जो गुन नहीं गाएंगे, मारे जाएंगे: क्यों संत पलटूदास को अयोध्या में ज़िंदा जला दिया गया था?

अयोध्या में 18वीं शताब्दी में वर्ण-व्यवस्था का अतिक्रमण कर जाति, संप्रदाय, हिंसा व जीव हत्या का मुखर विरोध व सामाजिक समानता की पैरोकारी करने वाले संत पलटूदास को अजात घोषित कर ज़िंदा जला देना इस बात का प्रमाण है कि देश में पागलपन में शामिल न होने वालों को मार देने का सिलसिला बहुत पुराना है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

अयोध्या में 18वीं शताब्दी में वर्ण-व्यवस्था का अतिक्रमण कर जाति, संप्रदाय, हिंसा व जीव हत्या का मुखर विरोध व सामाजिक समानता की पैरोकारी करने वाले संत पलटूदास को अजात घोषित कर ज़िंदा जला देना इस बात का प्रमाण है कि देश में पागलपन में शामिल न होने वालों को मार देने का सिलसिला बहुत पुराना है.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे/मारे जाएंगे
कठघरे में खड़े कर दिए जाएंगे, जो विरोध में बोलेंगे
जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएंगे

बर्दाश्त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज हो
‘उनकी’ कमीज से ज्यादा सफेद
कमीज पर जिनके दाग नहीं होंगे, मारे जाएंगे
धकेल दिए जाएंगे कला की दुनिया से बाहर, जो चारण नहीं
जो गुन नहीं गाएंगे, मारे जाएंगे

धर्म की ध्वजा उठाए जो नहीं जाएंगे जुलूस में
गोलियां भून डालेंगी उन्हें, काफिर करार दिए जाएंगे
सबसे बड़ा अपराध है इस समय
निहत्थे और निरपराधी होना
जो अपराधी नहीं होंगे
मारे जाएंगे.

हिंदी के वरिष्ठ कवि राजेश जोशी ने ‘मारे जाएंगे’ शीर्षक यह कविता सितंबर, 1988 में रची थी. उसके बाद से देश की नदियों में बहुत पानी बह चुका है और कई बार सरकारें बदल चुकी हैं. लेकिन ‘मारे जाएंगे’ का यह सत्य है कि बदलने को ही नहीं आ रहा. उल्टे ज्यादा कटु, क्रूर व निर्वसन होकर पागलपन में शामिल न होने के खतरों को और दुर्निवार बनाता जा रहा है.

कई लोग कहते हैं कि यह राजेश के उक्त कविता रचने से पहले भी इतना ही क्रूर था. निस्संदेह, वे ऐसा इसलिए कहते हैं कि उसकी वर्तमान क्रूरताओं को क्रूरताएं कहते उनकी जबान कटने लगती है अथवा अंदेशे सताने लगते हैं. फिर भी इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि इस देश में पागलपन में शामिल न होने वालों के मारे जाने का सिलसिला बहुत पुराना है और उसकी जड़ें न सिर्फ शोषण व गैर-बराबरी पर आधारित राजनीति में बल्कि उसकी जाई सामाजिक (पढ़ें: असामाजिक) व्यवस्था में भी हैं.

अयोध्या में अठारहवीं शताब्दी में वर्णव्यवस्था का अतिक्रमण कर जाति, संप्रदाय, हिंसा व जीव हत्या का मुखर विरोध व सामाजिक समानता की हर संभव पैरोकारी करने वाले संत पलटूदास को जिस तरह इस सबका कसूरवार ठहराकर पहले अजात घोषित किया, फिर जिंदा जला दिया गया, वह भी इसी तथ्य की गवाही देता है.

प्रसंगवश, कबीर की निर्गुण परंपरा से आने वाले संत पलटूदास का मानना था कि हिंदू और मुसलमान इस मुल्क की दो फसलें हैं- मुसलमान रबी तो हिंदू खरीफ. इसलिए इन दोनों को सही राह दिखाना उनका दायित्व है. लेकिन यही दो क्यों, वे मानते थे कि बादशाह भी कुछ अकरणीय करता दिखे तो उसे आईना दिखाना संत का फर्ज है. इसी तरह उसे ब्राह्मण व बनिये को भी आईना दिखाना चाहिए और कभी किसी शासक को, वह कितना भी ताकतवर क्यों न हो, प्रणाम, सलाम या नमस्कार नहीं करना चाहिए. न ही उससे कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए. क्योंकि संत किसी से उपकृत होगा तो फिर उसका मुजरा ही करता रह जाएगा!

वे पूछते थे कि किसी संत ने सिर्फ धर्मग्रंथों की बात ही कही तो क्या कही? अपने अनुभवों से कुछ नया नहीं कहा तो वह संत कैसा? फिर बताते थे कि उसे चाहिए कि लोगों को जो कुछ भी बताए, पहले उसे अपनी आंखों से देखे, हृदय में आलोड़ित करे और दिमाग की तुला पर तौले. वे इसे यह ‘सहज विवेक’ का मार्ग बताते थे और ‘सहज समाधि’ में विश्वास करते थे.

पलटूदास की जन्म वर्ष व जन्म स्थान वगैरह का ठीक से पता नहीं चलता. भक्तिसाहित्य के मर्मज्ञ सदानंद शाही भी बस इतना बताते हैं कि वे विक्रम संवत की उन्नीसवीं शताब्दी में विद्यमान थे और अवध के नवाब शुजाउद्दौला (1754-1775) व देश के मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय (1760-1806) के समकालीन थे.

उनका जन्म अवध के फैजाबाद व आजमगढ़ जिलों के सीमावर्ती नगजलालपुर नामक गांव के एक कांदू बनिया परिवार में संवत 1780 में हुआ बताया जाता है और वरिष्ठ कवि व आलोचक बलदेव वंशी के अनुसार उनका जीवनकाल सन् 1710 से 1780 ई. के मध्य रहा होगा.

वंशी बताते हैं कि उन्हें पलटूदास नाम उनके गुरु गोविंददास (गोविंद साहब) द्वारा तब दिया गया, जब उनका मन मोह-माया समेत सारी आसक्तियों से ‘पलट’ गया. उनके इस पलटने को लेकर गुरु  ने आह्लादित होकर कहा कि ‘यह तो पलट गया, पलटू हो गया’, तो उन्होंने उनका आशीर्वाद मानकर यह नाम धारण किया और पहले का नाम, धाम, जन्मतिथि व परिचय सब भुला दिए. अलबत्ता, संत बनने के बाद भी उनकी जाति उनके उत्पीड़न का आधार बनी रही, इसलिए चाहकर भी उसे नहीं भूल पाए.

यहां जानना दिलचस्प है कि गुरु बनने से पहले गोविंददास या गोविंद साहब उनके साथी हुआ करते थे- उनके पुराहित के परिवार के सदस्य, जो कभी उनके साथ तो कभी अलग सत्य की तलाश में भटकते रहते थे. इसी तलाश में एक बार पलटू काशी की ओर गए और गोविंददास जगन्नाथपुरी की ओर.

लेकिन कहते हैं कि बाद में पलटू ने पाया कि गोविंद ने भीखा साहेब से भेंटकर सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जबकि अयोध्या लौटकर गृहस्थाश्रम व काम-धंधे के फेर में फंसे रहकर वे उससे वंचित रह गए हैं, तो उन्होंने गोविंददास को गुरु मान लिया, खुद को कबीर और उनको रामानंद कहने लगे.

आगे चलकर अपनी ‘बानियों’ में कबीर जैसी दृढ़ता, साहस व प्रतिभा से विवेकपूर्वक व निर्द्वंद्व जीवनयापन के संदेश देकर उन्होंने खुद को ‘दूसरा कबीर’ सिद्ध कर दिया तो निर्गुण संत परंपरा भी उन्हें ‘कबीर का अवतार’ मानने लगी.

यहां दो बातें गौरतलब हैं. पहली यह कि उनका साथी को ही गुरु बनाना संत परंपरा का विरलतम उदाहरण तो है ही, इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि निर्गुण संत परंपरा शास्त्र को नहीं गुरु को ही प्रमाण मानती है. उसी का महिमा गान भी करती है.

दूसरी यह कि आज की राजनीति में अपनी नैतिकताओं व विचारों से पलटने वालों को ‘पलटूराम’ या ‘पलटूदास’ करार देने का जो चलन चल पड़ा है, वह संत पलटूदास के प्रति न्याय नहीं करता. क्योंकि संत के रूप में उन्होंने अपने लिए तमाम विभाजनों को ढहाने वाली सांस्कारिक क्रांति के अग्रदूत की जो भूमिका चुनी, उससे कभी नहीं पलटे.

ऐसे में अपनी चुनी भूमिका से पलटने वालों को उनका नाम देना उनके साथ वैसा ही अन्याय है, जैसा अयोध्या में जनमानस में उनकी प्रतिष्ठा से ईर्ष्या  करने वाले कथित उच्च वर्ण के लोगों ने उनकी जाति को लेकर उनसे किया था.

जानकारों के अनुसार, इन उच्चवर्णियों ने वैरागियों से मिलकर पहले उन पर अपूज्य बनिया होने के बावजूद बड़े-बड़े महंतों को दरकिनार कर खुद को पुजवाने का लांछन लगाया, फिर अजात घोषित कर दिया. पलटूदास खुद बताते हैं, ‘सब बैरागी बटुरि कर पलटू किया अजाति’. फिर भी किंचित भी डरे बिना वे मानवीय, संवेदनाशील, समतामूलक एवं उन्मुक्त समाज निर्माण की अपनी राह पर चलते रहे, तो ईष्यालुओं को यह भी गवारा नहीं हुआ और एक दिन उन्होंने षड्यंत्रपूर्वक उनको जिंदा जला डाला.

सदानंद शाही लिखते हैं: पलटूदास ने अद्वैत की धारणा के मुताबिक सामाजिक समानता की शिक्षा दी, जो वर्ण और जाति के आग्रही लोगों को स्वीकार नहीं हुई, इसकी परिणति पलटू को जिंदा जला देने में हुई… भारतीय समाज में मौजूद जातीय और वर्ण आधारित घृणा का यह दिल दहला देने वाला एक और प्रमाण है… यूं, पलटू को जिंदा जलाने की मीराबाई को दी गई प्रताड़ना से तुलना की जा सकती है, लेकिन यह इस मायने में सबसे अलग है कि उनको प्रतिद्वंद्वी साधु समाज के कोप का शिकार बनना पड़ा था.

वह भी जब वे हिंसा के इतने विरोधी थे कि कहते थे कनक धार जो होय, ताहि न अंग लगावै  यानी तलवार सोने की हो तो भी उसे नहीं छूना चाहिए क्योंकि वह रक्त ही बहाएगी. उनकी मान्यता थी कि अगर आज छोटी छुरी की खेती की जाएगी तो निश्चित ही कल कत्लेआम होगा और समाज को उससे ऐसे विवेकी ही बचा सकते हैं, जो कतई असहज न हों.

संत कबीर ‘अरे, इन दोउन राह न पाई’ कहकर हिंदुओं व मुसलमानों को उनकी पोंगापंथी व ढकोसलेबाजी के लिए खरी-खरी सुना गए थे तो पलटूदास ने भी उन पर कुछ कम प्रहार नहीं किए-खुद को इन दोनों दीनों का हरीफ यानी प्रतिद्वंद्वी तक बताया, लेकिन साथ ही यह भी कहा:

मुसलमान रब्बी मेरी, हिंदू भया खरीफ.
हिंदू भया खरीफ, दोऊ है फसिल हमारी.
इनको चाहै लेइ काटि कै बारी-बारी.
साल भरे में मिली यही हम को जागीरी.
चाकर भरे हजूरी, कौन अब करै तगीरी.
दूनों को समझाई ज्ञान का दफ्तर खोलै.
सब कायल होइ जाय अमल दै कोऊ न बोलै.
दोऊ दीन कै बीच मैं पलटूदास हरीफ.
मुसलमान रब्बी मेरी, हिंदू भया खरीफ.

फिलहाल, अयोध्या में आज भी रामकोट में ‘पलटू साहब का अखाड़ा’ विद्यमान है, जिसमें उनकी गद्दी और समाधि है. उन्हें जिंदा जला दिए जाने को चमत्कार से जोड़ते हुए उनके अनुयायी कहते हैं कि उसके बाद भी उनका अंत नहीं हुआ था और वे जगन्नाथपुरी में देखे गए थे. वहां उन्हें पूजा की चौकी पर शयन करते देख पंडे व पुजारियों ने इसका मर्म समझे बिना उन्हें समुद्र में फेंक दिया था, फिर भी वे ज्यों के त्यों रहे थे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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