध्यम के रूप  में भी प्रतिष्ठित बनी रहेगी.

भारतीय जनता पार्टी को मालूम है कि उसकी जनता को हिंदी माध्यम का यह प्रहसन इसलिए पसंद है, हालांकि वह इसमें कतई यक़ीन नहीं करती कि यह उसे राजनीतिक वर्चस्व का साधन मालूम पड़ती है. हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान का नारा भारत पर कब्ज़े के लिए बहुत उपयोगी है. व्यावहारिक तौर पर अंग्रेज़ी का इस्तेमाल करते हुए यह नारा लगाया तो जा ही सकता है.

हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में पाखंड के अभ्यास के कारण ही मध्य प्रदेश की अधकचरी, फूहड़ किताबों का स्वागत करने को हम तैयार हैं क्योंकि हमें मालूम है कि इसका कोई असर हम पर नहीं पड़ेगा. जिन पर पड़ेगा उनसे हमारी कोई सहानुभूति है नहीं, भले ही वे हिंदी में नारे लगाते हुए किसी पर हिंसा करते वक्त हमारे अपने होते हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

pkv games bandarqq dominoqq pkv games parlay judi bola bandarqq pkv games slot77 poker qq dominoqq slot depo 5k slot depo 10k bonus new member judi bola euro ayahqq bandarqq poker qq pkv games poker qq dominoqq bandarqq bandarqq dominoqq pkv games poker qq slot77 sakong pkv games bandarqq gaple dominoqq slot77 slot depo 5k pkv games bandarqq dominoqq depo 25 bonus 25 bandarqq dominoqq pkv games slot depo 10k depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq slot77 pkv games bandarqq dominoqq slot bonus 100 slot depo 5k pkv games poker qq bandarqq dominoqq depo 50 bonus 50 pkv games bandarqq dominoqq