कविता बेआवाज़ को आवाज़ देती है, अनदेखे को दिखाती है, अनसुने को सुनाती है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कविता याद रखती है, भुलाने के विरुद्ध हमें आगाह करती है. जब हर दिन तरह-तरह के डर बढ़ाए-पोसे जा रहे हैं, तब कविता हमें निडर और निर्भय होने के लिए पुकारती है. यह समय हमें लगातार अकेला और निहत्था करने का है: कविता हमें अकेले होने से न घबराने का ढाढ़स बंधाती है.

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(पेंटिंग साभार: Michael Creese)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: कविता याद रखती है, भुलाने के विरुद्ध हमें आगाह करती है. जब हर दिन तरह-तरह के डर बढ़ाए-पोसे जा रहे हैं, तब कविता हमें निडर और निर्भय होने के लिए पुकारती है. यह समय हमें लगातार अकेला और निहत्था करने का है: कविता हमें अकेले होने से न घबराने का ढाढ़स बंधाती है.

(पेंटिंग साभार: Michael Creese)

जहां तक हमारी जानकारी है, ऐसा हिन्दी में पहली बार हुआ. यह भी अनुमान है कि ऐसा किसी और भारतीय भाषा में कभी नहीं हुआ. 30 युवा हिन्दी लेखकों ने दो दिन रज़ा और नर्मदा की पुण्यनगरी मंडला में, कृष्णासोबती-शिवनाथ निधि और रज़ा फाउंडेशन के वार्षिक आयोजन ‘युवा-2022’ में भारत के छह हिन्दीतर मूर्धन्य कवियों शंख घोष (बांग्ला), अयप्पा पणिक्कर (मलयालम), हरभजन सिंह (पंजाबी), अख़्तरउल ईमान (उर्दू), अरुण कोलटकर (मराठी) और रमाकांत रथ (उड़िया) पर पूरी तैयारी से, उनके काव्य को हिन्दी अनुवाद में पढ़कर, गंभीरता से विचार और विश्लेषण किया. कुछ वरिष्ठ लेखक पर्यवेक्षक के रूप में शामिल हुए.

सबसे उत्साहजनक बात यह थी कि सभी प्रतिभागी कविताओं को ध्यान से पढ़कर आए थे: इतने सारे लेखक हिन्दीतर कवियों का अनुवाद में पढ़कर आएं यह प्रीतिकर था. कइयों ने अनुवाद में पढ़ने के कारण अपना अनुभव और जानकारी किसी हद तक सीमित होने की बात का ज़िक्र भी किया.

पर जो बात थोड़ी खली वह यह थी कि हालांकि ज़्यादातर प्रतिभागी कवि या कथाकार हैं, उनकी आलोचना में सर्जनात्मक ताप और नवाचार का, कुल मिलाकर, अभाव दीख पड़ा. मैंने उन्हें यह याद दिलाया कि हिन्दी में सृजनशील लेखकों द्वारा जो आलोचना लिखी गई है वह अज्ञेय, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा, विजय देव नारायण साही आदि के यहां हमेशा नवाचारी रही है और ऐसे अनेक पद, शब्द-समुच्चय, अवधारणाएं, उक्तियां आदि हैं जो इन्हीं से आई हैं और बहुत व्याप्त हैं.

युवा लेखक अनेक सामान्यीकरणों का बड़ी उदारता से उपयोग करते हैं जबकि अवधारणाओं की व्यापक दुर्व्याख्या के इस समय में परंपरा, आधुनिकता, यथार्थ, पश्चिमी प्रभाव, समय, आत्म सरोकार, समाज, आम आदमी, समयबोध, सरलता, जटिलता, प्रासंगिकता आदि शब्द और पद सूक्ष्म विश्लेषण और नई सत्यनिष्ठ व्याख्या की मांग करते हैं.

इन लेखकों में स्वयं उनके नवाचारी सृजन का ताप, चमक, लपट इतनी कम क्यों है, जब वे आलोचना लिखते हैं, यह समझ में आना मुश्किल है. जो कुछ अबूझ या रहस्यमय लगे उसे चलताऊ ढंग से अमूर्त या अमूर्तन कह देना बौद्धिक असावधानी है. ऐसा भी लगा कि इस संभावना पर गहराई से विचार नहीं किया जा रहा है कि निजता से, निराशा से महत्वपूर्ण सृजन संभव है- हुआ ही है.

ऐसा नहीं है कुछ युवा बंधुओं ने इस तरह की कोशिश नहीं की. मैंने इस सिलसिले में जो कुछ नई अभिव्यक्ति नोट की उनकी एक छोटी-सी सूची यह है: ‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहने वालों के हुजूम’, ‘ऐन्द्रिक गौचरता’, ‘होने के आधिपत्य’, ‘कविता ज़िंदगी का लिखत ही तो है’, ‘कल्पना और रोमांस के लिए प्रयुक्त औजारों से यथार्थ और दुख की पोटली खोलना’, ‘शब्दों की मटियारी महक’, ‘सामाजिक बसाहट का वितान’, ‘रोष में भी एक क़िस्म की उदासी’, ‘शब्द-श्रृंगार उसका अधिकार है’, ‘अनिमंत्रित आवेग या ग़ैरज़रूरी आवेश के बिना’, ‘अनेक अर्थछटाओं का एक सतरंगा इन्द्रधनुष’, ‘अपने आतर अवचेतन की गिरहें खोलते हुए सामूहिक अवचेतन तक उतरने चले जाते हैं’, ‘ऐसा निर्मम मार्मिक एवं विरल बिंब’, ‘घुसपैठ विचारों का सौदागर’.

कई लेखकों ने कुछ हिन्दी कवियों से इन कवियों का कुछ साम्य भी खोजा. हमने विचार-विमर्श के लिए जो छह कवि चुने, उनसे अलग भी कवि हो सकते थे. पर हर भाषा से एक ही कवि लेने की बाध्यता सी थी. अन्यथा, उदाहरण के लिए, अकेली मराठी से ही विन्दा करन्दीकर, दिलीप चित्रे, नामदेव ढसाल, नारायण सुर्वे में से भी कोई हो सकता था.

कविता की पुकार

‘साहित्य आज तक’ नामक आयोजन में हमारे सत्र का विषय तो था ‘कविता की पुकार’ जिसमें अरुण कमल और अनामिका शामिल थे. पर पहला प्रश्न उठाया गया सत्ता और कविता के संबंध को लेकर. मैंने यह कहा कि सत्ता और कविता का संबंध हमेशा तनाव का होता है. ऐसे समय में, जब सत्ता हिंसक-क्रूर आतंककारी और लोकतंत्र-विरोधी हो जाए जैसी कि वह, इस समय दुर्भाग्य से, होती लगती है तो वह विरोध का समय हो जाता है, अन्यथा वह असहमति और प्रश्नांकन का तो बना रहता है.

पिछले सौ से अधिक वर्षों का साहित्य का इतिहास बताता है कि वह औपनिवेशिक सत्ता, लोकतांत्रिक सत्ता के विरोध में ही रहा है. इस दौरान सत्ता से समरस या उसके पक्ष में अगर कुछ साहित्य रचा भी गया है तो उसे तब भी और आज तक महत्वपूर्ण नहीं माना गया है. विरोध या असहमति, प्रश्नांकन और आलोचना का अधिकार साहित्य स्वयं आत्मालोचक होकर अर्जित करता है. यह साहित्य का स्वभाव है: महादेवी के शब्दों में ‘शापमय वर’ है.

हमारा समय कुछ अधिक ही चीख़-पुकार का है और इसमें कविता की पुकार अनसुनी जा सकती है: अक्सर जाती है. राजनीति, धर्म, बाज़ार और मीडिया, लगभग चौबीसों घंटे, चीख़-पुकार रहे हैं कोई एजेेडा, कोई आस्था, कोई चीज़, कोई अफ़वाह बेचने के लिए. कविता के पास बेचने को कुछ भी नहीं है. वह तो सिर्फ़ हमारी कई बार निष्क्रिय हो गई मानवीयता को पुकारती है- उसकी जटिलता, कठिनाई, अदम्यता की याद दिलाती है.

कबीर ने कहा था: ‘ताते अनचिन्हार मैं चीन्हा’. वैसे, कविता सिर्फ़ पुकारती भर नहीं है- वह बुदबुदाती, कानाफूसी करती, चीख़ती, रोती, ललकारती, हकलाती आदि है. कविता की पुकार में हम अपनी पुकार सुन सकते हैं. कविता उन्हें आवाज़ देती है जिनके पास आवाज़ नहीं है जैसे चीज़ें, वंचित समुदाय और लोग, प्रकृति आदि.

कविता बेआवाज़ को आवाज़ देती है, अनदेखे को दिखाती है, अनसुने को सुनाती है, अबूझ को बूझती है. वह सोचने के लिए, चेतावनी देने के लिए, चौकन्‍ना करने के लिए, अंत:करण को जगाने के लिए, दूसरों को अपनाने के लिए, बदलाव लाने और विकल्‍प सोचने-समझने के लिए पुकारती है.

कविता याद रखती है, भुलाने के विरुद्ध हमें आगाह करती है, याद दिलाती है और याद को नष्ट या अपदस्थ होने से बचाती है. जब हर दिन तरह-तरह के डर बढ़ाए-पोसे जा रहे हैं, तरह-तरह से हमें डराया जा रहा है, तब कविता हमें निडर और निर्भय होने के लिए पुकारती है. यह समय हमें लगातार अकेला और निहत्था करने का है: कविता हमें अकेले होने से न घबराने का ढाढ़स बंधाती है. अधीर समय में वह धीरज का मुक़ाम बनती है.

यह सवाल तो पिछले दिनों बहुत तीख़ेपन से उठता रहा है कि हमारे समय में कविता क्या करती, क्या कर सकती है? राजनीति जब हत्या-हिंसा-घृणा-अलगाव-भेदभाव-अन्याय का पोषण कर रही है, राज पर सब कुछ एकाग्र कर नीति को लगातार त्याग रही है, धर्म जब अपने अध्यात्म उदात्तता, उदारता, बहुलता से दूर जाते हुए खूंख़ार और हिंसक हो रहे हैं, बाज़ार जब हर चीज़ को बिकाऊ बनाने पर उतारू है और समाज को अपदस्थ कर रहा है, मीडिया जब झूठ, घृणा, अपराध, हिंसा, अफ़वाहों के प्रचार-प्रसार और सत्ता के महिमामंडन में पूरी बेशर्मी से व्यस्त हैं, तब कविता राज को नीति की याद, धर्म को अध्यात्म की सुध, बाज़ार को ज़िम्मेदारी की चेतावनी, मीडिया को प्रश्नवाचकता, स्वाभिमान और स्वतंत्रता पर लौटने की सलाह देती है.

वह कहती है ‘जो अनीति कछु भाखौ भाई, तो मोहि बरजहु भय बिसराई (तुलसीदास द्वारा राम से कहलायी उक्ति), ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ (निराला), ‘अभी कुछ और है जो कहा नहीं गया’ (अज्ञेय), ‘मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम’ (मुक्तिबोध), ‘इस क़दर कायर हूं कि उत्तर प्रदेश हूं’ (धूमिल), ‘कोसल में विचारों की कमी है’ (श्रीकांत वर्मा).

यह पुकार हमेशा दस्तक है, आवाज़ है, उद्वेलन है, सत्यापन है कि हम मनुष्य हैं और अब भी बेहतर दुनिया सोच-बना सकते हैं.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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